कुतुबमीनार : जैन मानस्तंभ या सुमेरू पर्वत ?
प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन
आचार्य - जैन दर्शन विभाग ,दर्शन संकाय
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय
नई दिल्ली -११००१६
9711397716
हमें ईमानदारी पूर्वक भारत के सही
इतिहास की खोज करनी है तो हमें जैन आचार्यों द्वारा रचित प्राचीन साहित्य और उनकी
प्रशस्तियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए | यह बात अलग है कि उनके प्राचीन साहित्य
को स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने उतना अधिक उपयोग इसलिए भी नहीं किया क्यों कि जैन
आचार्यों द्वारा रचित साहित्य के उद्धार को मात्र अत्यंत अल्पसंख्यक जैन समाज और
ऊँगली पर गिनने योग्य संख्या के जैन विद्वानों की जिम्मेदारी समझा गया और इस विषय
में राजकीय प्रयास बहुत कम हुए |इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ
सांप्रदायिक भेद भाव का शिकार भी जैन साहित्य हुआ है और यही कारण है कि आज भी जैन
आचार्यों के द्वारा संस्कृत,प्राकृत और अपभ्रंश आदि विविध भारतीय भाषाओँ में
प्रणीत हजारों लाखों हस्तलिखित पांडुलिपियाँ शास्त्र भंडारों में अपने
संपादन और अनुवाद आदि की प्रतीक्षा में रखी हुई हैं |
प्राचीन काल से आज तक जैन संत बिना किसी वाहन का प्रयोग करते हुए पदयात्रा से
ही पूरे देश में अहिंसा और मैत्री का सन्देश प्रसारित करते आ रहे हैं | दर्शन ,कला
,ज्ञान-विज्ञान और साहित्य रचना में उनकी प्रगाढ़ रूचि रही है |अपने लेखन में उन्होंने
हमेशा वर्तमान कालीन देश काल ,परिस्थिति, प्रकृति सौंदर्य ,तीर्थयात्रा ,राज
व्यवस्था आदि का वर्णन किया है |उनके
ग्रंथों की प्रशस्तियाँ ,गुर्वावलियाँ आदि भारतीय इतिहास को नयी दृष्टि
प्रदान करते हैं | यदि इतिहासकार डॉ ज्योति प्रसाद जैन जी की कृति ‘भारतीय इतिहास
: एक दृष्टि’ पढ़ेंगे तो उन्हें नया अनुसंध्येय तो प्राप्त होगा ही साथ ही एक नया अवसर इस बात का भी मिलेगा कि इस दृष्टि
से भी इतिहास को देखा जा सकता है | जैन साहित्य में इतिहास की खोज करने वाले ९५
वर्षीय वयोवृद्ध विद्वान् प्रो.राजाराम जैन जी जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्राकृत
और अपभ्रंश की पांडुलिपियों के संपादन में लगा दिया ,यदि उनकी भूमिकाओं और निबंधों
को पढ़ेंगे तो आँखें खुल जाएँगी और लगेगा कि आधुनिक युग में भौतिक विकास के उजाले
के मध्य भी भारत के वास्तविक इतिहास की अज्ञानता का कितना सघन अन्धकार है |
मुझे लगता है कि उन्होंने यदि १२-१३ वीं शती के जैन संतकवि बुधश्रीधर द्वारा
अपभ्रंश भाषा में रचित जैनधर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन पर आधारित
रचित ग्रन्थ ‘पासणाह चरिउ’ की पाण्डुलिपि का संपादन और अनुवाद न किया होता
तो दिल्ली और कुतुबमीनार के इतिहास की एक महत्वपूर्ण जानकारी कभी न मिल पाती |
आज मध्यकालीन भारतीय इतिहास में तोमर वंशी
राजाओं की चर्चा बहुत कम होती है, जब कि दिल्ली एवं मालवा के सर्वांगीण विकास
में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है । दिल्ली शाखा के तोमरवंशी राजा अनंगपाल
(१२वीं सदी) का नाम अज्ञान के कुहासे में विलीन होता जा रहा था किन्तु हरियाणा के जैन महाकवि बुधश्रीधर अपने ‘‘पासणाहचरिउ’’ की विस्तृत प्रशस्तियों में उसका वर्णन कर उसे स्मृतियों में धूमिल होने से बचा लिया |दिल्ली के
सुप्रसिद्ध इतिहासकार कुंदनलाल जैन जी लिखते हैं कि तोमर साम्राज्य लगभग ४५० वर्ष तक पल्लवित होता रहा उसका प्रथम संस्थापक
अनंगपाल था |एक जैन कवि दिनकर सेनचित द्वारा अणंगचरिउ ग्रन्थ लिखा गया था जो आज
