एक विज्ञापन पढ़ा कि मंदिर में विद्वान् कई आवश्यकता है ,संपर्क करें और वेतन योग्यतानुसार
ज्यातर जगह पुजारी चाहिए उसे ही विद्वान् या पंडित जी कहते हैं । वास्तव में प्रवचनकार ज्ञानी विद्वान् की आवश्यकता बहुत कम जगह होती है । आम दिगम्बर जैन समाज में विधानाचार्य,प्रतिष्ठाचार्य,अभिषेकाचार्य ,वास्तुविद्,आदि को ही दशलक्षण आदि पर्वों में पंडिज्जी के रूप में आमंत्रित करने का चलन है । इन्हें प्रचुर सम्मान राशि भी देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता । प्रवचन आनुषांगिक कार्य है जिन्हें ये ही बखूबी निपटा देते हैं और कभी कभी उसकी भी आवश्यकता नहीं होती ।
यही कारण है कि कई बड़े और स्वयं को आध्यात्मिक घोषित करने वाले विद्वान् भी मिथ्या वास्तु आदि हथकंडे समाज को आकर्षित और भयभीत करने के लिए अपनाने में संकोच नहीं कर रहे हैं । उनके अपने तर्क हैं लेकिन निहितार्थ गुप्तार्थ भिन्न ही हैं ।
आदरणीय दादा जी ने प्रवचनकार विद्वानों को प्रतिष्ठित करने का जो कार्य किया वह अभूतपूर्व है । शादी - विवाह कराना,गृहप्रवेश अनुष्ठान आदि कार्यों से यथासंभव बचने की प्रेरणा देकर वास्तविक ज्ञान संरक्षण का उद्देश्य ही विद्वानों का परम कर्त्तव्य है - यह सिखलाया । ब्राह्मण परंपरा में भी शादी - विवाह कराना,गृहप्रवेश अनुष्ठान आदि में संलग्न पंडितों को मुख्य धारा के विद्वान् जैसा सम्मान नहीं दिया जाता है ,हाँ दक्षिणा जरूर अधिक दी जाती है ।
इसलिए स्पष्ट लिखना चाहिए कि मंदिर में पुजारी की आवश्यकता है जो माली से थोड़ी ऊंची पोस्ट पर कार्य करेगा ।
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