अवसाद की समस्या के निवारण में जैन सिद्धान्तों की भूमिका
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
आचार्य - जैनदर्शनविभाग
दर्शन संकाय, श्री लाल बहादुर शास्त्रीराष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय ,
क़ुतुब सांस्थानिक क्षेत्र,नई दिल्ली – ११००१६
आज विश्व की मुख्य समस्यायों में से एक सबसे बड़ी समस्या है – बढ़ता मानसिक तनाव और अवसाद |यह एक ऐसी समस्या है जिससे सामने आधुनिकता और विकास के हमारे सारे तर्क बेमानी लगने लगे हैं |इतना पैसा ,समृद्धि,विकास आखिर किस काम का यदि हम सुख और शांति की नींद भी न ले सकें | मनुष्य का यह विकास नहीं ह्रास ही माना जायेगा कि सारे संसाधन होते हुए भी वह निरा असहाय और अशांत है ,आखिर ऐसी उन्नति किस काम की जो अशांति पैदा करती है ,हमें सुख से जीने नहीं देती | विकास की इस छद्म दौड़ ने हमें इकठ्ठा करना तो सिखाया ,लेकिन त्याग के मूल्य को समाप्त कर दिया जो हमें सुख देता था |
विकास ने हमें सोने के लिए मखमली गद्दे तो दे दिए लेकिन वो नींद छीन ली जो चटाई पर भी सुकून से आती थी | निश्चित ही हम किसी परिपूर्ण दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं | विकास को नकारा नहीं जा सकता लेकिन जीवन की सुख शांति से भी समझौता नहीं किया जा सकता |ऐसे द्वंद्वात्मक माहौल में हमें कोई ऐसा समाधान निकालना होगा जिससे इन दोनों का संतुलन बना रहे |
अवसाद क्या है ?
अवसाद या डिप्रेशन का तात्पर्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में मनोभावों संबंधी दुख से होता है। इसे रोग या सिंड्रोम की संज्ञा दी जाती है। आयुर्विज्ञान में कोई भी व्यक्ति डिप्रेस्ड की अवस्था में स्वयं को लाचार और निराश महसूस करता है। उस व्यक्ति-विशेष के लिए सुख, शांति, सफलता, खुशी यहाँ तक कि संबंध तक बेमानी हो जाते हैं। उसे सर्वत्र निराशा, तनाव, अशांति, अरुचि प्रतीत होती है। अवसाद के भौतिक कारण भी अनेक होते हैं। इनमें कुपोषण, आनुवंशिकता, हार्मोन, मौसम, तनाव, बीमारी, नशा, अप्रिय स्थितियों में लंबे समय तक रहना, पीठ में तकलीफ आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अवसाद के ९० प्रतिशत रोगियों में नींद की समस्या होती है। मनोविश्लेषकों के अनुसार अवसाद के कई कारण हो सकते हैं। यह मूलत: किसी व्यक्ति की सोच की बुनावट या उसके मूल व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। अवसाद लाइलाज रोग नहीं है। इसके पीछे जैविक, आनुवांशिक और मनोसामाजिक कारण होते हैं। यही नहीं जैवरासायनिक असंतुलन के कारण भी अवसाद घेर सकता है। इसकी अधिकता के कारण रोगी आत्महत्या तक कर सकते हैं ।
एक विकराल समस्या –
अवसाद जिसे हम डिप्रेशन के नाम से जानते हैं एक ऐसी बिमारी है जिसने पूरे विश्व को हैरान कर रखा है | भारत में भी आर्थिक और भौतिक उन्नति के साथ साथ यह बीमारी तेजी से अपने पाँव पसार रही है |भारत में आज चार महिला में से एक महिला और दस में से एक पुरुष अवसाद का शिकार है, जिसमें 67 प्रतिशत पीड़ितों में आत्महत्या की प्रवृति देखी गई और 17 प्रतिशत ने तो इसकी कोशिश भी की और 45 प्रतिशत किशोर अवसाद के लक्षणों के बाद शराब और मादक दवाओं की शरण लेते है | 'डेली' में आंका जाने वाला ये रोग 1990 में ही बड़े रोगों का चौथा बड़ा कारण था । विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 2020 तक यह सबसे बड़ा कारण बन जाएगा ।अवसाद का सबसे बड़ा दुष्परिणाम 'आत्महत्या' है |
