तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विश्वविद्यालय : एक परिकल्पना
प्रो० अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली s/o प्रो फूलचंद जैन प्रेमी
18फरवरी 2024 को जन जन की आस्था के सागर पूज्य आचार्य
विद्यासागर महाराज समाधिस्थ हो गए | इसे एक महान संयोग ही समझा जायेगा कि ठीक दो
वर्ष पूर्व 18 फरवरी 2022 को सांध्य महालक्ष्मी अखबार ने कुण्डलपुर महामहोत्सव के
अवसर पर वहां एक जैन विश्वविद्यालय की स्थापना के मेरे प्रस्ताव को प्रकाशित किया
था |मगर उस समय किसी ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया |
इसके पूर्व जैन विश्वविद्यालय की एक परिकल्पना मैंने 2004
में लिखी थी जिसको जिनभाषित सहित 2005 में श्री स्याद्वाद महाविद्यालय,वाराणसी की
शताब्दी महोत्सव की स्मारिका में भी प्रकाशित किया था |
जैन विश्वविद्यालय
एक बहु प्रतीक्षित पुरानी अवधारणा है -
पूज्य वर्णीजी की "मेरी
जीवन गाथा" पुस्तक के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उन्होंने जबलपुर में एक जैन विश्वविद्यालय की स्थापना की भी परिकल्पना की थी और इस दिशा में कुछ
प्रयास भी किये थे।बैरिस्टर चम्पत राय जी ने भी एक जैन विश्वविद्यालय की परिकल्पना
प्रस्तुत की थी | अनेक स्थानों में तब से अब तक अनेक प्रयास इस लक्ष्य हेतु हुए, किन्तु अब तक सफलता नहीं मिली।आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ जी ने
दूरदृष्टि का परिचय देते हुए एक जैन विश्वभारती संस्थान ,मानित विश्वविद्यालय की
स्थापना भी 1991 में की ,जो वर्तमान में जैन विद्या एवं प्राकृत के क्षेत्र में
बहुत कार्य कर रहा है |
ऐसा नहीं है कि जैन नाम से या जैन श्रेष्ठियों द्वारा
विश्वविद्यालय नहीं चल रहे हों ,पिछले दो दशकों में कई निजी विश्वविद्यालय बने हैं
जो जैन उद्योगपतियों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं ,और वे अपनी अलग पहचान भी बना
रहे हैं | इनमें जैन विश्वविद्यालय ,बंगलौर,मंगलायतन विश्वविद्यालय
,अलीगढ,तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय ,मुरादाबाद , एकलव्य विश्वविद्यालय ,दमोह
आदि कई निजी विश्वविद्यालय भी हैं जिन्होंने अपने व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के साथ
साथ जैन दर्शन और प्राकृत भाषा के अव्यवसायिक पाठ्यक्रम भी अपने विश्वविद्यालयों
में प्रारंभ किये हैं जो कि शुभ संकेत हैं |जैन शिक्षा के केंद्र माने जाने वाले
स्थल श्रवणबेलगोला में भी एक अंतर्राष्ट्रीय प्राकृत विश्वविद्यालय की स्थापना के
प्रयास बहुत समय से चल रहे हैं |
विदेशों में वहां के श्रावकों ने इस मामले में भारतीय
श्रावकों से आगे बढ़कर इसकी महत्ता समझी है और उन्होंने अपनी चंचला लक्ष्मी का उपयोग
वहां के विश्वविद्यालयों में जैन स्टडीज की चेयर और विभाग खुलवा कर की है | इसके
अलावा भी हो सकता है कहीं और भी प्रयास चल रहा हो |मगर इतना निश्चित है कि भारतीय
श्रावक इस विषय में अभी उतने जागरूक नहीं बन सके हैं जितने विदेश में रहने वाले
श्रावक |
आचार्य विद्यासागर जैन विश्वविद्यालय : एक सच्ची विनयांजलि
इन सभी प्रयासों के बीच अपनी पुरानी कल्पना को संजोता हुआ