उपलब्ध नहीं है किन्तु उसका उल्लेख महाकवि धवल हरिवंस रास में और धनपाल के बाहुबली
चरिउ में किया गया है |[1]यदि
यह ग्रन्थ किसी तरह मिल जाय तो इतिहास की कई गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं |
बुध श्रीधर के साहित्य से ज्ञात होता है कि वे अपभ्रंश भाषा के साथ साथ प्राकृत ,संस्कृत भाषा
साहित्य एवं व्याकरण के भी उद्भट विद्वान थे |पाणिनि से भी पूर्व शर्ववर्म कृत
संस्कृत का कातन्त्र व्याकरण उन्हें इतना अधिक पसंद था कि जब वे ढिल्ली(वर्तमान
दिल्ली ) की सड़कों पर घूम रहे थे तो सड़कों के सौन्दर्य की उपमा तक कातन्त्र
व्याकरण से कर दी –
‘कातंत इव पंजी समिद्धु’
– अर्थात् जिस प्रकार कातंत्र व्याकरण अपनी पंजिका (टीका)से समृद्ध है उसी
प्रकार वह ढिल्ली भी पदमार्गों से समृद्ध है |[2]
१२-१३ वीं सदी के हरियाणा के जैन महाकवि बुधश्रीधर अपूर्व कवित्व शक्ति के साथ घुमक्कड़ प्रकृति के भी थे किन्तु उसकी वह घुमक्कड़ प्रकृति रचनात्मक
एवं इतिहास दृष्टि सम्पन्न भी थी । एक दिन वे जब अपनी एक अपभ्रंशभाषात्मक चंदप्पहचरिउ (चन्द्रप्रभचरित) को लिखते-लिखते कुछ थकावट का अनुभव करने लगे , तो उनकी घूमने की इच्छा हुई। अत: वह पैदल ही यमुनानगर होते हुये ढिल्ली (तेरहवीं सदी में यही नाम प्रसिद्ध था) अर्थात् दिल्ली आ गये ।यह पूरी कहानी उन्होंने अपनी प्रशस्ति में लिखी है |
उन्होंने लिखा है – ‘ढिल्ली (दिल्ली) में सुन्दर-सुन्दर चिकनी-चुपड़ी चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर चलते-चलते तथा विशाल ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर प्रमुदित मन जब आगे
बढ़ा जा रहा था तभी मार्ग में एक व्यक्ति ने उनके हाव-भाव को देखकर उन्हें परदेशी और (अजनबी) समझा अत: जिज्ञासावश उनसे पूछा कि आप कौन हैं और कहाँ जा रहे हैं ? तब उन्होंने कहा कि मैं हरियाणा-निवासी बुधश्रीधर नाम का कवि हूँ। एक ग्रन्थ
लिखते-लिखते कुछ थक गया था, अत: मन को ऊर्जित करने हेतु यहाँ घूमने आया हूँ। यह प्रश्नकर्ता था अल्हण साहू[3], जो समकालीन दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर (तृतीय) की राज्यसभा का सम्मानित
सदस्य था। उसने कवि को सलाह दी कि वह ढिल्ली के नगरसेठ नट्टलसाहू जैन जी से अवश्य भेंट करे। साहू नट्ठल की ‘‘नगरसेठ’’ की उपाधि सुनते ही कवि अपने मन में रुष्ट हो गया। उसने अल्हण साहू से स्पष्ट
कहा कि धनवान् सेठ लोग कवियों को सम्मान नहीं देते। वे क्रुद्ध होकर नाक-भौंह सिकोड़ कर धक्का-मुक्की कर उसे घर से निकाल बाहर करते हैं।
यथा-
.........अमरिस—धरणीधर—सिर विलग्ग णर
सरूव तिक्खमुह कण्ण लग्ग।
असहिय—पर—णर—गुण—गुरूअ—रिद्धि दुव्वयण हणिय पर—कज्ज सिद्धि।
कय णासा—मोडण मत्थरिल्ल भू—भिउडि—भंडि णिंदिय गुणिल्ल।।[4]
ऐसा कहकर महाकवि ने नट्टलसाहू (जैन श्रेष्ठी )के यहाँ जाना अस्वीकार कर दिया। फिर भी अल्हणसाहू ने बार बार समझाया और उनकी प्रशंसा में कहा कि उन्होंने
दिल्ली में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी करवाई है |[5]उनकी
उदारता सुनकर बुधश्री बहुत प्रसन्न हुए और उनसे मिलने को तैयार हो गए | बुधश्री
अल्हण के साथ नट्टलसाहू के
घर पहुँचे और उसकी सज्जनता और उदारता से वह अत्यन्त प्रभावित हुए । भोजनादि कराकर नट्टल ने महाकवि से कहा-मैंने यहाँ
एक विशाल नाभेय (आदिनाथ का) मन्दिर बनवाकर शिखर के ऊपर पंचरंगी झण्डा भी फहराया
है।[6] उन्होंने चन्द्रमा के धाम के समान आठवें
तीर्थंकर चन्द्रप्रभ स्वामी जी की मूर्ती की भी स्थापना करवाई थी |[7] यह कहने के बाद नट्टल साहू ने महाकवि से निवेदन किया कि मेरे