भारत में युवा पीढ़ी भी तेजी से इसकी गिरफ्त में आ रही है | इनका भौतिक जगत जितना गतिमान और समृद्ध दिखाई दे रहा है इनका भाव जगत उतना ही क्षत - विक्षत है | उम्र की उठान पर ही यह घनघोर हताशा और निराशा के शिकार हो रहे हैं |इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सकों द्वारा काफी उपाय किये जा रहे हैं | काफी हद तक उन्हें समाधान मिलते भी हैं किन्तु ऐसी समस्या उत्पन्न ही न हो इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने उन शाश्वत सिद्धांतों के अपनाने का प्रयास करें जिनसे प्राचीनकाल से ही जीवों ने शाश्वत सुख और शान्ति को प्राप्त किया हैं |
भगवान महावीर ने अपनी साधना के बल से कुछ ऐसे नवीन अनुसन्धान किये हैं जिन्हें यदि स्वीकार कर लिया जाए तो मनुष्य अवसाद में जा ही नहीं सकता |
द्रव्य मीमांसा और तनाव प्रबंधन –
जैनदर्शन के अनुसार इस विश्व का निर्माण षड्द्रव्यों से हुआ है |जो सत् लक्षणवाला तथा उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त है उसे द्रव्य कहते हैं। जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छह द्रव्य हैं जो कि विविध गुण और पर्यायों से संयुक्त हैं। ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर (क्षीरनीरवत्) मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।
जैन दर्शन की इस द्रव्य मीमांसा को गहराई से समझने वाले को यह समझ में आ जाता है कि प्रत्येक द्रव्य का उत्पाद व्यय ध्रुवता युक्त स्वभाव है , यह विचार व्यक्ति को विभिन्न पदार्थो में होने वाले नित्य प्रति परिवर्तनों के प्रति निश्चिंत कर देता है, क्योंकि व्यक्ति जानता है कि पदार्थों में होने वाले परिवर्तन अपने समय में अपनी स्वभाव व पर्यायगत विशेषताओं के अनुरूप ही होते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति प्रतिकूल परिणमन होने पर खेद खिन्न नहीं होता परन्तु वस्तु के परिणमन स्वभाव में विश्वास होने से वह यह भी जानता है कि समय आने पर वस्तु में इच्छित परिवर्तन भी होंगे ही। इस प्रकार वह अधीर न होते हुये आशावादी रहता है। व्यक्तियों के प्रतिकूल व्यवहार पर भी वह खेद खिन्न नहीं होता परन्तु वह उनकी अच्छाइयों को उभार कर सही मार्ग पर लाने हेतु सतत् प्रयत्नशील रहता है । उसका व्यक्ति के उत्कृष्ट स्वभाव में विश्वास होने से वह तत्क्षणिक भावावेशों से विचलित नहीं होता तथा अपनी बुद्धि व चिन्तन को लक्ष्य प्रेरित रखते हुये सदैव प्रयत्नशील रहता है । वह प्रतिकूल व्यवहार की दशा में दूसरे व्यक्ति की अज्ञानताजनित राग-द्वेष प्रेरित व्यवहार की क्षणिकता का विचार कर स्वयं स्थिर चित्त ही रहता है।
जैन दर्शन का पर्याय की क्षणिकता व परिवर्तन शीलता का सिद्धान्त तनाव कम करने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है । इस सिद्धान्त को जानने वाला व्यक्ति कभी भी किसी के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नहीं होता । बुरे से बुरे व्यक्ति भी समय पाकर सुधरते देखे जाते हैं, व्यक्ति समय के साथ सीखता व अपने आपको बदलता है, तीव्र कषाय सदा विद्यमान नहीं रहती, अत: व्यक्ति में सुधार की सम्भावना सदैव ही रहती है । पुराण ऐसी कथाओं से भरे है । अत: जैन दर्शन का यह सिद्धान्त पूर्व में घटित घटनाओं, पूर्व में विद्यमान विकारों, गलतियों, कषायों के भय से व्यक्ति को मुक्त कर बिल्कुल नई शुरूआत करने की प्रेरणा देता है। पूर्वाग्रह से मुक्त होकर किये गये कार्य व्यवहार तनावों को घटाकर सफलता व सद्विश्वास की सम्भावना में वृद्धि करते हैं तथा एक सकारात्मक वातावरण का सृजन करते हैं |
