आधुनिक युग में
श्रावकाचार : परिवर्तन
सोच का
हर धर्म या दर्शन के साथ उसकी आचार
मीमांसा भी किसी न किसी रूप में प्रकट होती है।कोई भी धर्म या दर्शन समाज से पृथक
होकर नहीं रह सकता। कोई भी समाज बिना आचार-मीमांसा के सभ्य नहीं हो सकता, इसलिए यह जरूरी समझा
गया कि प्रत्येक धर्म-दर्शन व्यक्ति और समाज को एक आचार मीमांसा दे । सामाजिक
व्यवस्था के संचालन के लिए तो यह जरूरी था ही साथ ही धर्म-दर्शन के मुख्य उद्देश्य
मोक्ष के लिए भी अत्यन्त आवश्यक था । इस संदर्भ में जैन धर्म- दर्शन ने भी एक सशक्त
आचार व्यवस्था व्यक्ति और समाज को दी। मूलत: निवृत्ति प्रधान धर्म होने के नाते
जैन धर्म-दर्शन के सामने यह समस्या तो थी ही कि जिन सांसारिक दु:खों से निवृत्ति
का उपाय बताने का वह यत्न कर रहे हैं उसी संसार और समाज की सुव्यवस्था के लिए कौन
सी आचार-व्यवस्था दी जाये जो मुक्ति मार्ग में बाधक भी न हो और सामाजिक
रीति-नीतियों और सभ्यताओं का सुसंचालन भी ढंग से चलता रहे ।
जैन आचार की वैचारिक पृष्ठभूमि -
निश्चित रूप से जैन दार्शनिक ऐसी आचार
व्यवस्था को जन्म नहीं दे सकते थे जिससे संसार बढ़े, प्रत्युत वे संसार और समाज में भी
ऐसी आचार-मीमांसा के हिमायती थे जिससे सांसारिक प्रपंच घटे और अन्ततोगत्वा व्यक्ति
मुक्ति की तरफ उन्मुख होकर अपना आत्मकल्याण करके सदा के लिए जन्म-मरण रूपी संसार
का नाश कर दे, इसीलिए आचार मीमांसा को दो भागों में विभक्त
करके दर्शाया गया किन्तु उनका लक्ष्य समान बताया गया है। वे दो भाग हैं -
(१) श्रावकाचार (गृहस्थाचार)
(१) श्रावकाचार (गृहस्थाचार)
(२) श्रामणाचार (मूलाचार-मुनियों का
आचार)
मुक्ति के लिए श्रमणाचार को अनिवार्य
माना गया और चूंकि लक्ष्य समान है इसीलिए श्रावकाचार की भी आचार मीमांसा ऐसी रखी
गयी, जो श्रमण
बनने का पूर्वाभ्यास ही है, इसीलिए श्रमणचर्या के ही
महाव्रतों का एकदेश (आंशिक) पालन अणुव्रत माना गया जो श्रावकों के लिए अनिवार्य
है। कुल मिलाकर जैन आचार-मीमांसा की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक ज्यादा रही है। अध्यात्म
मुक्ति का अविनाभावी होता है, वह व्यवहार जगत के साथ तब तक
समझौता करने को तैयार रहता है जब तक कि उसके मूल लक्ष्य में बाधा उत्पन्न न हो,
किन्तु जैसे ही व्यवहार जगत की मजबूर भूमिका अध्यात्म के लक्ष्य को
बाधा पहुँचाना शुरु करती है, अध्यात्म को मजबूरन उस व्यवहार
जगत से गठबंधन तोड़ना पड़ता है, उसका निषेध करना पड़ता है,
फिर चाहे कितनी भी व्यवस्थायें टूटें, बदलें,
अध्यात्म उसकी फिकर नहीं करता। यही अंतर्द्वन्द जैन धर्म की आचार-मीमांसा
के साथ भी चलता है, क्योंकि यदि वह सांसारिक व्यवस्थाओं के
चक्कर में अपना मूल लक्ष्य ही छोड़ देगा तो उसका होना व्यर्थ है।
श्रावकाचार की दार्शनिक समस्या -
मुनि के आचार के स्थान पर अभी हम अपनी चर्चा को श्रावकाचार(गृहस्थ आचार ) तक ही