दैनिक स्वाध्याय के लिये पासणाहचरिउ
(पार्श्वनाथ—चरित) की रचना करने की कृपा करें । कवि ने उक्त नाभेय-मन्दिर में
बैठकर उक्त ग्रन्थ की रचना कर दी जिसके लिये नट्टलसाहू ने कवि का आभार मानकर उसे सम्मानित
किया।
बुधश्रीधर ने ढिल्ली के इस स्थान का वर्णन करते समय एक
गगन मंडल को छूते हुए साल का वर्णन किया है जिसकी तुलना अपनी विस्तृत प्रस्तावना
में प्रो राजाराम जैन जी ने कुतुबमीनार से
की है | वे लिखते हैं कि गगनचुम्बी सालु का अर्थ कीर्ति स्तम्भ है जिसका निर्माण
राजा अनंगपाल ने अपने किसी दुर्धर शत्रु पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था |
कवि ने भी उसका उल्लेख नभेय मंदिर के निर्माण के प्रसंग में किया है चूँकि नट्टलसाहू ने उक्त मंदिर शास्त्रोत विधि से निर्मित करवाया था और जैन मंदिर
वास्तुकला में मानस्तम्भ मंदिर के द्वार पर अनिवार्य रूप से बनाया जाता है अतः यह
‘गगणमंडलालग्गु सालु’ ही वह मानस्तंभ रहा होगा जो वर्तमान में कुतुबमीनार
में तब्दील कर दिया गया |[8]
बुध श्रीधर द्वारा वर्णित उक्त दोनों वास्तुकला के अमर-चिन्ह कुछ समय बाद ही नष्ट-भ्रष्ट हो गए और परवर्ती कालों में मानव स्मृति से भी ओझल होते गए। इतिहास
मर्मज्ञ पं. हरिहरनिवास द्विवेदी जी ने बुधश्रीधर के उक्त सन्दर्भो का भारतीय
इतिहास के अन्य सन्दर्भों के आलोक में गम्भीर विश्लेषण कर यह सिद्ध कर दिया है कि दिल्ली
स्थित वर्तमान गगनचुम्बी कुतुबमीनार ही अनंगपाल तोमर द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ
है तथा कुतुबुद्दीन ऐबक (वि. स. १२५०) जब ढिल्ली का शासक बना तब उसने विशाल नाभेय जैन मन्दिर तथा अन्य मंदिरों को ध्वस्त करा कर
उनकी सामग्री से कुतुबमीनार का निर्माण करा दिया तथा नाभेय जैन मंदिर के प्रांगण मे कुछ परिवर्तन कराकर उसे कुतुब्बुल—इस्लाम—मस्जिद का निर्माण करा दिया।[9]विद्वान भी मानते हैं कि यह मीनार कुतुबुद्दीन ऐबक से कम से कम ५०० वर्ष पहले तो अवश्य
विद्यमान थी।
कुतुबमीनार : सूर्यस्तम्भ ,मानस्तंभ या सुमेरु पर्वत ? –कुतुबमीनार मीनार के साथ बनी कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद के मुख्य द्वार पर अरबी भाषा में लिखा एक अभिलेख (शिलालेख) लगा हुआ है। उसमें कुतुबुद्दीन ऐबक ने लिखवाया है -
ई हिसार फतह कर्दं ईं मस्जिद राबसाखत बतारीख फीसहोर सनतन समा व समानीन
वखमसमत्य अमीर उल शफहालार अजल कबीर कुतुब उल दौल्ला व उलदीन अमीर उल उमरा एबक
सुलतानी अज्ज उल्ला अनसारा व बिस्ती हफत अल बुतखाना मरकनी दर हर बुतखाना दो बार
हजार बार हजार दिल्लीवाल सर्फ सुदा बूददरी मस्जिद बकार बस्ता सदा अस्त॥
अर्थात् हिजरी सन् ५८७ (११९१-९२ ईसवी सन्) में कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह किला
विजय किया और सूर्यस्तम्भ के घेरे में बने २७ बुतखानों (मन्दिरों) को तोड़कर उनके
मसाले से यह मस्जिद बनवाई। ये मन्दिर एक-से मूल्य के थे। एक-एक मन्दिर २०-२० लाख
दिल्लीवाल (दिल्ली में बने सिक्के का नाम) की लागत से बना हुआ था।
पुरातत्त्व संग्रहालय के निदेशक विरजानन्द
दैवकरणि ने मीनार के माप को लेकर लिखा है कि २३८ फीट १ इंच
ऊंची मीनार का मुख्य प्रवेशद्वार उत्तर दिशा (ध्रुवतारे) की ओर है।इस मीनार के
प्रथम खण्ड में दस (सात बड़ी, ३ छोटी), द्वितीय खण्ड में पांच तथा तीसरे, चौथे, पांचवें खण्ड में चार-चार खिड़की हैं। ये कुल मिलाकर २७
हैं। ज्योतिष के अनुसार २७ नक्षत्र होते हैं। ज्योतिषक और वास्तु की दृष्टि से दक्षिण की ओर झुकाव देकर कुतुबमीनार का