अनेकान्तवाद और अवसाद से मुक्ति –
भगवान् महावीर ने वस्तु का स्वरुप समझाते समय उसे अनेकान्तात्मक बतलाया |आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति टीका में लिखा है –‘ जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।‘सत्-असत् की तरह तत्-अतत् भी विधिनिषेध रूप होते हैं, किन्तु निरपेक्षपने नहीं क्योंकि परस्पर सापेक्षपने से वे दोनों तत्-अतत् भी तत्त्व हैं |
यह सिद्धांत है कि विरोध वस्तु के स्वभाव में है | यह दार्शनिक सिद्धांत व्यवहारिक व्याख्या सहित समझ लिया जाय तो मनुष्य विरोध को स्वीकार कर पायेगा और जीवन में मानसिक संतुलन नहीं खोएगा |निराशावादी और हठ धर्मिता के स्वभाव वाले लोग अक्सर प्रत्येक वस्तु, घटना य परिस्थिति को सिर्फ अपने नज़रिये से देखते हैं | उनका यह एकांगी दृष्टिकोण उन्हें इसलिए अवसाद की ओर धकेल देता हैं क्यों कि वे घटना या परिस्थिति के दूसरे पक्ष की तरफ देख ही नहीं पाते हैं |
भगवान महावीर ने वस्तु का स्वरूप अनन्त धर्मात्मक बताया है | उसी अनन्त धर्मात्मक वस्तु का स्वरूप को समझकर मनुष्य निज स्वरूप का विचार करे तो वह कभी तनाव या अवसाद से ग्रसित नहीं हो सकता | दो विरोधी दिखने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में एक साथ सहावस्थान होना तो वस्तु का अनेकान्तात्मक स्वभाव है | इसलिए मेरा दृष्टिकोण जो है ठीक उससे विपरीत दृष्टिकोण या विचार दूसरे के हो सकते है - यह स्वीकारोक्ति ही व्यक्ति को आधे से अधिक तनावों से मुक्त कर देती है और वह सुखी हो जाता है फलस्वरूप वह अवसाद से ग्रसित ही नहीं होता |
कर्म सिद्धान्त और अवसाद से मुक्ति –
“जो जैसा करता है, वो वैसा भरता है" - यह सामान्य सा कर्म सिद्धान्त है जो सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में समाया हुआ है | जैन कर्म सिद्धान्त में इसकी गहरी मीमांसा की गयी है | जैन दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनादि अनन्त है इसका कोई निर्माता या नियन्ता नहीं है | सभी संसारी जीव अपने कर्मो का फल समय आने पर अनुकूल या प्रतिकूल भोगते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के लिये स्वयं उत्तरदायी होता है, वह जानता है कि वह अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ भावों का फल खुद ही भोगने वाला है। पाप के फल में उसे कोई शरण देने वाला नहीं हैं अत: वह अशुभ कर्मों से यथाशक्ति बचने का प्रयत्न करता है तथा प्रतिकूलताओं में स्वयं कृत कर्मो का ही प्रतिफल जानकर शान्तचित्त ही रहता है।
सुखी होना, दुखी होना - यह अपने स्वयं के कर्मों का फल है | उसी कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है। दूसरा मुझे सुखी या दुखी करता है - यह विचार ही वह करता है जो तत्त्वज्ञान से शून्य है | पर पदार्थ तुम्हें सुखी या दुखी नहीं कर सकते हैं; वे मात्र सुख या दुःख के निमित्त है | इस प्रकार का श्रद्धान होने पर हमें जीवन में दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है और स्वयं के कर्म सुधारने की समझ बढ़ती हैं | प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना कर्म फल भोगता है, दूसरे का नहीं अतः मेरे जीवन में जो दुःख या प्रतिकूलता हैं उसका मूल कारण दूसरा नहीं हैं, वह तो मात्र निमित्त हैं | ऐसा चिन्तन करने से मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त नहीं होता और अवसाद से बचा रहता हैं |
