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उत्तम क्षमा

क्षमावाणी पर्व  क्षमापव्वं जीवखमयंति सव्वे खमादियसे च याचइ सव्वेहिं । ‘मिच्छा मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं मज्झं ण केण वि ।। क्षमा दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है  उत्तम क्षमा आपको अपना समझकर  खो गया था स्नेह में  भूल बैठा मान मर्यादा मन वचन और काय में  न जाने कितने अपराध हो गए अनजान में  कुछ तो याद आ रहे हैं  प्रायः नहीं हैं भान में  कोशिश थोड़ी कर रहा हूँ  रहूं उत्तम क्षमा में  उन सभी भूलों के लिए  मांगता हूं क्षमा मैं  प्रो.अनेकान्त कुमार जैन 10/9/22

सुखी जीवन के लिए क्षमा करना और मांगना सीखें

जैन धर्म में क्षमावाणी पर्व पर्युषण और दसलक्षण पर्व के ठीक एक दिन बाद मनाया जाता है । भगवान महावीर ने सभी जीवों को सुखी होने के लिए जीवन जीने की जो आध्यात्मिक कला सिखलाई ,क्षमाभाव उनमें से एक है ।  क्षमापव्वं जीवखमयंति सव्वे खमादियसे च याचइ सव्वेहिं । ‘मिच्छा मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं मज्झं ण केण वि ।। क्षमा दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है  हम अपने जीवन में झांक कर एक बार देखें तो पाएंगे कि मनुष्य भव की इस छोटी सी यात्रा में छोटी छोटी बातों को लेकर हम कितने चिंता ग्रस्त हैं और दूसरों को रखते हैं । क्षमाशीलता एक ऐसी अचूक औषधि है जो आपको इन व्यर्थ की चिंताओं से बचा कर रखती है । अगर किसी के प्रति कोई अपराध हमने पहले कर दिया है तो उस अपराध बोध से ग्रसित रहकर तनाव में रहने से लाख भला है कि हम उस अपराध की क्षमा मांग लें ।  भगवान महावीर ने प्रतिक्रमण का विधान इसीलिए किया था ताकि हम सिर्फ आपस में ही नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों से भी क्षमा मांग सकें और निर्भार होकर साधना कर सकें

तीर्थंकर महावीर का पूर्ण स्वतंत्रता का संग्राम

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर विशेष -  तीर्थंकर महावीर का पूर्ण स्वतंत्रता का संग्राम* प्रो अनेकान्त कुमार जैन  आचार्य - जैन दर्शन विभाग , श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com  हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं । भारत में अंग्रेजों की गुलामी से राजनैतिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति का यह अमृत महोत्सव है । किंतु आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व भारत की इस पवित्र धरा पर एक ऐसे महामानव का जन्म हुआ जिसने वास्तविक स्वतंत्रता की खोज की । वैशाली गणराज्य विश्व का पहला गणराज्य माना जाता है जहां जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हुआ था । पूरे विश्व को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले वैशाली में जिन भगवान महावीर का जन्म हुआ उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में भी पूर्ण स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना की ।  भगवान महावीर स्वतंत्रता की यह लड़ाई तब लड़ रहे थे जब धर्म और अध्यात्म की दृष्टि लगभग पूरा विश्व मात्र ईश्वर की इच्छा के आधीन था । ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता - यह दुनिया के लगभग सभी सेमेटिक धर्म अलग अलग भाषाओं में

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम प्रो अनेकांत कुमार जैन आचार्य – जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16,Ph  ,9711397716 १९४२ में काशी के भदैनी क्षेत्र में गंगा के मनमोहक तट जैन घाट पर स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय और उसका छात्रावास आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति का गढ़ बन चुका था |  जब काशी विद्यापीठ पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रावास जबरन खाली करवा दिया गया और आन्दोलन नेतृत्त्व विहीन हो गया तब आन्दोलन की बुझती हुई लौ को जलाने का काम इसी स्याद्वाद महाविद्यालय के जैन छात्रावास ने किया था | उन दिनों यहाँ के जैन विद्यार्थियों ने पूरे बनारस के संस्कृत छोटी बड़ी पाठशालाओं ,विद्यालयों और महाविद्यालयों में जा जा कर उन्हें जगाने का कार्य किया ,हड़ताल के लिए उकसाया ,पर्चे बांटे और जुलूस निकाले |यहाँ के एक विद्यार्थी दयाचंद जैन वापस नहीं लौटे , पुलिस उन्हें खोज रही थी अतः खबर उड़ा दी गई कि उन्हें गोली मार दी गई है,बी एच यू में उनके लिए शोक प्रस्ताव भी पास हो गया | उन्हें जीवित अवस्था में ही अमर शहीद ह

