1. भाषासमिति का लक्षण
मू.आ./12,307 पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदाप्पप्पसंसविकहादी। वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं।12। सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं। वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा।307।=1. झूठ दोष लगाने रूप पैशुन्य, व्यर्थ हँसना, कठोर वचन, परनिंदा, अपनी प्रशंसा, और विकथा इत्यादि वचनों को छोड़कर स्व-पर हितकारक वचन बोलना भाषा समिति है। ( नियमसार 62 )
राजवार्तिक/9/5/5/594/17 मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्द्विधम्स्वहितं परहितं चेति। मितमनर्थकप्रलपनरहितम् । स्फुटार्थं व्यक्ताक्षरं चासंदिग्धम् । एवंविधमभिधानं भाषासमिति:। तत्प्रपंच:मिथ्याभिधानासूयाप्रियसंभेदाल्पसारशंकितसंभ्रांतकषायपरिहासायुक्तासभ्यनिष्ठुरधर्मविरोध्यदेशकालालक्षणातिसंस्तवादिवाग्दोषविरहिताभिधानम् ।=स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले स्व-पर हितकारक, निरर्थक बकवाद रहित मित स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर और असंधिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रांत, कषाययुक्त, परिहास युक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म विधायक, देशकाल विरोधी, और चापलूसी आदि वचन दोषों से रहित भाषण करना चाहिए।
ज्ञानार्णव/18/8-9 धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता। शंकासंकेतपापाढ्या त्याज्या भाषा मनीषिभि:।8। दशदोषविनिर्मुक्तां सूत्रोक्तां साधुसंमताम् । गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याद्भाषासमिति: परा।9।=धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमति, - चार्वाक आदि से व्यवहार में लायी हुई भाषा तथा संदेह उपजाने वाली, व पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों की त्यागनी चाहिए।8। तथा वचनों के दश दोष (देखें भाषा ) रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषों को मान्य हों ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के उत्कृष्ट भाषा समिति होती है।9।
2. वाक् शुद्धि का लक्षण
मू.आ./853-861 भासं विणयविहूणं घम्मविरोही विवज्जये वयणं। पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासंति सप्पुरिसा।853। अच्छीहिं य पेच्छंता कण्णेहिं य बहुविहा य सुणमाणा। अत्थंति भूयभूया ण ते करंति हु लोइयकहाओ।854। विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चिंतंति। धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण वज्जंति।857। कुक्कुयकंदप्पाइय हास उल्लावणं च खेडं च। मददप्पहत्थवट्टिं ण करेंति मुणी ण कारेंति।858। ते होंति णिव्वियारा थिमिदमदी पदिट्ठिदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्वदिणो पारत्तविमग्गया समणा।859। जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं। समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेंति।860। सत्ताधिया सप्पुरिसा मग्गं मण्णंति वीदरागाणं। अणयारभावणाए भावेंति य णिच्चमप्पाणं।861।=सत्पुरुष वे मुनि विनय रहित कठोर भाषा को तथा धर्म से विरुद्ध वचनों को छोड़ देते हैं। और अन्य भी विरोध जनक वाक्यों को नहीं बोलते।853। वे नेत्रों से सब योग्य-अयोग्य देखते हैं और कानों से सब तरह के शब्द सुनते हैं परंतु वे गूंगे के समान तिष्ठते हैं, लौकिक कथा नहीं करते।854। स्त्रीकथा आदि विकथा (देखें कथा ) और मिथ्या शास्त्र, इनको वे मुनि मन से भी चिंतवन नहीं करते। धर्म में प्राप्त बुद्धि वाले मुनि विकथा को मन वचन काय से छोड़ देते हैं।857। हृदय कंठ से अप्रगट शब्द करना, कामोत्पादक हास्य मिले वचन, हास्य वचन, चतुराई युक्त मीठे वचन, पर को ठगने रूप वचन, मद के गर्व से हाथ का ताड़ना, इनको वे न स्वयं करते हैं, न कराते हैं।858। वे निर्विकार उद्धत चेष्टा रहित, विचार वाले, समुद्र के समान निश्चल, गंभीर छह आवश्यकादि नियमों में दृढ़ प्रतिज्ञावाले और परलोक के लिए उद्यमवाले होते हैं।859। वीतराग के आगम द्वारा कथित अर्थवाली पथ्यकारी धर्मकर सहित आगम के विनयकर सहित परलोक में हित करने वाली कथा को करते हैं।860। उपसर्ग सहने से अकंपपरिणामवाले ऐसे साधुजन वीतरागों के सम्यग्दर्शनादि रूप मार्ग को मानते हैं और अनगार भावना से सदा आत्मा का ही चिंतवन करते हैं।861।
राजवार्तिक/9/6/16/598/1 वाक्यशुद्धि: पृथिवीकायिकारंभादिप्रेरणरहिता: (ता) परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतस्य योग्या। तदधिष्ठाना हि सर्वसंपद:।=पृथिवीकायिक आदि संबंधी आरंभादि की प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष, निष्ठुर और पर पीड़ाकारी प्रयोगों से रहित हो व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो, वह सर्वत: योग्य हित, मित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्यशुद्धि सभी संपदाओं का आश्रय है। ( चारित्रसार/81/4 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/230 )
3. भाषा समिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/4 इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं अज्ञात्वा वा। अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' इति अपृष्टश्रुतधर्मतया मुनि: अपृष्टे इत्युच्यते। भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थ:। एवमादिको भासासमित्यतिचार;।= यह वचन बोलना योग्य है अथवा नहीं, इसका विचार न कर बोलना, वस्तु का स्वरूप ज्ञान न होने पर भी बोलना, ग्रंथांतर में भी 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' कोई पुरुष बोल रहा है और अपने प्रकरण को, विषय मालूम नहीं है तो बीच में बोलना अयोग्य है, जिसने धर्म का स्वरूप सुना नहीं अथवा धर्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं ऐसे मुनि को अपृष्ट कहते हैं। भाषासमिति का क्रम जो जानता नहीं वह मौन धारण करे ऐसा अभिप्राय है, इस तरह भाषा समिति के अतिचार हैं।
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