सीमित रखेंगे। धर्म-दर्शन के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वह जिन भी तत्त्वों की
घोषणा करता है उसे शाश्वत भी घोषित कर देता है। अगर वो स्वयं ऐसा न भी करे तो
धर्माचार्य ये काम कर देते हैं । कारण यह बतलाया जाता है कि चूंकि मुक्ति ही
तुम्हारा लक्ष्य है, उसके लिए
जो बाह्य क्रियायें आचरण हेतु बतायी गयी हैं वो मार्ग हैं, चूंकि
मुक्ति शाश्वत है, अत: उसका मार्ग भी तीनों कालों में एक ही
रहता है -अत: वह भी शाश्वत है, इसलिए जो क्रियायें हैं वो भी
शाश्वत है।
इन सबसे विपरीत यथार्थ की पृष्टभूमि
यह है कि संसार की कोई भी बाह्य आचार व्यवस्था कभी शाश्वत हो ही नहीं सकती है। इतिहास
के पन्ने उलट कर देख लिये जायें तो प्रमाण भी मिल जायेंगे कि किसी भी बाहरी आचार
व्यवस्था का अस्तित्व बिना किसी परिवर्तन के आज तक सुरक्षित नहीं रह पाया। उदाहरण
के रूप में देखें तो जैन परंपरा में ही परिग्रह दो प्रकार का है (१) अन्तरंग (२) बहिरंग। अन्तरंग परिग्रह के
मिथ्यात्वादि चौदह भेद बताये हैं और बहिरंग के दस।[१] अब जरूरी नहीं कि आचार्य उमास्वामी ने जो परिग्रह के दस
भेद पहली शताब्दी में गिनाये वे भेद आज २१वीं शताब्दी में भी दस ही हों । आचार्य
उमास्वामी भी उन दिनों बहिरंग परिग्रह के अधिक भेद गिना सकते थे किन्तु उसकी कोई
संख्या तो निर्धारित करनी पड़ती, अत: प्रतिनिधि के रूप में
ऐसे दस परिग्रह गिना दिये जो बहुत आवश्यक थे और अन्य परिग्रहों का अन्तभार्व उसमें
किसी न किसी रूप में हो जाता है। लेकिन यह संख्या शाश्वत तो नहीं है न, संख्या और भी हो सकती है । इसी स्थान पर अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो ‘मूर्छापरिग्रह:’[२] सूत्र भी है।
यहाँ हम इस व्यवस्था को शाश्वत कह सकते हैं, अन्तरंग
परिग्रहों को भी हम शाश्वत मान सकते हैं। इस उदाहरण से मैं यह कहना चाहता हूँ कि
श्रावकाचार के अध्यात्म को तो हम शाश्वत मान सकते हैं किन्तु जब उसकी क्रियाओं को
हम शाश्वत कहते हैं, मानते हैं या बनाने का प्रयत्न करते हैं
तो हमें कहीं न कहीं उन तमाम समस्याओं से न चाहते हुये भी रूबरू होना पड़ता है जो
समस्यायें काल, युग, क्षेत्र या
परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होती हैं।
श्रावकाचार की व्यावहारिक समस्यायें -
अभी हमने श्रावकाचार की दार्शनिक
समस्या के मात्र एक पहलू को छुआ है, कई और पहलू भी हैं, लेकिन
उनका विस्तार इस निबंध में सम्भव नहीं है। अब हम श्रावकाचार की कुछ व्यावहारिक
समस्याओं पर भी विचार करेंगे। यहाँ मै एक बात जरूर स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि
श्रद्धा के स्तर पर आचार्यों द्वारा प्रणीत आचार व्यवस्था पर मुझे तनिक भी सन्देह
नहीं है। उन्होंने जैन धर्म के सिद्धान्त और व्यवहार की रक्षा के लिए जो योगदान
दिया, जो व्यवस्थायें दीं वे अमूल्य हैं और उन्हीं की बदौलत
हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं। जो धर्म का रथ वे यहाँ तक खींच कर लाये हैं उसकी
ओवरहालिंग करना, उसकी सर्विसिंग करना भी हमारा दायित्व है
ताकि उसके पहिए जाम न हो जायें और ऐसा न हो कि उसको हाथ भी नहीं लगाने की हमारी
जिद उसे युग की अगुवाई करने से रोक दे, लोग आगे निकल जायें
और रथ वहीं खड़ा रह जाये। रथ को गति देने का दायित्व भी हम सबका है। चलिए हम कुछ
व्यावहारिक समस्याओं से रूबरू होते हैं जो कमोवेश हम सबके साथ जुड़ी हैं।
श्रावकाचार के सन्दर्भ में हमारी
सीमित सोच -
यह एक व्यावहारिक समस्या है जो हमनें, हमारी समाज ने स्वयं
पैदा की है। हमने श्रावकाचार का अधिकांश सम्बन्ध खान-पान से जोड़ रखा है। हम
आचारशास्त्र का मतलब मात्र पाकशास्त्र समझते हैं जो कि हमारी एक भूल है। यही कारण
है कि एक पाश्चात्य धर्मशास्त्री विद्वान् ने जैनधर्म के बारे में अपने विचार
व्यक्त करते हुये लिखा है- ' Jainism is nothing but-it's only a kitchen
Religion.' मैंने स्वयं जब यह पंक्ति पढ़ी तभी से इस विषय पर सोचना
प्रारम्भ किया। विचार कीजिए! क्या हम इन पंक्तियों से सहमत है? उस पाश्चात्य विचारक की यह प्रतिक्रिया सही है या गलत? क्या उत्तर है हमारा? मैं तो उसके विचारों से कतई सहमत नहीं
हूँ, किन्तु वर्तमान में खाने-पीने की शुद्धता के लिए क्रियाएं करने में जो वक्त और उपयोग लगता है उसे देखकर लगता है कि खाना-पीना ही मात्र उद्देश्य है | बाहर से इन्हीं क्रियाओं को देखकर उस बेचारे विचारक ने अपने अनुभव से जो प्रतिक्रिया दी
है वह उसकी दृष्टि से गलत भी प्रतीत नहीं होती है । आहार शुद्धि की सारी क्रियाएं आहार सम्बन्धी राग कम करने और अहिंसा के उद्देश्य से संचालित की गयीं थीं किन्तु आज वे ही क्रियाएं इतनी दुष्कर होती जा रहीं हैं कि सच्चे अर्थों में अहिंसा की रक्षा भी नहीं हो पा रही है और सारे दिन खाने की ही चिंता करने के कारण अजीब किस्म का राग भी बढ़ ही रहा है |
सच यह है कि खान-पान की सात्त्विकता
श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, संपूर्ण श्रावकाचार नहीं।
विचार कीजिए श्रावक के बारह व्रतों
में कितने व्रत हैं जिनका सम्बन्ध खान-पान की सात्त्विकता और उसके त्याग से है? पांच व्रतों[३] में मात्र अहिंसाव्रत और
उसमें भी खान-पान उसका एक भाग है। चार शिक्षाव्रत[४]और तीन अणुव्रतों[५] में भी मात्र प्रोषोधोपवास
या भोगोपभोगपरिमाणव्रत हैं जिनका सीधा सम्बन्ध खान-पान से है। श्रावक के
षडावश्यकों[६] में भी संयम और तप आवश्यक
में खान-पान जुड़ता है शेष आवश्यक अन्य क्रियाओं से सम्बन्धित हैं।
अत; मेरा पहला निवेदन यह है कि खान-पान
की सात्त्विकता तथा उसके त्याग सम्बन्धी श्रावकाचार के साथ हम अन्य क्रियाओं को भी
मुख्य धारा में रखें, तभी हम श्रावकाचार को विस्तृत फलक पर
देख पायेंगे, अन्यथा हम श्रावकाचार को लेकर जितने
समस्याग्रस्त आज हैं कल और अधिक होंगे। हम श्रावकाचार को लेकर जैनधर्म को रसोई