रत्नत्रय का सिद्धांत और अवसाद से मुक्ति -
जैनदर्शन में रत्नत्रय कहलाते हैं - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र | इन्हें मोक्ष का मार्ग कहा गया हैं | रत्नत्रय को धारण करने वाला कभी तनाव से ग्रस्त नहीं होता और अवसाद मुक्त रहता है | सम्यग्दर्शन का अर्थ हैं सच्चा विश्वास अपनी शुद्धात्मा पर विश्वास; भगवान द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों पर विश्वास | वर्तमान में बौद्धिकता और तार्किकता के अतिरेक ने हमारे भीतर विश्वास करने की सहज प्रवृत्ति को बहुत खंडित किया हैं | सच्चा विश्वास करने के लिए सरल-ऋजु स्वभाव चाहिए | मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि सम्यग्दर्शन के पथ पर तनाव रहित सरल-ऋजु चित्त वाला ही चल सकता हैं | सम्यग्दर्शन के जो साधन है वे भी तनाव आदि से दूर करने वाले हैं |
सम्यग्ज्ञान के माध्यम से किसी भी घटना, परिस्थिति या परिणाम की सही जानकारी होती है | जो वस्तु जैसी है उसका जो स्वरूप है, उसको वैसा ही जानना यह सम्यज्ञान है | प्रायः सही ज्ञान के अभाव में मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त रहता है | सही ज्ञान हो समस्या का समाधान कर सकता है |
सम्यग्चारित्र मनुष्य को सदाचरण सिखाता है | हमारे तनाव - अवसाद का मुख्य कारण हमारा गलत आचरण भी है | क्रोध, मान, माया, लोभ - ये चार ऐसे भाव है जो शांत चित्त आत्म को कष्ट देते हैं अर्थात दुःखी करते हैं इसलिए इनका नाम जैनदर्शन में 'कषाय' रखा गया है | आत्मा के चारित्रिक गुणों का घात इन्हीं चार कषायों के कारण होता हैं, और इन्हीं कषायों की प्रबलता मनुष्य को तनावग्रस्त भी करती है | शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए इन चार कषायों की समाप्ति बहुत आवश्यक है | ये कषायें जैसे जैसे मन्द होती हैं वैसे वैसे तनाव घटता जाता है | अन्य कई प्रकार ही मानसिक बीमारियों का कारण भी इन कषायों की प्रबलता है | अतः सम्यग्चारित्र के अभ्यास से इन पर विजय प्राप्त करके मनुष्य अवसाद आदि का शिकार नहीं होता |
सर्वज्ञता का सिद्धांत और अवसाद से मुक्ति -
जैन दर्शन सर्वज्ञता के सिद्धान्त को मानती है | सर्वज्ञ पर विश्वास करने वाला कभी तनावग्रसित हो ही नहीं सकता | वीतरागी सर्वज्ञ परत्मात्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान में तीनों लोकों के प्रत्येक द्रव्य की तीनों कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान) की प्रत्येक पर्याय को प्रत्यक्ष जानते हैं |कहा गया है ‘ वे सर्वज्ञ सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनों कालों में जानते हैं। तो भी वे मोहरहित ही रहते हैं। आज से २६०० वर्ष पहले भगवान महावीर सर्वज्ञ हो गये थे, उनके केवलज्ञान में भविष्य भी झलक गया था | तत्त्वज्ञानी सम्यग्दृष्टि मनुष्य इस बात पर अटल श्रद्धान रखता है -'जो होना है सो निश्चित है, केवल ज्ञानी ने गाया है'