,विगत 22 वर्षों से एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में कार्य अनुभव और उसके पूर्व जैन
विद्या से सम्बंधित विविध शिक्षा केन्द्रों में अध्ययन के अनुभव के आधार पर आज
आचार्य श्री विद्यासागर जैन विश्वविद्यालय की परिकल्पना क्या हो सकती है ? इस विषय में मेरे मन में अनेक रूप उभरे हैं । किन्तु अन्ततः एक सम्पूर्णता को समेटे हुए मेरे अल्पज्ञ मन में जो रूप उभरा, उसे इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि भविष्य में इसका सुनियोजित विशद रूप कभी साकार हो सके, इसी मंगल भावना के साथ प्रस्तुत है आचार्य श्री
विद्यासागर जैन विश्वविद्यालय की एक परिकल्पना |मेरे विचार यह उन महान आचार्य के
प्रति हमारी एक सच्ची और स्थाई विनयांजलि होगी |
जैन शिक्षा की वर्तमान परंपरा
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जैन विद्या के पठन-पाठन को सुरक्षित रखने के लिए हमारी समाज के कर्णधारों ने जैन विद्यालयों का
शुभारम्भ किया। मध्यमा, शास्त्री, आचार्य की कक्षाओं में परम्परागत शास्त्रीय विषय पढ़कर शास्त्रीय विद्वानों की
श्रृंखला तैयार हुई है । कुछ विश्वविद्यालयों तक में जैनदर्शन एवं प्राकृत विभाग
खोले गये।
जैन चेयर स्थापित की गयीं। इन सभी प्रयासों से जैन संस्कृति
के दर्शन पक्ष का स्वरूप तो यत्किंचित् निखरा और काफी कार्य हुआ, किन्तु फिर भी प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं तथा जैन संस्कृति के अन्य महत्वपूर्ण विषय एवं पक्ष बिल्कुल उपेक्षित रह गये, जिनका अध्ययन-अध्यापन और अनुसन्धान कार्य बहुत आवश्यक था। इनके बिना जैन विद्या का
कार्य अधूरा है।
जैन विश्वविद्यालय की परिकल्पना
इन सभी पक्षों की पूर्ति हेतु एक स्वतंत्र जैन विश्वविद्यालय की स्थापना बहुत आवश्यक है। आज कुछ लोगों से जैन
विश्वविद्यालय बनाने एवं उसकी सम्भावनाओं की चर्चायें प्रायः सुनता हूँ, किन्तु जैन विश्वविद्यालय कैसा होना चाहिए, इसका कोई निश्चित स्वरूप अभी तक देखने में नहीं आया। जैन नाम से तो विश्वविद्यालय
स्थापित हो सकते हैं, किन्तु वहाँ भी यदि अन्य विश्वविद्यालयों जैसे व्यावसायिक या लौकिक शिक्षा के
पाठ्यक्रम ही लागू रहें, तो नाम मात्र से ही क्या फायदा ? हमारे मन में ऐसे ही विश्वविद्यालय की परिकल्पना बहुत दिनों से बार-बार बनती रही
है जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की गुणवत्ता को बनाते हुए
पूर्ण रूप से जैन संस्कृति मात्र के प्रति समर्पित हो।
किसी भी विश्वविद्यालय
में एक मात्र जैन दर्शन एवं प्राकृत-विभाग चलाने से संपूर्ण संस्कृति का संवर्धन संभव नहीं, समग्रता जैनधर्म के विभिन्न उपेक्षित महत्वपूर्ण विषयों के अध्ययन में होगी। एक
पूर्णतः स्वायत्तशासी तथा सरकार द्वारा अनुदानित जैन विश्वविद्यालय देश के अच्छे स्थान
में स्थापित होना चाहिए। यह विश्वविद्यालय कोई धर्म प्रचार का केन्द्र न बनकर
मात्र शैक्षणिक रूपरेखा वाला केन्द्र बने और सरकारी अनुदान से इसलिए कि जैनधर्म
दर्शन संस्कृति एवं साहित्य भी हमारे देश को गरिमा है। अतः वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम शिक्षण