धर्म नहीं कह सकते।
इन व्रतों में खान-पान सम्बन्धी
समस्या पर हम बाद में वार्ता करेंगे किन्तु अन्य व्रतों की स्थिति हम जरा देख लें।
अहिंसा व्रत के लिए हम रात्रि भोजन त्याग, छने जल का सेवन, जमीकंदादि
अभक्ष्य पदार्थों का त्याग, रसों का क्रमश: त्याग आदि करते
हैं, जिसमेें घर का बना भोजन, कुंये के
पानी, घर का पिसा आटा, मर्यादित दूध
इत्यादि का पालन भी श्रावक करते हैं। इन सभी साधारण नियमों का पालन, वो भी आज के युग में विरले ही कर पाते हैं। नियम इससे भी अधिक माने जाते
हैं, मैंने कुछ साधारण नियमों का ही उल्लेख किया है।
ये सब बहुत अच्छा है किन्तु समस्या तब
ज्यादा होती है जब इनका पालन करने वाला श्रावक अंधाधुंध देश-विदेशों की
यात्रायें करने से बाज नहीं आता । हर जगह इतने सरंजाम जुटाना संभव नहीं । समाज में
भी हर व्यक्ति इतनी व्यवस्थायें नहीं जुटा पाता है। फलत: श्रावक की यह उचित
धर्मानुकूल चर्या आज के युग में अप्रासंगिक लगने लगती है। यहाँ हम अपनी गलती नहीं
देखते। शास्त्रों में दिग्व्रत-देशव्रत का भी विधान है । अधिकांश श्रावक इसे कोई व्रत समझते ही
नहीं हैं। मैं कहता हूँ एक स्थान पर रहने वाला श्रावक सारी व्यवस्थायें व्रतों के
अनुकूल बनाकर चलता है। अत: पालन करने में दिक्कत नहीं होती। शास्त्रों में कुछ
सोचकर ही यह व्यवस्था दी गयी, मगर हम एकांगी हो गये इसलिए समस्या खड़ी होती है। परिणाम यह
है कि जो जितना बड़ा व्रती है वह उतना ही अधिक भ्रमणशील है और परदेशों में व्रतों
के पालन हेतु समाज पर आश्रित है। गृहस्थों के व्रतपालन जब पराश्रित हो जाते हैं तो
अनेक प्रकार की समस्यायें खड़ी कर देते हैं।
अतिथिसंविभाग भी वही कर पायेगा जो
व्रत पूर्वक अपने घर में रहेगा । सामायिक व्रत तो दिगम्बर श्रावकों के जीवन से लगभग
दूर हो चुका है ।अधिकतर लोग सामायिक को मुनियों का काम समझने लगे हैं | पांच व्रतों में स्थूल अहिंसा की थोड़ी बहुत चिन्ता बची है बाकी
सत्य, अस्तेय,
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को तो हमने व्रत मानना जैसे छोड़ ही दिया
है। परिग्रह एक पाप है और हम उसे पुण्य का फल बतलाकर दिन रात उसी की चिन्ता में
मग्न रहते हैं। एक व्यक्ति शोध का भोजन करे, अष्टमी-चौदस
उपवास करे फिर चाहे वह पंचेन्द्रिय के विषय भोगों में लगा रहे, असत्य भाषण छल-प्रपञ्च, मायाचार, क्रोधादि तथा परिग्रह के प्रति अत्यधिक आसक्ति का धारक भी हो तो भी हमारी
दृष्टि में वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है, क्योंकि हम
श्रावकाचार का अर्थ आहार समझते हैं और मानते भी हैं।
हमारे सामने समस्या भी है और समाधान
भी। बस हमें अपनी सोच और नजरिया बदलना है। मैं इतना कहकर इस चर्चा को यहाँ विराम
देता हूँ, क्योंकि
अन्य समस्याओं पर भी विमर्श करना है।
आधुनिकता की समस्या -
वर्तमान समय में हम दो प्रकार की
विचारधाराओं से ग्रसित हैं, एक