अतः वही किसी भी घटना, परिस्थिति को लेकर आश्चर्य चकित नहीं होता और न परेशान होता है | फलस्वरूप वह हर प्रतिकूल - अनुकूल परिस्थिति की तैयारी पूर्व से ही कर चुका होता है | मैं जीवद्रव्य हूँ, मेरा हर परिणमन केवल ज्ञानी पूर्व में जान चुके हैं | अतः हर घटना निश्चित है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं है | ऐसा विचार करके वह प्रत्येक पल निश्चिन्त रहता है, तनावग्रसित नहीं होता और न अवसाद में जाता है | वह तो यही विचार करता है -
'जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे
अनहोनी सो कबहूँ न होसी, काहे होत अधीरा रे'
जैन दर्शन बहुत पुरुषार्थ वादी है यहाँ कहा गया है कि ‘जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा’ अर्थात् जो कर्म में शूर अर्थात वीर है वही धर्म में भी वीर है | कई बार ऐसा लगने लगता है कि ‘जो होना है वह निश्चित है’ –ऐसा कह कर किसी नियति या भाग्य वाद का उपदेश दिया जा रहा है किन्तु गहराई से देखें तो ऐसा नहीं है | उपदेश हमेशा पुरुषार्थ का ही दिया जाता है और नियति को स्वीकारना भी कोई साधारण पुरुषार्थ नहीं है |इसे स्थूल रूप से इस प्रकार समझें - हमने ट्रेन में सफ़र किया है उसका चालक मात्र इंजन चलाने और रोकने का पुरुषार्थ करता है ,जीवन में भी इतना ही पुरुषार्थ दिखलाई देता है ,जिस प्रकार चालक पटरी और पटरी की दिशा में चलने को विवश है उसी प्रकार हम सभी का जीवन भी है | ट्रेन का चालक चाहे तो भी ट्रेन की दिशा नहीं बदल सकता | वहां उसका पुरुषार्थ काम नहीं करता | ठीक ऐसा ही हमारे जीवन में भी होता है |नियति भी एक सत्य है | अकेले नियति को मानना एकांत है लेकिन नियति होती ही नहीं है ऐसा मानना भी वस्तु स्वरुप को नहीं स्वीकारना है |सूर्य पूर्व से उगता है और पश्चिम में अस्त होता है यह दुनिया की सबसे बड़ी नियति है –इसकी दिशा बदलने का पुरुषार्थ किसी ने आज तक नहीं किया बल्कि उसकी इस नियति को स्वीकार और उसके अनुरूप अपने को ढाला है तभी जीवन जी पा रहे हैं | अतः ऐसा परिवर्तन करने का विचार जो नियति में नहीं है ...व्यर्थ का अवसाद उत्पन्न करता है |
अकर्तावाद का सिद्धांत और अवसाद से मुक्ति –
जैन दर्शन अकर्तावादी दर्शन है | सारी दुनिया कर्तृत्व के नशे में चूर है | जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि का रचयिता नहीं मानता तथा यह भी मानता है कि, 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता'| व्यवहार की भाषा में कर्तापन कहने में जरूर आता है किन्तु वह वास्तविक नहीं होता हैं | प्रत्येक द्रव्य अपना स्वतन्त्र परिणमन कर रहा है | जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है किन्तु परभाव में निमित्त होने पर भी, परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता । अकर्तावाद मनुष्य की पराश्रय बुद्धि में सुधार करता है तथा दूसरा मेरा कुछ भला कर सकता है - यह मिथ्या मान्यता दूर हो जाती है | फलस्वरूप व्यर्थ का तनाव - अवसाद से मनुष्य दूर रहता है |
आचार मीमांसा और और अवसाद से मुक्ति -
यह सर्व ज्ञात तथ्य है कि रोग तनाव को बढ़ाते हैं तथा उचित आहार विहार रोग रहित जीवन का एक प्रमुख कारण है।हम सभी जानते हैं कि उचित आहार व्यक्ति के शरीर व मस्तिष्क के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। जैन शास्त्रों में खाद्य-अखाद्य पदार्थो का विस्तृत विवेचन किया गया है जो समय व आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरा सिद्ध हुआ है ।
‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन` यह कहावत विश्वप्रसिद्ध है परन्तु यह सदैव ही सत्य नहीं है, परन्तु ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे तन`यह कथन अधिक उपयुक्त है, क्योंकि भोजन के विभिन्न घटक ही शरीर के विभिन्न अवयवों का निर्माण करते हैं। शरीर की तनाव सहन करने की क्षमता की दृष्टि से उचित आहार-विहार महत्वपूर्ण है।
अहिंसा का सिद्धान्त और अवसाद से मुक्ति –
जैनधर्म अहिंसावादी है | अहिंसा का सिद्धान्त प्रत्येक सिद्धान्त के पृष्ठभूमि में रहता ही है | प्रमाद के योग से प्राणों का हरण कर लेना हिंसा कहलाता है | मन-वचन-काय से किसी जीव को दुःखी करना या उसके प्राणों का हरण कर लेना ही मुख्य रूप से हिंसा है | हिंसा करने से पहले व्यक्ति का मन, विचार, भाव आदि स्वयं हिंसक हो जाता है | लगातार हिंसा की विचारधारा होने से मनुष्य तनाव में रहता है | दूसरों को दुःखी करने वाले को सबसे पहले स्वयं परेशान होना पड़ता है | अहिंसा का भाव मन को शान्त रखता है अतः तनाव मुक्त रहने के लिए अहिंसक विचारधारा बहुत आवश्यक है |
अपरिग्रह का सिद्धान्त और अवसाद से मुक्ति –
भगवान महावीर ने माना कि दुखों का मूल कारण परिग्रह भी है |मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह कहा गया है | आवश्यकता से ज्यादा अचेतन पदार्थों का संग्रह मनुष्य को तनाव में डाल देता है | जो मनुष्य जितना कम परिग्रह रखता है उतना ही तनावमुक्त रहता है | मनुष्य जिस भी पदार्थ में आसक्त रहता है उस पदार्थ का वियोग होने पर वह अत्यन्त मानसिक दुःखों को भोगता है जो तनाव का कारण बनता है | अतः जितना कम परिग्रह तथा आसक्ति उतनी ही तनाव मुक्ति |
धार्मिक क्रियाएं और अवसाद से मुक्ति -
जैन दर्शन में चित्त की निर्मलता व एकाग्रता को बढ़ाने के लिये अनेक उपायों की चर्चा की गई है जो न केवल कषायों में कमी लाते हैं वरन् वे चित्त की एकाग्रता व तत्वज्ञान में वृद्धि करके तनाव मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इनमें सस्वर पूजन-पाठ-भक्ति-स्वाध्याय-मंत्रजाप व सामायिक आदि कार्य प्रमुख हैं।
अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त होकर किये जाने वाले सस्वर देव पूजन-भक्ति, स्तुति पाठ शरीर में कोलेस्ट्रोल व हानिकारक द्रव्यों की मात्रा में कमी करते हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से शरीर में कषायों को बढ़ाने वाले हानिकारक हारमोन्स का स्राव बन्द हो जाता है तथा फेफड़े, हृदय व पाचन तंत्र की क्रियाशीलता में वृद्धि होकर हानिकारक विजातीय तत्वों को शरीर से बाहर निकलने में मदद मिलती है। सस्वर वाचन से तंत्रिका तंत्र व रक्तवह नाड़ियों का लचीलापन बढ़ता है जो शरीर की तनाव सहन करने की क्षमता को बढ़ाता है।
इसके साथ ही ध्यान या सामायिक का तनाव घटाने में महत्वपूर्ण योगदान हैं। ध्यान के लाभों से समस्त ही विश्व आज सुपरिचित है। जैन दर्शन में कहा गया सामायिक ध्यान का ही एक रूप है जिसमें वस्तु स्वरूप का चिन्तन करते हुये बाह्य जगत के विषयों से मन को हटाकर उसे आत्म स्वरूप में एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है। इस क्रिया में चित्त की चंचलता व शरीर की अनेकानेक क्रियाओं में मन्दता आ जाती है, शरीर पूर्णत: शिथिल हो जाता है किन्तु ज्ञान पूर्णत: जाग्रत रहता है। इस ध्यान या सामायिक का प्रभाव शरीर व मन के तनावों को घटाने की दृष्टि से अद्वितीय है, उत्कृष्ट ध्यान को मुक्ति का कारण कहा गया है।
