गुरुनानक जी की ५५० वीं जयंती प्रकाश पर्व पर विशेष
सादर प्रकाशन हेतु
जैन और सिक्ख समाज की एकता की प्राचीन मिसाल
प्रो अनेकांत कुमार जैन
अध्यक्ष - जैन दर्शन विभाग
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ( मनित विश्वविद्यालय ),
, नई दिल्ली -१६
drakjain2016@gmail.com
2016 में महावीर जयंती के दिन मुझे पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में स्थित गुरु ग्रन्थ साहिब वर्ल्ड यूनिवर्सिटी में एक अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलन में जैनदर्शन पर व्याख्यान देने हेतु जाने का अवसर प्राप्त हुआ| फतेहगढ़ साहिब पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिला का मुख्यालय है। यह जिला सिक्खों की श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है।
पटियाला के उत्तर में स्थित यह स्थान ऐतिहासिक और धार्मिंक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सिक्खों के लिए इसका महत्व इस लिहाज से भी ज्यादा है कि यहीं पर गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों को सरहिंद के तत्कालीन फौजदार वजीर खान ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था। उनका शहीदी दिवस आज भी यहां लोग पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। फतेहगढ़ साहिब जिला को यदि गुरुद्वारों का शहर कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहां पर अनेक गुरुद्वारे हैं जिनमें से गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब का विशेष स्थान है।
वहां के जागरूक शोधअध्येताओं ने मुझसे जैनदर्शन पर बहुत अभिरुचि प्रगट की ,वे मुझे वहां के उस प्रसिद्द गुरूद्वारे ले गए जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों पुत्रों को वहां के नवाब ने दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था |
इसी सन्दर्भ में उन्होंने वहां के दीवान टोडरमल जैन की उदार दृष्टि की जो कथा सुनाई वह मुझे पता ही नहीं थी , उन्होंने बताया कि -
तीन सौ वर्ष पहले सरहिंद में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों को दीवार में चिनवाने के बाद उनके व दादी मां के पार्थिव शरीरों को अंतिम संस्कार के लिए नवाब जगह नहीं दे रहा था , उसने शर्त रखी कि अंतिम संस्कार के लिए जितनी जगह चाहिए उतनी जगह स्वर्ण मुहरें बिछा दो , वहां के सुप्रसिद्ध नगर सेठ टोडरमल जैन ने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, और स्वर्ण मुद्राएँ बिछा दीं , नवाब का लालच बढ़ गया और फिर उसने कहा कि स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके बिछाओ लिटा का नहीं, टोडरमल जी ने फिर भी शर्त मान ली और खड़ी स्वर्ण मोहरें बिछा दीं और अंतिम संस्कार हेतु जगह ली |
नवाब से स्वर्ण मोहरें बिछाकर भूमि प्राप्त करने वाले दीवान टोडरमल जैन का नाम भी तीर्थ भूमि सरहिंद से जुड़ा है। सामाना में जन्मे व माता चक्रेश्वरी देवी के उपासक टोडरमल जैन जमीनी मामलों के जानकार होने के कारण सरहिंद के नवाब वजीर खां के दरबार में दीवान के पद पर असीन हुए। उन्होंने नवाब से सोने की मोहरों के बदले भूमि लेकर उन तीनों महान विभूतियों का स्वयं अंतिम संस्कार किया। उसी स्थान पर फतेहगढ़ साहिब में गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप बना हुआ है जिसके बेसमैंट का नाम सिख समाज ने स्मृति स्वरूप दीवान *टोडरमल जैन हाल* रखा है।