पारम्परिक विचारधारा और दूसरी विकासवादी विचारधारा। हमारे मन में यह अंतर्द्वन्द्व सतत चलता रहता है कि जैन संस्कृति को हम पारम्परिक और विकासवादी इन
दोनों धाराओं के साथ संतुलन बिठाते हुये कैसे गति प्रदान करें ? हम परम्परा से नहीं कट सकते क्योंकि हमारी संपूर्ण विरासत पाम्परिक है। हम
विकासवाद से भी अछूते नहीं रह सकते, क्योंकि हमारे जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र पर उत्तर-आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ ज्ञान-विज्ञान और धन-संपदा से
सुसज्जित वर्तमान युग हावी है। हमें इसके सामने भी अपनी संस्कृति, सिद्धान्तों और संस्कारों की प्रासंगिकता सिद्ध करनी है । यह हमारी वह
आधुनिक समस्या है जिसका समाधान हमें ग्रन्थों में सीधे तौर पर नहीं मिल सकता। इसका समाधान
हमारे स्वयं के विवेक से संभव है।
परम्परा और विकास की समस्या -
निश्चित रूप से परम्परा और विकास के
अन्त:सम्बन्ध समस्याग्रस्त हैं। हम जैन सिद्धान्तों को आधुनिक सन्दर्भों में
प्रासंगिक होने का भले ही कितना भी दावा करते हों किन्तु सच यह है कि आधुनिक पीढ़ी
को हम यह समझाने में असफल हो रहे हैं कि गाय और भैंस के स्तनों में मशीन लगाकर
जबरन निकाले गये डेयरी के दूध मांसाहार हैं अथवा नहीं क्योंकि पाश्चात्य देशों में
वो सब Non-Vegetarian ही कहा जाता है जो Animal Product होता है, अब वो चाहे दूध, दही, घी ही
क्यों न हो । हम आज के युवाओं को यह नहीं समझा पा रहे हैं कि दोहरे छन्ने से छने हुये पानी को उबाल कर पीना, उसमें लौंग
इत्यादि डालकर उसकी मर्यादा को अधिक करना, हफ्तों से फ्रीज
में रखी किसी मिनरल वाटर से ज्यादा शुद्धि व अहिंसक होता है।आयुर्वेद की दृष्टि से प्याज, लहसुन, अदरक आदि औषधियों के रूप में अनन्त गुणकारी
शाकाहारी पदार्थ होते हुये भी हम इन्हें इसलिए नहीं खाते क्योंकि इनमें अनन्त
सूक्ष्म जीव होते हैं जो हमें आंखों से दिखाई नहीं देते, बल्कि
भिण्डी, अमरूद इत्यादि कई-पदार्थों का प्रयोग हम हमेशा करते
हैं जिनमें कभी-कभी साक्षात् रेंगते हुये जीव तक दिखायी पड़ जाते हैं। अन्य और भी
कई आचारगत समस्यायें हमारे सामने मुंह बाये खड़ी हैं जिनका वास्तव में कोई निश्चित
व्यावहारिक समाधान हमारे पास नहीं है। इसमें या तो हम रूढ़ हो जाते हैं या फिर
स्वच्छन्दी। जबकि ये दोनों ही स्थितियाँ हमारा समाधान नहीं हैं। परम्परा कहती है
पानी छानों, उबालो उसकी मर्यादा रखने के लिए उसमें लौंग
इत्यादि डालो, विकास कहता है पानी स्वच्छ चाहिए न ! मिनरल वाटर
की बाटल खरीदों और पियो, १०० प्रतिशत स्वच्छता की गारंटी है । हम उन्हें यह कैसे समझाएं कि उसमें १०० प्रतिशत स्वच्छता की गारंटी भले ही हो लेकिन शुद्धता की गारंटी तो बिलछानी पूर्वक अर्जित किये गए स्वाभाविक मर्यादित जल में है जिसमें अहिंसा की भावना भी जुडी हुई है |
क्या परम्परायें जड़ हैं और विकास
गतिमान ?