संस्थानों की तरह हमें भी इनके संवर्धन, संरक्षण हेतु सरकार से आर्थिक अनुदान का उतना ही अधिकार है जितना अन्यों को। हमारी समाज का टैक्स आदि के रूप में सरकारी खजाने भरने में सर्वाधिक योगदान भी है।
अतः यही ढंग से चलाया जाय तो विशिष्ट अनुसंधान तथा अध्ययन
के उद्देश्य को लेकर चलने वाला यह जैन विश्वविद्यालय नये कीर्तिमान स्थापित कर
सकता है। विश्वविद्यालय और पारम्परिक महाविद्यालयों, पाठशालाओं में
मौलिक अन्तर यही होता है विश्वविद्यालय
पूजन, पाठ, विधान और प्रवचन आदि के ट्रेनिंग केन्द्र मात्र नहीं होते हैं । इसलिए यह हो सकता है कि
समाज को इस विश्वविद्यालय से सीधा-सीधा विशेष लाभ न दिखे, किन्तु प्रकारान्तर से यह समाज का ऐतिहासिक सच्चा सेवक सिद्ध हो सकता है। यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षणिक स्तर पर जैन संस्कृति की कोई स्थिति प्राप्त करना
चाहते है, तो हमें अवश्य ही छोटे-छोटे लाभ के लोभ का संवरण करना ही पड़ेगा, क्योंकि इस प्रकार के अन्य स्रोत बहुत हैं। सुप्रसिद्ध खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर,धोनी आदि
से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वह हमारे लिए तभी उपयोगी होगा जब वह हमारे गली मुहल्ले
में होने वाले खेलों में भी भाग लें।
विभागों का
वर्गीकरण-
जैन विश्वविद्यालय संचालित करने में जो प्रमुख उद्देश्य है
वह है-अध्ययन, अध्यापन-अनुसंधान- अनुवाद और सम्पादन । इस दृष्टि से जैन विश्वविद्यालय में निम्नलिखित
विभागों का वर्गीकरण होना चाहिए-
१. प्रथमानुयोग विभाग-
इस विभाग में जैन ६३ शलाका पुरुषों के चरित के आधार पर रचित
पुराणों, कथा ग्रन्थों तथा उनमें वर्णित कथाओं और उपदेशों का अध्ययन व अनुसन्धान हो। कथानुयोग के समस्त ग्रन्थों का इस विभाग में अध्ययन-अध्यापन कराया जाय। उस पर शोध कार्य हों। हस्तलिखित पाण्डुलिपियों
का सम्पादन एवं प्रकाशन हो।उनकी कथाओं का फिल्मांकन हो,वृत्तचित्र बने तथा कथा
वाचन की परंपरा भी प्रारंभ हो |जैन पुराणों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से
अध्ययन करके उसमें से नये तथ्य प्रकाशित किये जाएँ |
२. करणानुयोग विभाग-
यह विभाग एक संकाय के रूप में भी कार्य कर सकता है जिसके अन्तर्गत कई विभाग
अलग-
अलग विषयों पर कार्य कर सकते हैं। जैसे-
(क) जैन गणित विभाग
इस विभाग में गणित की उत्पत्ति से लेकर आज तक की गणित में जैन
गणितज्ञों द्वारा रचित शास्त्रों को क्रमवद्ध पाठ्यक्रम बनाकर उसका अध्ययन-अनुसन्धान किया जाय। जैन गणित के चमत्कारों को दुनिया के
समक्ष रखा जाय। वैदिक गणित व आधुनिक गणित से जैन गणित का तुलनात्मक अध्ययन हो।
अप्रकाशित प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन व प्रकाशन हो ।
(ख) जैन भूगोल विभाग-इस विभाग में जैन भूगोल का शास्त्रीय व वैज्ञानिक तुलनात्मक
अनुसन्धान व अध्ययन हो । अप्रकाशित ग्रंथों का सम्पादन व प्रकाशन हो ।
(ग) जैन खगोल विभाग-इस विभाग में जैन खगोल का जैन दृष्टि से तथा अन्य धर्मो से
तुलना करते हुए अध्ययन अनुसन्धान हो तथा अप्रकाशित पाण्डुलिपियों को एकत्रित कर
उसका संपादन व प्रकाशन कार्य हो ।
(घ) जैन ज्योतिष-वास्तु विभाग
इस विभाग में जैन ज्योतिष विद्या से अन्य सभी ज्योतिष