निर्माण किया गया है। इसीलिये सबसे बड़े दिन २१ जून को मध्याह्न में इतने विशाल
स्तम्भ की छाया भूमि पर नहीं पड़ती। कोई भी वहां जाकर इसका निरीक्षण कर सकता है।
इसी प्रकार दिन-रात बराबर होने वाले दिन २१ मार्च, २२ सितम्बर को भी मध्याह्न के समय इस विशाल स्तम्भ के
मध्यवर्ती खण्डों की परछाई न पड़कर केवल बाहर निकले भाग की छाया पड़ती है और वह
ऐसे दीखती है जैसे पांच घड़े एक दूसरे पर औंधे रक्खे हुये हों।
वे लिखते हैं कि वर्ष
के सबसे छोटे दिन २३ दिसम्बर को मध्याह्न में इसकी छाया २८० फीट दूर तक जाती है, जबकि छाया ३००
फीट तक होनी चाहिये। क्योंकि मूलतः मीनार ३०० फीट की थी (१६ गज भूमि के भीतर और ८४
गज भूमि के बाहर = १०० गज = ३०० फीट)। यह २० फीट की छाया की कमी इसलिये है कि
मीनार की सबसे ऊपर के मन्दिर का गुम्बद जैसा भाग टूट कर गिर गया था। जितना भाग गिर
गया, उतनी ही छाया
कम पड़ती है, मीनार का ऊपरी
भाग न टूटता तो छाया भी ३०० फीट ही होती।[10]
संभवतः इसके
ऊपर २० फीट की शिखर युक्त बेदी थी जिसमें तीर्थंकर प्रतिमा स्थापित थी जो या तो
बिजली आदि गिरने से खंडित हो गयी या फिर
बुत परस्ती की खिलाफत करने वाले मुग़ल सम्राटों ने उसे तुडवा दिया | मीनार चूँकि
वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना था अतः उस पर पत्थर लगवा कर अरबी में अपने शिलालेख खुदवाकर उसे यथावत् रहने दिया
| प्रसिद्ध
दार्शनिक और इतिहास के विद्वान् श्री आचार्य उदवीर शास्त्री, श्री
महेशस्वरूप भटनागर, श्री केदारनाथ प्रभाकर आदि अनेक शोधकर्त्ताओं ने सन् १९७०-७१ में कुतुबमीनार
और इसके निकटवर्ती क्षेत्र का गूढ़ निरीक्षण किया था। उस समय इस मीनार की आधारशिला
तक खुदाई भी कराई थी, जिससे ज्ञात हुआ कि यह मीनार तीन विशाल चबूतरों पर स्थित है। पूर्व से पश्चिम
में बने चबूतरों की लम्बाई ५२ फीट तथा उत्तर से दक्षिण में बने चबूतरे की लम्बाई
५४ फीट है। यह दो फीट का अन्तर इसलिये है कि मीनार का झुकाव दक्षिण दिशा की ओर है, इसका सन्तुलन
ठीक रक्खा जा सके।
उसी निरीक्षण काल में श्री केदारनाथ प्रभाकर जी को मस्जिद के
पश्चिमी भाग की दीवार पर
बाहर की ओर एक प्रस्तर खण्ड पर एक त्रुटित अभिलेख देखने को मिला। उसके कुछ पद इस
प्रकार पढ़े गये थे -सूर्यमेरुः पृथिवी यन्त्रै मिहिरावली यन्त्रेण |[11]
यहाँ इसे सूर्यमेरु नाम से अभिहीत किया गया है | कुछ विद्वान इसे खगोल विद्या से
सम्बंधित ज्योतिष केंद्र के रूप में देखते हैं जिसका सम्बन्ध वराहमिहिर से जोड़ते
हैं | प्रो राजाराम जैन जी का दावा है कि यह मानस्तम्भ है जो तीर्थंकरों के समवशरण
के सामने होता है तथा जैन मंदिर वास्तुकला में मन्दिर के प्रवेश द्वार के करीब
निर्मित करवाया जाता है तथा जिस पर तीर्थंकर की प्रतिमा चारों दिशाओं में स्थापित
होती है |[12]
हरिवंशपुराण में सुमेरु पर्वत के २५ नाम गिनाये हैं जिसमें सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि-ये नाम भी हैं -
सूर्याचरणविख्याति: सूर्यावर्त: स्वयंप्रभ:।
इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णै: स वर्णित:।।[13]
जैन आगमों में सुमेरु पर्वत का वर्णन किया
गया है | उसके अनुसार
जम्बूद्वीप १ लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोलाकार है। यह बड़ा योजन है, जिसमें २०००
कोस यानि ४००० मील माने गए हैं, अत: यह जम्बूद्वीप ४० करोड़ मील विस्तार वाला
है। इसमें बीचों बीच में सुमेरुपर्वत है। पृथ्वी में इसकी जड़ १००० योजन मानी गई है
और ऊपर ४० योजन की चूलिका है। सुमेरु पर्वत १० हजार योजन विस्तृत और १ लाख ४० योजन