आज के संदर्भ में परम्परा और विकास
प्राय: विपर्यायवाची शब्द माना जाने लगा है। उनका उपयोग दो विपरीत ध्रुवीय
संप्रत्ययों के रूप में किया जाने लगा है। परम्पराओं को जड़ और विकास को गतिमान
मानना हमारी विचार प्रक्रिया मे रूढ़ हो गया है। भारत में पाश्चात्य का घातक भूत
बड़ी आसानी से जगह बना गया। हमने भी अपनी विरासत कुर्बान कर दी। एक तरह से यह
हमारी निजी कमजोरियों का ही नतीजा है। यह सीधे-सीधे उन समस्त बौद्धिक और
सांस्कृतिक आधारों पर आघात करता है जिनसे जैन समाज और व्यक्ति के संस्कारों की
रचना हुयी है। हमारी अत्याधुनिकता ने धीरे-धीरे इन सभी स्रोतों को सुखा दिया है
जिनके द्वारा एक जैन अपनी आत्मा, अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व को संजोता संभालता है। इसी
कारण वर्तमान में हम भी दो नावों पर खड़े हुये एक आत्मोन्मूलित आदमी बन गये हैं
जिसका एक भाग तो परम्परा से जुड़ा है और दूसरा भाग पश्चिम की आधुनिक जीवन-शैली,
चिन्तन पद्धति और उनकी संस्कृति के प्रति अनुरक्त है चूंकि इन दोनों
नावों का आपस में किसी किस्म को कोई संबंध नहीं है इसलिए हमारा पारम्परिक ,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पक्ष उतना ही खोखला बन गया है जितना हमारा आधुनिक पक्ष कृत्रिम और
दिखावटी। बाहर का प्रभाव हमारे मानस को जितना अधिक आत्मनिर्वासित कर रहा है उतने
ही अन्दरूनी ऊर्जा के स्रोत सूखने लगे हैं।
परम्परायें तो जरूरी हैं -
परम्परा और आधुनिक विकास इन दोनों की
स्थिति अत्यन्त द्वन्द्वात्मक है। जैन संस्कृति अतीत के गत प्रयोग जीवाश्म के रूप
में प्रकट नहीं हुयी है। उसमें प्रकट रूप से प्रच्छन्न ऊर्जा है। उसके बिम्ब, आचार, सिद्धान्त, प्रतीक, मूल्य और
अर्थ वर्तमान के लिये भी प्रासंगिक हैं और भविष्य के लिए भी। वर्तमान की जड़ें
अतीत में होती हैं और भविष्य में वर्तमान का विस्तरण होता है। बदलते संदर्भोंं में
भी हमारी परम्परा और संस्कृति समाज को जीवन क्षमता और दिशा संकेत देती है। यह बात
चिन्तनीय है कि क्या विकास की प्रक्रिया पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्य बोधों से
असंपृक्त रह सकती है ?