विद्याओं का तुलनात्मक अध्ययन हो । ज्योतिष,
हस्तरेखाविज्ञान, निमित्त ज्ञान, सामुद्रिक शास्त्र इत्यादि विषयों पर इस विभाग के अन्तर्गत
अध्ययन-अध्यापन व अनुसन्धान हो ।ज्योतिष विद्या से सम्बंधित
अन्यान्य पांडुलिपियों की खोज की जाय ,उनका संपादन अनुवाद हो |इसके पाठ्यक्रम
तैयार किये जाएँ ,तथा जैन ज्योतिष की एक प्रायोगिक शाखा का उद्घाटन हो जिसमें
गृहीत मिथ्यात्व से रहित ज्योतिष और वास्तु का गहन अध्ययन हो तथा जीवन में उसकी
उपयोगिता का वास्तविक अर्थों में प्रकाशन हो |अभी जैन ज्योतिष ,निमित्तशास्त्र,वास्तु
की स्वतंत्र शाखा का व्यवस्थित विकास नहीं हो सका है | अभी लोग यही समझ रहे हैं कि
कोई जैन व्यक्ति जो ज्योतिष का कार्य करता है वही जैन ज्योतिष है |
३. चरणानुयोग विभाग-
इस विभाग में श्रावक एवं श्रमण के आचारपरक शास्त्रों का
अध्ययन-अध्यापन हो। इसका सभी छोटी बड़ी कक्षाओं के अनुरूप सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम
तैयार किया जाय। आचार परक साहित्य ग्रन्थों पर शोधकार्य हो। प्राचीन अप्रकाशित
पाण्डुलिपियों को खोजा जाय, उनका सम्पादन व प्रकाशन हो |प्रायोगिक रूप से भी जैन आचार पद्धति की
वैज्ञानिकता पर अनुसन्धान हो |जैन आचार शास्त्र की चिकित्सकीय उपयोगिता पर
अनुसन्धान हो |
४. जैन द्रव्यानुयोग विभाग-
इस विभाग के भी दो उपविभाग होंगे। पहला अध्यात्म-शास्त्र विभाग और दूसरा न्याय-शास्त्र विभाग। इनसे सम्बन्धित प्रमुख शास्त्रों का व्यवस्थित
पाठ्यक्रम बनाकर इस विभाग में पढ़ाया जाय तथा इस दृष्टि से अध्ययन-अध्यापन व अनुसन्धान कार्य भी कराया जाय। अन्य परम्पराओं के शास्त्रों से
तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाय ।जैन न्याय की आधुनिक विधि शास्त्र में उपयोगिता को
शोधपूर्ण तरीके से प्रकाशित किया जाय |
५. जैन इतिहास, कला एवं पुरातत्व विभाग-
इस विभाग में जैन इतिहास को एक नये सिरे से नये खोजे गये
प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर लिखा जाय, उसका अध्ययन अनुसंधान हो। लिपि विज्ञान, मूर्तिकला
वास्तुकला, चित्रकला इत्यादि विषयों पर अध्ययन हो तथा तत्सम्बन्धित अप्रकाशित ग्रन्थों का प्रकाशन
हो। जैन पुरातत्व के साक्ष्यों को इस विभाग में एकत्रित किया जाय। जैन इतिहास के
तथ्यों को दुराग्रहवश तोड़मरोड़कर विश्व में किसी के द्वारा यदि कहीं भी प्रस्तुत
किया जाय, तो उसका यहाँ से समाधान मिले। सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति, विभिन्न प्राचीन शिलालेखों इत्यादि का पुनः अध्ययन हो। इसी विभाग के अन्तर्गत एक
व्यवस्थित विशाल जैन पुरातत्व संग्रहालय भी विश्वविद्यालय में स्थापित किया जाय। यह
विभाग बहु आयामी दृष्टि से इस महत्त्वपूर्ण शाखा का कार्य कर जैन इतिहास को एक नई
दिशा दे सकता है |
६. जैन संगीत एवं नृत्यकला विभाग-
जैन आगमों
में वर्णन हैं ही साथ ही संगीत आदि कलाओं से सम्बंधित अनेक ग्रन्थ जैन परंपरा में
लिखे गए | इस विभाग में इस बात का प्रशिक्षण व अनुसन्धान हो कि कला ,संगीत एवं
नृत्य जगत के लिए जैन संस्कृति का क्या अवदान रहा ? इन विषयों से