जो सहे सो रहे

*जो सहे सो रहे* प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली *कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता* *कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता* जीवन साथी का चुनाव तब तक सहज सरल नहीं होता जब तक हमारी इच्छाएं हमारी प्राथमिकताओं पर हावी रहती हैं । कोई भी लड़की सर्वगुणसम्पन्न नहीं होती - इस शीर्षक से फेसबुक पेज पर एक मित्र का एक लेख पढ़ रहा था । उसके कुछ बिंदु विमर्श योग्य लगे । उन्हें बताकर कुछ अपने भाव भी व्यक्त किये ।  *हमारा उद्देश्य संसार का अभाव करना है तो सांसारिक  विषयों पर क्यों चिंतन करें ?* मैं इस बात से कभी पूर्ण सहमति नहीं बना सका हूँ । मेरा मानना रहा है कि बाहर की उलझन कभी अंदर की सुलझन को अभिव्यक्त नहीं करती ।  हम अंदर से सुलझ गए हैं बाहर तो उलझन हमेशा रहेगी - ऐसा कहने और मानने वाले मेरी दृष्टि में सही सुलझन प्राप्त नहीं कर सके हैं । जीवन साथी चयन से संबंधित उस लेख की कुछ महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक बातें और उन बातों के आधार पर  कुछ विचार प्रस्तुत हैं -  1 यदि आप एक सीधी-सादी लड़की का चुनाव करते हैं तो आपको यह मानना पड़ेगा कि वह आप पर निर्भर रहेगी। 2 यदि आप अमीर घर की खूबसूरत लड़की चुनते हैं

पति का विलोम पत्नी नहीं होता है

" पति का विलोम पत्नी नहीं होता है "   दिक्कत यह है कि हमें विलोम शब्द ठीक से नहीं पढ़ाये गए ।      पति का विलोम पत्नी नहीं होता है ।पति का विलोम अपति होगा । इसी तरह पत्नी का विलोम अपत्नी होगा न कि पति ।      पति शब्द का अर्थ स्वामी होता है सिर्फ मर्द नहीं ।  जैसे गृह पति , नरपति ,कुलपति आदि । किन्तु पत्नी का अर्थ स्वामिनी नहीं होता है । अतः यदि कोई स्त्री भी घर की स्वामी हो तो उसे गृहपति , विश्वविद्यालय की  मुखिया हो तो कुलपति ही कहा जायेगा ।        इसी तरह राजा रानी में भी है । यह विलोम शब्द नहीं है । राजा का विलोम अराजा होगा न कि रानी । यदि राजा अर्थात पुरुष के स्थान पर कोई रानी अर्थात स्त्री राज गद्दी संभालती है तब यह कहा जाता है कि अब रानी ही राजा है ।  उसे राज्य की रानी नहीं कहा जाता ,रानी तो वह राजा की ही होती है ।इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है । - प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली 29/07/22