ऊँचा है। सबसे नीचे भद्रशाल वन है, इसमें बहुत सुन्दर उद्यान-बगीचा है। नाना प्रकार
के सुन्दर वृक्ष फूल लगे हैं। यह सब वृक्ष, फल-फूल वनस्पतिकायिक नहीं हैं प्रत्युत् रत्नों
से बने पृथ्वीकायिक है। इस भद्रसाल वन में चारों दिशा में एक-एक विशाल जिनमंदिर है।
इनका नाम है त्रिभुवन तिलक जिनमंदिर। उनमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।[14] (यह संक्षिप्त वर्णन है )
अब इस वर्णन को पढने के बाद आप वुधश्रीधर का पासणाह चरिउ की
प्रशस्ति में उनके हरियाणा से दिल्ली प्रवेश पर देखे गए ऊँचे स्तंभ का वर्णन हूबहू
पढ़िए और स्वयं तुलना कीजिये |वे लिखते हैं – ‘जिस ढिल्ली-पट्टन में गगन मंडल से
लगा हुआ साल है ,जो विशाल अरण्यमंडप से परिमंडित है, जिसके उन्नत गोपुरों के श्री
युक्त कलश पतंग (सूर्य) को रोकते हैं ,जो जल से परिपूर्ण परिखा (खाई ) से आलिंगित
शरीर वाला है ,जहाँ उत्तम मणिगणों(रत्नों ) से मंडित विशाल भवन हैं ,जो नेत्रों को
आनंद देने वाले हैं ,जहाँ नागरिकों और खेचारों को सुहावने लगने वाले सघन उपवन
चारों दिशाओं में सुशोभित हैं ,जहाँ मदोन्मत्त करटि-घटा (गज-समूह)अथवा समय सूचक
घंटा या नगाड़ा निरंतर घडहडाते(गर्जना करते)रहते हैं और अपनी प्रतिध्वनि से दिशाओं
विदिशाओं को भी भरते रहते हैं |[15]
जहिँ गयणमंडलालग्गु सालु रण- मंडव- परिमंडिउ विसालु ।।
गोउर- सिरिकलसाहय-पयंगु जलपूरिय- परिहालिंगियंगु।।
जहिँ जणमण णयणाणंदिराइँ मणियरगण मंडिय मंदिराइँ
जहिँ चउदिसु सोहहिँ घणवणाइँ णायर-णर-खयर-सुहावणाइँ।।
जहिं समय-करडि घडघड हणंति पडिसद्देँ दिसि-विदिसिवि फुंडति ।।
इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि यह जो वर्तमान का
कुतुबमीनार है वह सुमेरु पर्वत की रचना है जो शास्त्रोक्त विधि से निर्मित की गयी
थी |
पांडुक शिला -
कुतुबमीनार परिसर में प्रवेश करने से पूर्व ही पूरब दिशा की
तरफ एक और स्मारक बना है जो गोल आकृति का है तथा ऊपर की ओर तीन स्तर पर उसकी आकृति
छोटी होती जाती है |मैंने उसे स्वयं देखा और उसके बारे में जानने की कोशिश की तो
वहां के गाइड ने कहा कि यह अंग्रेजों ने ऐसे ही बनवा दिया था |उसकी आकृति देखकर
मुझे बुध श्रीधर जी का वह प्रसंग याद आ गया जब नट्टल साहू जी ने यहाँ चन्द्रप्रभ
तीर्थंकर की प्रतिष्ठा करवाई थी | जैन परंपरा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आज भी
शास्त्रोक्त विधि से वैसे ही होती हैं जैसे प्राचीन काल में होती थीं | उसमें
तीर्थंकर के जन्मकल्याणक के बाद उनके
जन्माभिषेक की क्रिया बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है जिसमें सौधर्म इंद्र
तीर्थंकर बालक को पांडुक शिला पर विराजमान करके उनका अभिषेक करवाने का अनिवार्य
अनुष्ठान होता है | इसके लिए आज भी पांडुक शिला का निर्माण वैसा ही करवाया जाता है
जैसा शास्त्र में उल्लिखित है | बहुत कुछ सम्भावना है कि यह वही पांडुक शिला है
जहाँ नट्टल साहू जी ने चन्द्रप्रभ
तीर्थंकर की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी और जन्माभिषेक करवाया था | तुलना हेतु
मैं दोनों के चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ –
क़ुतुबपरिसर की
कुछ जैन मूर्तियाँ -
बुध श्रीधर इस मंदिर परिसर का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
‘जाहिं समय करडि घड घड हणंति’[16]
जिसका एक अनुवाद यह किया गया है कि जहाँ समय सूचक घंटा गर्जना किया करते हैं |
अब आप स्वयं यदि क़ुतुब परिसर में भ्रमण करें तो वहां शायद ही कोई स्मारक ऐसा मिले