उसके बाद वे वहां स्थित जैन मंदिर ले गए जहाँ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी का एकमात्र ऐतिहासिक प्राचीन मंदिर, सरहिंद शहर के चंडीगढ़ रोड पर स्थित है। यहां 12वीं सदी से लगातार माता जी के श्रद्धालु विशेषत: खंडेलवाल बंधु अपनी कुलदेवी के रूप में माता जी की पूजा-अर्चना के लिए आते रहे हैं।पास में ही तीर्थंकर आदिनाथ का एक सुन्दर श्वेताम्बर मंदिर भी है|
उन्होंने बताया कि12वीं शताब्दी में मारवाड़ में भीषण अकाल के कारण पंजाब की ओर लोगों ने पलायन किया। जैन खंडेलवाल परिवारों का एक जत्था कांगड़ा में विराजित भगवान ऋषभ देव के दर्शनों के लिए बढ़ रहा था जो सरहिंद में एक रात्रि के लिए रुका। अगली सुबह अधिष्ठात्री कुलदेवी की पूजन शिला वाली बैलगाड़ी आगे नहीं बढ़ी। दूसरी रात्रि भी वहीं रुकना पड़ा, तब आकाशवाणी सुनाई दी-मेरा स्थान आ गया है। मेरा भवन यहीं बनवाया जाए। भक्तों ने वहीं पर मंदिर बनवाया और स्वयं भी सरहिंद एवं पंजाब के अन्य शहरों में बस गए परन्तु सरहिंद में माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान पर निरंतर आते रहे।
मैंने वहां देखा कि तीर्थ परिसर में विशाल धर्मशाला, विश्राम घर, खुले लॉन, भोजनशाला आदि की सुचारू व्यवस्था है। अपने गौरवपूर्ण व स्वर्णिम इतिहास तथा श्रद्धा का व्यापक आधार होने के कारण माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान को अब अखिल भारतीय जैन तीर्थ होने का भी गौरव प्राप्त है।वहीँ दीवार पर बने टोडरमल जी के दो चित्र भी इस कहानी को बयान करते हैं |
इस पूरी कहानी से यह पता चलता है कि जैन समाज अपने से अन्य धर्म और धार्मिकों के प्रति कितनी उदार दृष्टि रखता आया है |
जैनों द्वारा इस प्रकार की धार्मिक सहिष्णुता के हजारों किस्से हैं | पटना में स्थित सिक्खों का तीर्थस्थल पटना साहिब का गुरु द्वारा भी ऐसी ही एक कहानी कहता है ।सुप्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह जी समन्वय वाणी ( १-१५ जनवरी २०१०) में प्रकाशित अपने एक लेख में कहते हैं कि कुछ ऐसे प्रतिष्ठित जैन हुए हैं जिन्होंने सिक्ख गुरुओं की प्रशंसा की और मुश्किल समय में उनकी मदद के लिए आगे आए । वे आगे लिखते हैं कि सिक्खों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी जब पूर्वी भारत में जगह जगह घूम घूम कर उपदेश दे रहे थे तो पटना के जैन श्रावक सालम राय जौहरी ने उन्हें व उनके परिवार को अपनी हवेली में ठहराया । जब वे बंगाल और असम गए तो उनका परिवार वहां पटना में हवेली में ही रहा । असम से भेजे अपने हुकुमनामा में भी गुरु साहिब ने पटना को गुरु का घर बताया है । उसके बाद जैन श्रावक सालम राय जौहरी ने अपनी हवेली का आधा हिस्सा गुरुद्वारा बनाने के लिए दान में दे दिया क्यों कि वहां गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म हुआ था । आधे हिस्से में उन्होंने जैन मंदिर बनवाया । दोनों की दीवार सांझी है ।
इस तरह के अनगिनत उदाहरण और भी होंगे जब जैन श्रावक तथा समाज ने धर्म और संप्रदाय से निरपेक्ष होकर अपने से भिन्न धर्म वालों का साथ दिया ।
आज सिर्फ आवश्यकता है जैन श्रावकों और जैन समाज की इन सार्वजनीन सार्वभौमिक कार्यों को उजागर करने की ,क्यों कि उदारता की एक परिभाषा अपने दान को उजागर नहीं करने की भी रही है ,शायद इसीलिए भी इस प्रकार की नज़ीर दुनिया के सामने नहीं आ पातीं ।
आज साम्प्रदायिक द्वेष के काँटों भरे पेड़ों को ज्यादा सींचने के दुर्भाग्यपूर्ण माहौल के बीच इस प्रकार के उदाहरणों को प्रेरणा एवं सामाजिक सौहार्द के लिए सामने रखना ज्यादा आवश्यक हो गया है ।
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