सम्बन्धित शास्त्रों का अध्ययन, सम्पादन व प्रकाशन हो। प्रायोगिक रूप से भी उनका एक प्रारूप तैयार हो; जिसका प्रस्तुतिकरण देश-विदेश में किया जा सके ।जैन संगीत की क्या विशेषताएं हैं ? क्या वर्तमान संगीत
जगत में ऐसा कुछ है जो जैन संगीतकारों का मौलिक है और किसी को इस बात की खबर नहीं
है | संगीत आदि कलाओं के विशेषज्ञ जो जैन शास्त्रों का और सिद्धांतों का भी अभ्यास
रखते हैं –इस विभाग से जुड़कर बहुत कुछ नया कार्य कर सकते हैं |
७. प्राकृत-संस्कृत भाषा साहित्य एवं भाषा विज्ञान विभाग-
जैन आगम मूलतः प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं ,साथ ही आगमेतर
साहित्य भी प्राकृत भाषा में प्रचुर मात्रा में मिलता है |जैनाचार्यों ने विशाल
संस्कृत साहित्य का भी सर्जन किया | इस विभाग में सभी प्राकृत-संस्कृत भाषाओं एवं
उसके साहित्य का सुव्यवस्थित रूप में अध्ययन,अध्यापन और अनुसन्धान होगा। यहाँ
प्राकृत-संस्कृत व्याकरण,कोष साहित्य के
सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श व अनुसन्धान होगा ।यह विभाग प्राकृत की उपलब्ध /अनुपलब्ध पांडुलिपियों
की खोज करेगा तथा उनका संशोधन ,अनुवाद और प्रकाशन भी करेगा |भाषा विज्ञान की
दृष्टि से भी भारत की इस प्राचीन भाषा का बहुत महत्त्व है ,अन्य भारतीय भाषाओँ का
विकास समझने और समझाने का अनुसंधानपूर्ण कार्य यह विभाग करेगा |
८. अपभ्रंश-हिंदी भाषा
विभाग-
इस विभाग में भी अपभ्रंश भाषा एवं इसके साहित्य का अध्ययन तथा अनुसन्धान किया
जाय ।अपभ्रंश भाषा से ही हिंदी का विकास हुआ है अतः जैन कवियों
,साहित्यकारों,लेखकों द्वारा नई एवं पुरानी हिंदी में लिखे गए काव्य,गद्य,टीका,वाचना,रास
आदि साहित्य की खोज ,उसका अनुसन्धान ,उसमें प्रज्ञापित ज्ञान विज्ञान को सामने
लाने का कार्य यह विभाग कर सकता है |
९. जैन योग विभाग-
यह विभाग जैन परम्परा द्वारा प्रतिपादित योग एवं ध्यान
पद्धतियों का प्रायोगिक व सैद्धान्तिक अध्ययन करेगा। नये युग में योग की भूमिकाओं
का ध्यान करते हुए उसे आधुनिक सन्दर्भों में प्रस्तुत करेगा । अन्य सभी योग
पद्धतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन होगा। यहाँ योग व ध्यान से संबंधित
पाण्डुलिपियों, ग्रंथों व अनुसन्धानों का सम्पादन व प्रकाशन अपेक्षित है।एक योग केंद्र विकसित
कर यह विभाग वर्तमान में जैन योग के नाम पर चल रही अन्यान्य पद्धतियों पर
वैज्ञानिक रिसर्च करके उसके सुपरिणाम से जगत को परिचित करवाएगा |
१०. जैन विद्या एवं आधुनिक विज्ञान विभाग-
इस विभाग में जैन सिद्धान्तों का आधुनिक विज्ञान में योगदान
व संभावनाओं पर अध्ययन अनुसन्धान होगा । नयी-नयी पुस्तकें
लिखी जायेंगी, जिसमें आधुनिक विज्ञान व सिद्धान्तों का तुलनात्मक विश्लेषण होगा।वर्तमान में कई समूह इस पर कार्य कर रहे हैं ,जैन सिद्धांतों को वर्तमान
के वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ सिद्ध करना आज की बहुत बड़ी आवश्यकता है |
११. जैन विधि-विधान विभाग-
यह विभाग जैनधर्म की सभी परम्पराओं की पूजन पद्धतियों, विधि-विधानों के स्वरूपों, प्रतिष्ठाओं तथा अन्य सभी संस्कारों एवं क्रिया-काण्डों की शास्त्रीयता व वैज्ञानिकता का अध्ययन, अनुसन्धान करेगा। अप्रकाशित ग्रंथों का प्रकाशन करेगा।जैन तंत्र मन्त्र विद्या उसके