तीर्थों की रक्षा हेतु उपाय

तीर्थों की रक्षा हेतु  उपाय 1.वर्तमान में हम देख रहे हैं कि वक्त सबका आता है ।जैसे पहले इनका था,फिर उनका आया अब इनका फिर से आया है ।  2. जब वक्त एक पक्ष का रहता है तब वे अपने बाहुबल,शासन और स्व निर्मित कानून के बल पर इतर धर्म के धर्म तीर्थ स्थल को या तो पूरा ध्वस्त कर देते हैं या उस पर कब्जा कर लेते हैं ।  3.जब तक तीर्थ हमारे हक में रहता है तब तक हम सिर्फ पूजा भक्ति में डूबे रहते हैं और बिना डरे और विचारे इतर धर्म में प्रयुक्त प्रतीकों , शब्दों ,चिन्हों के प्रयोग बिना किसी संकोच के करते हैं और समन्वय उदारता का परिचय देते रहते हैं ।  4.किन्तु समय बदलते देर नहीं लगती । राजा का सहयोग, संख्या बल , अंध श्रद्धा और बाहुबल सारे कानून पर भारी पड़ता है । हमारी सत्ता,संख्या कम होते ही हमारे ही सामने हमारे धर्म स्थल ,प्रतीक आदि हड़प लिए जाते हैं , अन्य धर्म में तब्दील कर दिए जाते हैंऔर हम कुछ कर नहीं पाते ।  5.किन्तु सैकड़ों हज़ारों साल बाद जब समय बदलता है और हमारे हाथ में सत्ता और संख्या आती है तो अदालतें हमसे सबूत मांगती हैं तब भी यदि सबूतों में इतर धर्म के प्रतीक , शब्द और चिन्ह मिलते हैं तब हमें अ

कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु या सुमेरु?

(इस लेख को कोई भी समाचार पत्र,पत्र पत्रिका,वेबसाइट ,ब्लॉग, आदि बिना किसी फेर बदल के यथावत मूल लेखक के नाम के साथ प्रकाशित कर सकते हैं ) सादर प्रकाशनार्थ  कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु ,सालु या सुमेरु ? प्रो अनेकान्त जैन,नई दिल्ली वर्तमान में कुतुबमीनार एक चर्चा का विषय बना हुआ है ।  लगभग एक वर्ष पहले नेशनल मोन्यूमेंट ऑथोरिटी ऑफ इंडिया , भारत सरकार द्वारा दिल्ली के सम्राट अनंगपाल पर आधारित नेशनल सेमिनार में मैंने कुतुबमीनार को केंद्र में रखते हुए , जैन कवि बुध श्रीधर की अपभ्रंश रचना पार्श्वनाथ चरित के आधार पर इस परिसर का साक्षात निरीक्षण  किया था और कई फ़ोटो ग्राफ्स के आधार पर अपना शोधपत्र वहां प्रस्तुत किया और वहां उपस्थित सभी इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं और सांसदों ,मंत्रियों के मध्य कुतुबमीनार के जैन इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व को समझाया था ।  निश्चित रूप से कुतुब परिसर भारतीय संस्कृति का एक बहुत बड़ा केंद्र था जिसे मुगल आक्रांताओं ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया । इस बात की गवाही स्वयं उनके ही द्वारा लिखे गए और जड़े गए शिलालेख देते हैं । कुतुबमीनार के साथ बनी कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्ज

कुतुबमीनार और दिल्ली का वास्तविक इतिहास

  कुतुबमीनार : जैन मानस्तंभ या सुमेरू पर्वत ? प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन आचार्य - जैन दर्शन विभाग , दर्शन संकाय श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली -११००१६ drakjain @ 2016gmail.com 9711397716     हमें ईमानदारी पूर्वक भारत के सही इतिहास की खोज करनी है तो हमें जैन आचार्यों द्वारा रचित प्राचीन साहित्य और उनकी प्रशस्तियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए | यह बात अलग है कि उनके प्राचीन साहित्य को स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने उतना अधिक उपयोग इसलिए भी नहीं किया क्यों कि जैन आचार्यों द्वारा रचित साहित्य के उद्धार को मात्र अत्यंत अल्पसंख्यक जैन समाज और ऊँगली पर गिनने योग्य संख्या के जैन विद्वानों की जिम्मेदारी समझा गया और इस विषय में राजकीय प्रयास बहुत कम हुए |इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ सांप्रदायिक भेद भाव का शिकार भी जैन साहित्य हुआ है और यही कारण है कि आज भी जैन आचार्यों के द्वारा संस्कृत,प्राकृत और अपभ्रंश आदि विविध भारतीय भाषाओँ   में   प्रणीत हजारों लाखों हस्तलिखित पांडुलिपियाँ शास्त्र भंडारों में अपने संपादन और अनुवाद