जिसपर छोटी या बड़ी घंटियाँ उत्कीर्ण न हों | सैकड़ों खम्बे ,तोरण और स्वयं मीनार की
दीवारों पर चारों और घंटियाँ निर्मित हैं | हो न हो इस स्थान पर कोई बड़ा धातु का
घंटा भी रहा होगा जो प्रत्येक समयचक्र को अपनी ध्वनि द्वारा सूचित करता होगा |
इन्हीं खम्भों पर और छतों पर अनेक तीर्थकर और देवियों की प्रतिमाएं भी साफ़
उत्कीर्ण दिखलाई देती हैं |मंदिर के परकोटे के बाहर की तरफ जमीं की तरफ पद्मावती
देवी की उल्टी प्रतिमा भी दिखलाई देती है जिनकी पहचान उनके मस्तिष्क पर नागफण का
चिन्ह होने से होती है | कई खम्भों पर जैन शासन देवी अम्बिका आदि भी उत्कीर्ण हैं
|प्रमाण स्वरुप कुछ चित्र दर्शनीय हैं-
अनंगपाल तोमर
की प्रशंसा और सरोवर का उल्लेख –
वुध श्रीधर
अपनी प्रशस्ति में अनंग नाम के विशाल सरोवर का उल्लेख करते हैं – ‘पविउलु
अणंगसरु जहिं विहाइ’[17]
जो संभवतः दिल्ली के संस्थापक सम्राट अनंगपाल तोमर द्वितीय के नाम से स्थापित है |कवि
सम्राट अनंगपाल तोमर की प्रशंसा करते हैं और उन्हें नारायण श्री कृष्ण के समान
बताते हुए कहते हैं कि जो राजा त्रिभुवन पति प्रजाजनों के नेत्रों के लिए तारे के
समान ,कामदेव के समान सुन्दर ,सभा कार्यों में निरंतर संलग्न एवं कामी जनों के लिए
प्रवर मान का कारण है ,जो संग्राम का सेना नायक है तथा किसी भी शत्रु राज्य के वश
में न होने वाला और जो कंस वध करने वाले नारायण के समान (अतुल बलशाली) है |[18]
कवि सम्राट अनंगपाल तोमर
को नरनाथ की संज्ञा देता है – णरणाहु पसिद्धु अणंगवालु,और कहता है कि
ढिल्ली पट्टन में सुप्रसिद्ध नरनाथ अनंगपाल ने अपने श्रेष्ठ असिवर से शत्रुजनों के
कपाल तोड़ डाले ,जिसने हम्मीर-वीर के समस्त सैन्य समूह को बुरी तरह रौंद डाला और
बंदी जनों में चीर वस्त्र का वितरण किया ,जो अनंगपाल दुर्जनों की ह्रदय रुपी
पृथ्वी के लिए सीरू हलके फाल के समान तथा जो दुर्नय करने वाले राजाओं का निरसन
करने के लिए समीर-वायु के समान है ,जिसने अपनी प्रचंड सेना से नागर वंशी अथवा
नागवंशी राजा को भी कम्पित कर दिया था, वह मानियों के मन में राग उत्पन्न कर देने
वाला है |[19]
इस प्रकार बुध श्रीधर अपनी प्रशस्ति में इतिहास के अछूते पहलु भी उजागर करते हैं
और हम सभी को पुनर्विचार पर विवश करते हैं |
विमर्श योग्य बिंदु
वर्तमान में कुतुबमीनार के
परिसर में भ्रमण करने पर भी यह स्थिति साफ़ है कि महरौली तथा उसके आसपास स्थित अनेक
जैन मंदिरों को तोड़कर उसकी सामग्री से इसका निर्माण करवाया गया था | कुतुबमीनार
संज्ञा से यह मान लिया गया कि इसका निर्माण कुतबुद्दीन ऐबक ने करवाया किन्तु यदि
ऐसा होता तो उस पर वह इस बात का उल्लेख जरूर करवाता किन्तु ऐसा नहीं है | क़ुतुब
शब्द अरबी है और उसका अर्थ ध्रुव तारा भी होता है और किताब भी होता है बहुत कुछ
सम्भावना इस बात की है कि नाभेय जैन मंदिर परिसर में निर्मित गगन चुम्बी स्तम्भ
जिसका वर्णन बुधश्रीधर करते हैं वह जैन मानस्तम्भ या सुमेरु पर्वत की प्रतिकृति था
जिसके सबसे ऊपर तीर्थंकरों की प्रतिमाएं विराजमान थीं | अरबी में लिखे शिलालेख में
जो लिखा है ‘सूर्य स्तम्भ के घेरे में बने मंदिरों को तोड़कर’उससे साफ़ है कि
वे सुमेरु पर्वत के नीचे भद्रसाल वन में चारों दिशा
में बने एक-एक विशाल जिनमंदिर है। जिनका नाम त्रिभुवन तिलक जिनमंदिर है ।यह भी एक
संयोग है की बुधश्रीधर सम्राट अनंगपाल तोमर को राजा त्रिभुवनपति – ‘तिहुअणवइ’[20] नाम से संबोधित करते हैं
|
उन दिनों दर्शनार्थी सुमेरु
में ऊपर तक उन प्रतिमाओं के दर्शन करने जाते थे तथा खगोलशास्त्र में रूचि रखने
वाले विद्वान् यहाँ से उत्तरी ध्रुव तारे को बड़ी ही सुगमता से देखते थे | इसलिए