सार्थक प्रभावों आदि पर वैज्ञानिक और प्रायोगिक अनुसंधान भी बहुत अपेक्षित है ।
१२. जैन शिक्षाशास्त्र विभाग-
जैन आगमों में अधिगम के उपाय और शिक्षा शास्त्र से सम्बंधित
अनेक व्यवस्थाएं प्रतिपादित हैं | जैन मंदिर हमेशा से समाज में शिक्षा के बहुत बड़े
केंद्र रहे हैं | मुनि संघ में दीक्षा और शिक्षा की अपनी एक अलग पद्धति रही है | इस
विभाग में इस बात का अनुसन्धान किया जायेगा कि. ‘जैन शिक्षाशास्त्र' कैसा है ? और मूल्यपरक शिक्षा के विकास में जैन शिक्षा पद्धति की क्या भूमिका है ? वर्तमान में जो बी०एड० एवं एम०एड० के माध्यम से शिक्षक प्रशिक्षण
होता है, क्या उसमे जैनशिक्षा पद्धति संयोजित करने से सार्थक परिणाम सामने आ सकते हैं ? इनके अलावा भी इस विषय पर गम्भीर चिन्तन, शोध इसी विभाग से संभव हो सकेगा ।
१३.जैन आयुर्वेद चिकित्सा विभाग-
यह जानकारी बहुत कम लोगों को है कि प्राकृतिक चिकित्सा, शुद्ध जड़ी बूटी द्वारा औषधि निर्माण आदि कार्य, जिन्हें
आयुर्वेद के अन्तर्गत गिना जाता है, इस विषय के अनेक शास्त्र जैनाचार्यों द्वारा रचे गये। आयुर्वेद क्षेत्र के विशेषज्ञ इस
विभाग से इस ज्ञान राशि पर अनुसन्धान, अध्यापन व अध्ययन करेंगे । यह विभाग एक प्रयोगशाला व एक रसायनशाला एवं
चिकित्सालय भी स्थापित करेगा जिसमें जनसामान्य अपना इलाज भी करवा सकेंगे। वर्तमान
में प्रसिद्ध आयुर्वेद कई मायनों में जैन आचार पद्धति से मेल नहीं खाते |
१४. अनुवाद विभाग-
इस विभाग में सभी प्रमुख जैन शास्त्रों का अंग्रेजी सहित
संसार की कई भाषाओं में अनुवाद करवाया जायेगा। ताकि समग्र महत्त्वपूर्ण जैन
साहित्य तथा विचारधारा को संपूर्ण विश्व में फैलाया जा सके ।
१५. प्रकाशन विभाग-
यह विभाग सभी विभागों के अनुसन्धान व सम्पादन को प्रकाशित
करेगा। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शोध
पत्रिका भी इसी विभाग से प्रकाशित होगी ।
१६.केन्द्रीय
पुस्तकालय
पूरे विश्वविद्यालय के प्रत्येक विभाग का अपना एक निजी
पुस्तकालय होगा ही किन्तु पूरे विश्वविद्यालय का एक केन्द्रीय पुस्तकालय भी होगा |यह
एक ऐसा पुस्तकालय बने जहाँ विश्व की सारी जैन पांडुलिपियाँ संग्रहीत हों | विश्व
में प्रकाशित नया या पुराना एक भी ऐसा जैन विद्या से सम्बंधित साहित्य न हो जो
यहाँ न हो | यह एक ऐसा केंद्र बने कि जो ग्रन्थ कहीं न मिले लेकिन यहाँ जरूर मिले
| यह सम्पूर्ण आधुनिक यंत्रों से युक्त केन्द्रीय पुस्तकालय देश विदेश के सभी
अध्येताओं के लिये आकर्षण का केंद्र बनेगा |
कार्य प्रारंभ की पद्धति
इनके अतिरिक्त अन्य विभाग भी आवश्यकतानुसार संभव हो सकते हैं, जिनकी जानकारी जैन विद्या के विशेषज्ञों से प्राप्त की जा सकती है जैन
विश्वविद्यालय में देश-विदेश के कोने कोने से खोजकर उन महान् समर्पित विद्वानों को विभाग सौंपे जायें, जो अनुभवी हैं तथा तत्संबंधी विषय का तलस्पर्शी ज्ञान रखते हों। इसके लिए भले ही उनके पास औपचारिक डिग्रियां न हों किन्तु यदि उनकी इस विषय से संबंधित विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं तब भी उन्हें उनके अनुभव एवं