अणुव्रतों महाव्रतों की अस्मिता की
समस्या -
प्राय: जैन संस्कृति और धर्म के विचार
के प्रसार में आचार को बाधक माना जाता रहा है। अजैन हर क्या जैनों तक में यह कहते
सुना जाता है कि कठोर आचार संहिताओं के कारण जैन धर्म विश्वधर्म बनने से रह गया
है। ऐसी समस्याओं पर हमें यह कहना पड़ता है कि जैन धर्म Quality पर विश्वास
करता है Quantity पर नहीं। यही जैनधर्म की विशेषता है। हम यह
कहकर संतुष्ट हो जाते हैं, किन्तु आधुनिकता के बाद अब उत्तर
आधुनिक युग में, वैश्वीकरण के इस दौर में हमारे अणुव्रतों और
महाव्रतों के सिद्धान्त एक बार फिर अपनी अस्मिमा पर प्रश्न चिह्न लगाये हमारे
समक्ष खड़े हो गये हैं?वास्तविकता यह है कि जितनी तीव्रता से युग और वातावरण
परिवर्तित हो रहा है उतनी तीव्रता से हम अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध नहीं कर पा रहे
हैं।
आचार मीमांसा और उत्तर आधुनिकता की
समस्या -
वास्तविक व्रतों का स्रोत अतीत है और
अतीत में आचार्यों द्वारा रचित शास्त्र, किन्तु इससे प्रेरणा लेने की भावना लुप्त
हो रही है। किसी तरह उनके अंश बचे हैं जो नारों के रूप में आचार को वैचारिक आधार
दे रहे हैं, व्यावहारिक नहीं, इसलिए
आचार अपना ठोस आधार वर्तमान में तलाश रहा है जो वस्तुत: आधुनिकता के तत्त्वों से
मिलकर बना होता है। उसे अपनी प्रासंगिकता आधुनिकता के सापेक्ष सिद्ध करनी पड़ती
है । इसलिए वह स्वयं को आधुनिकता से ज्यादा श्रेष्ठ और उपयोगी बतलाता है। उसका
आत्माभिमान कायम रहता है। यह उत्तर आधुनिक युग भी आचार को यह दखलंदाजी करने देता
है, क्योंकि उसे विगत के साथ निरंतरता और उसके मूल्यों की
आवश्यकता है। निरंतरता की उपलब्धि होते ही दखलन्दाजी की प्रक्रिया उल्टी हो जाती
है और यह युग आचार में हस्तक्षेप करने लगता है। वह अणुव्रतों और महाव्रतों को
उत्तर आधुनिकता की शक्तिशाली शर्तों के अनुसार गढ़ने लगता है। मूलभावनाओं को क्षीण
करने की कीमत पर भी अणुव्रतों में पांच सितारा होटल, डिनर,
हवाई जहाज का शाकाहारी भोजन (जो उसी पाकशाला में तैयार होता है जहाँ
मांसाहार तैयार होता है ) और महाव्रतों में मोबाइल फोन, लैपटाप,
इन्टरनेट, फेसबुक , whatsapp आदि प्रवेश करने लगते हैं और
नये अणुव्रत, महाव्रत जन्म लेने लगते हैं। इस प्रकार का
विकास सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता क्योंकि मूल्यों के ह्रास की भूमि पर उसके महल
निर्मित हैं। अत: कहाँ हमें परम्परा से जुड़े रहना है और कहां अप्रयोजनभूत रूढ़
परम्परा में परिष्कार करके विकास करना है इसका विवेक पूर्वक निर्णय करना होगा।
अध्यात्म और समाज के समन्वय की समस्या
-
जैन अध्यात्म और समाज शास्त्र में
मौलिक अन्तर हैं। सर्वप्रथम हम कुछ मौलिक भेद यहाँ समझेंगे -
क्रम संख्या
|
जैन अध्यात्म
|
समाजशास्त्र
|
१
|
हर मनुष्य का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए।
|
यह संभव नहीं।
|
२
|
हिंसा का पूर्ण अभाव।
|
हिंसा कम कर सकते हैं, समाप्त
नहीं।
|
३
|
एकान्त में रहना चाहिए।
|
समूह में रहना ठीक है। समाज तभी बनता है।
|
४
|
धन-सम्पत्ति हानिकारक है।
|
इसके बिना जीवन कठिन है।
|
५
|
आत्मकल्याण ही श्रेयस्कर है।
|
सामाजिक विकास जरूरी है।
|
६
|
मिथ्यात्व को त्यागना है।
|
मिथ्यादृष्टियों के ही साथ रहना है। मानों कुछ भी, पर
सम्मान सभी का करना है।
|
७
|
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता।
|
‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’।
|
अपने घर की अन्तरंग सफाई बहुत जरूरी