इसके साथ ही भक्ति-पूजा-पाठ-स्तुति, एवं ध्यान-सामायिक उत्कृष्ट शुभ भाव रूप होने से इन क्रियाओं के माध्यम से तीव्र पुण्य का बन्ध होता है जिसके फल में व्यक्ति को समस्त ही प्रकार की जागतिक अनुकूलताएं प्राप्त होती हैं तथा प्रतिकूलताओं की तीव्रता में कमी आ जाती है। इस प्रकार तनाव जनक स्थितियां पैदा ही नहीं होती तथा पैदा होती भी हैं तो व्यक्ति उनका सहज ही समाधान करने में सक्षम हो जाता है। सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, देवदर्शन, अभिषेक आदि अनेक क्रियायें ऐसी हैं जो एक तनाव युक्त व्यक्ति को तनाव मुक्ति का एहसास करवा देते हैं |
स्वाध्याय भी तनाव को घटाने का एक महत्वपूर्ण साधन है।तीव्र कषायी व्यक्ति भी यदि स्वाध्याय करता या सुनता है तो उसकी कषाय में शनै: शनै: तत्वज्ञान-वस्तु स्वरूप के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होने से कमी आने लगती है। वास्तविक वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने से व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में तनाव ग्रस्त नहीं होता तथा प्रतिकूलताओं में भी वह समाधान का मार्ग निकाल ही लेता है। कहा भी गया है कि ‘स्वाध्याय: परमं तप:` तथा ज्ञान ही सर्व समाधान कारक है। इस प्रकार स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान तनाव मुक्ति के लिये उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करता है तथा तनाव रहित जीवन की कला सिखाता है।
यहाँ हमने कुछ प्रमुख सिद्धांतों तीर्थ दर्शन आदि को तनाव प्रबन्धन तथा अवसाद मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में संक्षेप में देखने का प्रयास किया है | इसे बहुत व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है | इसके अलावा जैन योग पद्धति में कायोत्सर्ग, प्राणायाम, आसान तथा ध्यान कि क्रियायें गहरे अवसाद से बाहर निकालने कि सामर्थ्य रखती हैं | हम यदि इस विषय और अधिक शोध खोज करें तो काफी अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं |
सहायक ग्रन्थ/लेख/वेबसाइट
तत्वार्थ सूत्र – आचार्य उमास्वामी , संपादक –फूलचंद शास्त्री , प्रका.श्री गणेश वर्णी शोध संस्थान , वाराणसी
प्रवचनसार, आचार्यकुन्दकुन्द, संपादक-ए.एन. उपाध्ये, राजचंद्राश्रमअगासप्रकाशन, पञ्चमं संस्करण १९९९
समयसार,आत्मख्याति टीका सहित , आ. कुन्दकुन्द,परमश्रुतप्रभावकमण्डलप्रकाशन, अगास, गुजरात
पञ्चास्तिकाय- आचार्यकुन्दकुन्द:,श्रीमद्राजचन्द्रआश्रम, स्टेशन- अगास,पोस्ट -बोरिया- गुजरात
नियमसार - आचार्यकुन्दकुन्द:,श्रीमद्राजचन्द्रआश्रम, स्टेशन- अगास,पोस्ट -बोरिया- गुजरात
जैनेन्द्र सिद्धांत कोष ,भाग १-४ ,भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली
जैन धर्म और दर्शन- मुनि प्रमाणसागर जी, प्रकाशक- राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
जैन धर्म एक झलक –डॉ अनेकांत कुमार जैन ,प्रका.प्राच्य श्रमण भारती ,मेरठ ,२०१५
तनाव रहित जीवन के सूत्र(लेख) http://jainteerth.com/tension/
https://hi.wikipedia.org
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