कार्य के आधार पर रखा जायेगा ताकि प्रतिभाओं का सही उपयोग किया जा सके। इसके लिए जरूरी नहीं कि हम शुरूआत में ही पहले करोड़ों की व्यवस्था की बात
सोचें। देश में समाज द्वारा बनी न जाने कितनी इमारतें विभिन्न नगरों में हैं जिनका
उपयोग इसके लिए किया जा सकता है।कुण्डलपुर जैसे तीर्थ क्षेत्र एक सर्वसुविधा संपन्न
क्षेत्र हैं ,यह शुरुआत वहां से की जा सकती है | आज देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन
विद्या एवं अन्य विषयों को पढ़ाने वाले जैन प्रोफेसर्स कार्यरत् हैं, जिन्हें सम्मानित रूप से इन विभागों में सेवा हेतु रखा जा सकता है और विश्वास
मानें इन सभी लोगों में ऐसा कोई न होगा जो सेवा देने को तैयार न हो।देश में अनेक
जैन त्यागी व्रती बहुत ही शिक्षित और शैक्षणिक दृष्टि संपन्न हैं ,उन्हें यहाँ से
उनकी विशेषज्ञता के अनुकूल जोड़ा जा सकता है |
विश्वविद्यालय में ज्यादा विद्यार्थियों की अपेक्षा न रखी
जाय | जो स्वयं इस क्षेत्र में समर्पित होना चाहें उनका स्वागत हो | आरम्भ में
मात्र अनुसन्धान कार्य रखा जाये । सभी विभागों का स्वरूप तय करने तथा विषय
प्रवर्तन में ही कई वर्ष लग जायेंगे किन्तु यदि अभी शुरूआत हो गयी और कुछ कार्य
तथा स्वरूप सामने आने लगा तो भविष्य में इसकी मान्यता तथा सरकारी अनुदान लेने हेतु
आधारभूमि भी तैयार हो जायेगी।
शुरुआत तो करनी ही होगी, शुरुआत भले ही
छोटे रूप में हो किन्तु यदि ख्वाब ऊँचे होंगे लो हम उनको एक न एक दिन सच कर ही लेंगे। ऐसा विश्वविद्यालय वास्तव में उच्च शिक्षा का एक विशिष्ट
महत्त्वपूर्ण केन्द्र होगा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की
तरह व्यापक अनुसन्धान कार्यों के लिए स्थापित यह विश्वविद्यालय
अपने आप में अद्वितीय होगा। जिन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे विश्व के
अद्वितीय विश्वविद्यालय की स्थापना की ऐरे पण्डित मदन मोहन मालवीयजी को कोई सेठ
नहीं थे, न ही कोई साधु, वे एक संकल्पी, आत्मविश्वासी विद्वान् व कर्मठ पुरुष थे। अपनी भावनाओं से न जाने क्या-क्या
विपत्तियाँ एवं अपमान सहकर इसकी स्थापना की। आज यह विश्वविद्यालय पूरे विश्व में
विख्यात है। देखना यह है कि अपने इस तरह के जैन विश्वविद्यालय की स्थापना करके
इतिहास की एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति क्या हो पायेगी ? क्या कोई नया
इतिहास रचा जायेगा ? बहुत से लोगों के मन में ये बाते हैं। कितनों ने प्रयास भी किये, पूज्य वर्णीजी
एवं वैरिस्टर चम्पतरायजी ने भी अब से सत्तर वर्ष पूर्व इसकी कल्पना की थी। किन्तु
उन सब की आशायें अब तक हम पूरी नहीं कर पाये ।
हम अपने आपसी विवादों, कटुताओं, मनमुटाव, स्वार्थवादिताओं, पदलोलुपताओं, नेतागिरी एवं आडम्बर-युक्त क्रियाकाण्डों में रहकर अपनी बहुमूल्य शक्ति व्यर्थ खर्च करते रहे।
इसीलिए हम अब तक इस दिशा में सफल नहीं हुए। हम नाकाम भले ही रहे हों, किन्तु नाउम्मीद नहीं है। यह स्वप्न कभी न कभी यथार्थ में परिणत होकर रहेगा ऐसा हमें अब भी दृढ़ विश्वास है। क्योंकि-
'दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है।
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है ।।"
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