है अन्यथा गन्दगी में रहने वाला मनुष्य अनेक बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। पर
यदि सभी अपने घर की प्रतिदिन सफाई करके सड़को पर फेंके, तो वहाँ कूड़े का
अम्बार लग जायेगा और वही कूड़ा उड़कर पुन: घर गंदा करेगा तथा मनुष्य और समाज दोनों
बीमार हो जायेंगे। इसीलिए यह आवश्यक है कि घर की सफाई के साथ साथ सड़क की भी सफाई
हो। घर की सफाई आत्मकल्याण है तथा सड़क की सफाई समाज कल्याण है।
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान होने पर भी उसने समाज हित और समाज कल्याण की कभी उपेक्षा नहीं की। श्रावक इस अंतर्द्वन्द्व में उलझा रहता है कि वह आध्यात्मिक बने या सामाजिक बने ? फलत: वह अधकचरा अध्यात्म लेकर मोहवश सामाजिक कार्यों में जुटा रहता है। वह पूरे मन से न तो अध्यात्म में रम पाता है और न ही समाज में । इसीलिए हमें श्रावकों के मध्य एक ‘आध्यात्मिक समाजवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत करनी ही होगी जो वर्तमान युग में उसे विकास से भी न रोके और उसका आन्तरिक अध्यात्मवाद भी जीवित रहे, वह मूल्यों को पाले और यदि न पाल सके तो कम से कम उसका सम्मान करना सीख जाये। जिन धर्म में अपनी श्रद्धा को बरकरार रखे और कम से कम शुद्ध शाकाहार को तो जीवन में बनाये रखे। प्राकृत आगमों में कहा गया है कि - ‘‘जं सक्कइ तं कीरइ, जं ण सक्कइ तहेव सद्दहणं’’ भावार्थ यह है कि जितना कर सकते हैं उतना ईमानदारी से करें और जो न कर सकें उसके प्रति श्रद्धा अवश्य रखें और जो उस मार्ग पर चल रहे हैं उनके प्रति सेवा और बहुमान का भाव भी रखें |
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान होने पर भी उसने समाज हित और समाज कल्याण की कभी उपेक्षा नहीं की। श्रावक इस अंतर्द्वन्द्व में उलझा रहता है कि वह आध्यात्मिक बने या सामाजिक बने ? फलत: वह अधकचरा अध्यात्म लेकर मोहवश सामाजिक कार्यों में जुटा रहता है। वह पूरे मन से न तो अध्यात्म में रम पाता है और न ही समाज में । इसीलिए हमें श्रावकों के मध्य एक ‘आध्यात्मिक समाजवाद’ की अवधारणा प्रस्तुत करनी ही होगी जो वर्तमान युग में उसे विकास से भी न रोके और उसका आन्तरिक अध्यात्मवाद भी जीवित रहे, वह मूल्यों को पाले और यदि न पाल सके तो कम से कम उसका सम्मान करना सीख जाये। जिन धर्म में अपनी श्रद्धा को बरकरार रखे और कम से कम शुद्ध शाकाहार को तो जीवन में बनाये रखे। प्राकृत आगमों में कहा गया है कि - ‘‘जं सक्कइ तं कीरइ, जं ण सक्कइ तहेव सद्दहणं’’ भावार्थ यह है कि जितना कर सकते हैं उतना ईमानदारी से करें और जो न कर सकें उसके प्रति श्रद्धा अवश्य रखें और जो उस मार्ग पर चल रहे हैं उनके प्रति सेवा और बहुमान का भाव भी रखें |
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
अध्यक्ष-जैन दर्शन ,दर्शन संकाय
श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
(मानित विश्वविद्यालय ),क़ुतुब सांस्थानिक क्षेत्र ,नई दिल्ली -११००१६
सन्दर्भ
1. ↑ ‘क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:।’-
तत्त्वार्थसूत्र-आचार्य उमास्वामी-७/२९
4. ↑ ‘दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।
७/२१ (तत्त्वार्थ सूत्र)
6. ↑ देवपूजागुरूपास्ति
स्वाध्याय: संयमस्तप:।
दानं चेतिगृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।। - यशस्तिलक चम्पू-सोमदेव सूरि
दानं चेतिगृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।। - यशस्तिलक चम्पू-सोमदेव सूरि
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