जिस मीनार से क़ुतुब (ध्रुवतारा ) देखा जाय वह क़ुतुब मीनार- ऐसा नाम प्रसिद्ध हो
गया | बुत परस्ती की खिलाफत करने वाले मुग़ल सम्राटों ने इसके ऊपर विराजमान
तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमाओं को तोड़ दिया और उन मूर्ती के अवशेषों को मीनार की
दीवारों में ही चुनवा दिया | क़ुतुब (ध्रुवतारा)और कुतबुद्दीन ऐबक संज्ञा समान होने
से इसके नाम परिवर्तन की आवश्यकता नहीं समझी गयी और उसे इसका निर्माता मानने का
भ्रम खड़ा होने में भी आसानी हुई |
१९८१ तक इस मीनार की ऊंचाई
तक आम जनता भी जाती रही ,किन्तु १९८१ में ही घटी एक दुर्घटना में भगदड़ अनेक लोग
मीनार के अन्दर मर गए और मीनार के कई पत्थर
उखड़ गए |उसके बाद इसे बंद कर दिया
गया | वे जो ऊपर के पत्थर टूटे थे उनके
अन्दर अनेक जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं निकली थीं और उसका उल्लेख उन दिनों के
प्रकाशित अख़बारों में किया गया था | आज वे प्रतिमाएं निश्चित रूप से पुरातत्त्व
विभाग के पास सुरक्षित होनी चाहिए | अभी भी मीनार के पास कई खम्भों में तीर्थंकर
की प्रतिमाएं स्पष्ट दिखाई देतीं हैं जिनका मेरे पास स्वयं लिया हुआ चित्र है |
एक और सम्भावना मैं व्यक्त
करना चाहता हूँ | जैन साहित्य में
जम्बूद्वीप का वर्णन प्राप्त होता है जिसके मध्य में सुमेरु पर्वत है ,इसकी
प्रतिकृति जैन साध्वी गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीमाता जी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में
जम्बुद्वीप में निर्मित की गयी है | यदि आप उस शास्त्रोक्त विधि से निर्मित उक्त सुमेरु
पर्वत को देखेंगे उसका अध्ययन करेंगे और कुतुबमीनार को देखेंगे तो उसकी बनावट
देखकर सहज ही कह उठेंगे कि यह छोटा कुतुबमीनार है |इसे मैंने तुलनात्मक रूप से एक चित्र के माध्यम से
प्रदर्शित किया है |यह सारे विषय बहुत बड़ी
अनुसंधान परियोजना की अपेक्षा करते हैं |
क़ुतुब परिसर का जो प्राचीन
प्रवेश द्वार है वह और उसका पूरा अधिष्ठान नाभेय मंदिर का प्रवेश द्वार जैसा ही
लगता है |पहली शताब्दी के प्राकृत भाषा में आचार्य यति वृषभ द्वारा रचे जैन ग्रन्थ
तिलोयपण्णत्ति में चौथे अधिकार में तीर्थंकर के समवशरण के सबसे पहले धूलिसालों का
वर्णन किया है जिसके चित्र की तुलना आप क़ुतुब परिसर के प्रवेशद्वार से कर सकते हैं -
आज महरौली में
ही एक प्राचीन जैन दादा बाड़ी भी है जिसमें बहुत सुन्दर श्वेताम्बर जैन मंदिर है |इसका
जीर्णोद्धार एवं नवीन निर्माण किया गया है | यह महरौली के उन्हीं जैन मंदिरों की
श्रृंखला का एक भाग है जिन्हें ध्वंस करके कुतुबमीनार एवं उसके परिसर का निर्माण
हुआ था |कुतुबमीनार के ही समीप लाडोसराय के चौराहे पर तथा गुरुग्राम के रोड पर एक
विशाल जैन मंदिर अहिंसा स्थल नाम से इसी बीसवीं शताब्दी में श्रेष्ठी स्व.प्रेमचंद जैन जी(जैना वाच) के द्वारा निर्मित
हुआ है जिसमें एक लघु पहाड़ी पर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर की सुन्दर मनोज्ञ
वीतराग भाव युक्त लाल ग्रेनाईट पत्थर विशाल प्रतिमा खुले आकाश में स्थापित है
जिसके दर्शन बहुत दूर से ही होने लगते हैं | अहिंसा स्थल की पहाड़ी से कुतुबमीनार
और भी खूबसूरत दिखाई देता है |
मेरा तो बस इतना सा निवेदन
यह है कि इस विषय में आग्रह मुक्त होकर अनुसन्धान किया जाय | यह हमारे भारत के
गौरव शाली अतीत के ऐसे साक्ष्य हैं जिन्हें दबाने के भरकस यत्न किये गए किन्तु अब
उन्हें सामने लाने का सार्थक प्रयास करना चाहिए |
सहायक ग्रन्थ एवं लेख -
१.
