क्या संस्कृत कोई भी पढ़ या पढ़ा सकता है ?
- डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय , वाराणसी में संस्कृत के दो विभाग हैं एक कला संकाय में जहां आधुनिक पद्धति से अध्यापन होता है और दूसरा धर्म विज्ञान संकाय में जहां पारंपरिक रीति से अध्यापन होता है ।
डॉ फिरोज खान धर्म विज्ञान संकाय में नियुक्त हुए हैं जहां पारंपरिक रीति से अध्यापन होता है । यही विरोध का कारण बन रहा है ।
चूंकि फिरोज पारंपरिक रीति से , संस्कृत माध्यम से शास्त्री ,आचार्य और विद्यावारिधी उत्तीर्ण होकर आए हैं , परंपरागत विद्वानों ने उन्हें पढ़ाया है और उत्तीर्ण किया है , अध्यापन हेतु योग्य घोषित किया है तो फिर विरोध का कारण क्या है ?
इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं किन्तु फिलहाल विरोधियों ने फिरोज को हीरो तो बना ही दिया है ।
क्या सही है क्या ग़लत यह तो नीति निर्धारक विद्वान् तय करेंगे किंतु अब प्रश्न यह है कि संस्कृत भाषा को क्या किसी धर्म या जाति विशेष तक सीमित किया जा सकता है ?
वास्तव में
संस्कृत को किसी धर्म ,जाति,क्षेत्र के रूप में देखना अज्ञानता है |इसे किसी भी राजनैतिक दल से भी जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए |संस्कृत भाषा में गैर धार्मिक साहित्य भी अत्यधिक मात्रा में है |पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह जी ने भी विश्व संस्कृत सम्मेलन में मेरे सामने विज्ञान भवन में स्पष्ट कहा था "संस्कृत भारत की आत्मा है' |नेहरूजी ने भी संस्कृत का महत्त्व 'भारत एक खोज'में बताया है |
दिक्कत तब होती है जब लोग संस्कृत को मात्र वेद और वैदिक संस्कृति से ही जोड़ कर देखते हैं |संस्कृत कभी सांप्रदायिक भाषा नहीं रही | वैदिक परंपरा के अलावा जैन एवं बौद्ध धर्म दर्शन के हजारों ग्रन्थ मात्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं | आज मोदी सरकार ने राष्ट्र भाषा हिंदी को तवज्जो दी है उसी प्रकार वो संस्कृत प्राकृत तथा पालि भाषा को भी भारतीय शिक्षा पद्धति का अंग बनाना चाहते हैं तो हमें उनका साथ देना चाहिए |
आश्चर्य तो ये है कि जब संस्कृत को हटाया जा रहा था तो किसी ने आवाज बुलंद नहीं की । किन्तु आज जब संस्कृत के अच्छे दिन आ रहें हैं तो तकलीफ हो रही है |इसके साथ साथ संस्कृत के विद्वानों को यह भी समझना होगा कि वैदिक संस्कृति भारत का एक महत्वपूर्ण पक्ष है सम्पूर्ण भारत नहीं | श्रमण संस्कृति के आचार्यों के द्वारा रचित संस्कृत साहित्य की उपेक्षा करके भारतीय संस्कृति की बातें करना बेमानी होगी |
आज अधिकांश संस्कृत विभागों तथा विश्वविद्यालयों में जैनाचार्यों द्वारा रचित काव्य,नाटक,व्याकरण,पुराण आदि ग्रन्थ कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता |परोक्ष रूप से उनकी यह उपेक्षा कहीं न कहीं इसलिए भी है क्यों कि उनके प्रतिपाद्य विषय वैदिक संस्कृति की विचारधारा से कई मामलों में स्वर से स्वर नहीं मिलाते हैं |
उन्हें भी विचार तो करना ही पड़ेगा कि वे वास्तव में भाषा का विकास चाहते हैं कि इस बहाने अपनी विचारधारा का प्रभुत्व | ठीक वैसे ही जैसे कि उर्दू या फारसी के बहाने लोग इस्लाम को आगे बढाने का प्रयास करते हैं |
इस प्रवृत्ति से सबसे बड़ा नुकसान भाषा को अपने वजूद के साथ उठाना पड़ता है | उसे अपने धार्मिक साहित्य के कारण किसी का अति प्रेम झेलना पड़ता है तो किसी की अति नफरत |
भाषा के मामले में हमें सम्प्रदायवादी सोच से ऊपर उठ कर सोचना ही होगा |यदि किसी भाषा ने किसी धार्मिक साहित्य को संवर्धित किया है तो यह उसका उपकार है अपराध नहीं |इसी प्रकार जर्मन या अन्य कोई भाषा के साथ भी उपेक्षा का वर्ताव नहीं होना चाहिए |लेकिन मुख्यता और गौणता तो होती ही है न | हर राष्ट्र को अपनी भाषाओँ का ही विकास पहले करना चाहिए |अन्य भाषाओँ का सम्मान करें और उन्हें जो सीखना चाहे उसके लिए पूरी अनुकूलता होनी चाहिए |
मेरा तो पूरा विश्वास है कि जो भी संस्कृत और प्राकृत भाषा को जानता है वह विश्व की कोई भी भाषा पर जल्दी अधिकार प्राप्त कर सकता है |
भारतीय संस्कृति और मूल्यों को समझाने के लिए संस्कृत पूरे भारत की भाषा रही है |संस्कृत भाषा में भारत की वैदिक और श्रमण संस्कृति के सभी आचार्यों ने दर्शन ज्ञान और विज्ञान के अद्वितीय ग्रंथों की रचना की है और आज भी लगातार इस भाषा में ग्रंथों की रचना हो रही है |
रही बात पढ़ने और पढ़ाने की तो संवैधानिक रूप से तो किसी भी धर्म जाति या संप्रदाय के व्यक्ति को संस्कृत पढ़ने या पढ़ाने से इस आधार पर तो नहीं रोका जा सकता किन्तु अपनी परंपरा और दूसरे की परंपरा को पढ़ने और पढ़ाने में आत्मीयता का फ़र्क तो जो पड़ता है उससे भी इंकार नहीं किया जा सकता ।
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