भारतीय इतिहास
के पूरक प्राकृत साक्ष्य – प्रो.राजाराम जैन, प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर
१९९५ अंक २
२.
श्रमण संस्कृति की अनमोल विरासत : जैन पांडुलिपियाँ –प्रो
राजाराम जैन , encyclopediaofjainism.com
३.
पासणाह चरिउ – महाकवि बुध श्रीधर ,संपादन एवं प्रस्तावना –
डॉ.राजाराम जैन ,प्रकाशक ,भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली ,प्रथम संस्करण -२००६
४.
कुतुबमीनार : एक
रहस्योद्घाटन,लेखक - विरजानन्द दैवकरणि, निदेशक, पुरातत्त्व
संग्रहालय, झज्जर https://www.jatland.com/home/Qutb_Minar
५.
जम्बुद्वीप-आर्यिका
ज्ञानमती,encyclopediaofjainism.com
६.
कुतुबमीनार
परिसर और जैन संस्कृति – संपादक डॉ नीलम जैन ,निर्देशक श्री ह्रदयराज जैन
(उपाध्याय ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में
ऋषभदेव फाउंडेशन द्वारा आयोजित
संगोष्ठी में पठित शोध पत्रों का संग्रह
)प्रका.प्राच्य श्रमण भारती ,मुजफ्फरनगर
परिशिष्ट- अन्य चित्र
[1] तोमर कालीन ढिल्ली के जैन सन्दर्भ – कुंदनलाल जैन
,कुतुबमीनार परिसर और जैन संस्कृति,पृष्ठ १५
[2]
पासणाहचरिउ १/३/१० ,पृष्ठ ४
[3]
दिट्ठउ अल्हणु णामेणु | पा.च.१/४/६ ,पृष्ठ ६
[4]
पासणाहचरिउ १/७
[5]
तित्थयरू पइट्ठावियउ जेण पढमउ | पा.च.१/६/३,पृष्ठ ८
[6]
काराविव णाहेयहो णिकेहु पविइण्णु पंचवण्णं सुकेउ |
पा.च.१/९/१,पृष्ठ ११
[7]
पइं होई चडाविउ चंदधामु | पा.च.१/९/४,पृष्ठ ११
[8]
पा.च.प्रस्तावना पृष्ठ ३५ ,प्रो राजाराम जैन
[9]
पासणाहचरिउ की भूमिका, पृ. ३५
[10]
कुतुबमीनार : एक रहस्योद्घाटन,लेखक - विरजानन्द दैवकरणि, निदेशक, पुरातत्त्व संग्रहालय, झज्जर https://www.jatland.com/home/Qutb_Minar
[11]
वही
[12]
पा.च.प्रस्तावना ,प्रो.राजाराम जैन ,पृष्ठ ४२
[13]
हरिवंशपुराण ३७६ ,आचार्य जिनसेन
[14]
जम्बुद्वीप-आर्यिका ज्ञानमती,encyclopediaofjainism.com
[15]
पा.च.१/३/१-३ , पृष्ठ ४
[16]
पा.च.१/३/५,पृष्ठ ४
[17]
पा.च.१/३/७,पृष्ठ ४
[18]
पा.च.१/३/घत्ता/पृष्ठ ५
[19]
पा.च.१/४/१-४ ,पृष्ठ ६
[20]
पा.च.१/३/१५,पृष्ठ ५
यह शोध लेख कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ,इंदौर से प्रकाशित प्रतिष्ठित शोध पत्रिका अर्हत्वचन के २०२१ के संयुक्तांक में प्रकाशित है |
कुतुब मीनार: जैन मनस्तंभ या सुमेरु पर्वत?
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