जैन धर्म में क्षमावाणी पर्व पर्युषण और दसलक्षण पर्व के ठीक एक दिन बाद मनाया जाता है । भगवान महावीर ने सभी जीवों को सुखी होने के लिए जीवन जीने की जो आध्यात्मिक कला सिखलाई ,क्षमाभाव उनमें से एक है ।
क्षमापव्वं जीवखमयंति सव्वे खमादियसे च याचइ सव्वेहिं ।
‘मिच्छा मे दुक्कडं ' च बोल्लइ वेरं मज्झं ण केण वि ।।
क्षमा दिवस पर जीव सभी जीवों को क्षमा करते हैं सबसे क्षमा याचना करते हैं और कहते हैं मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों तथा मेरा किसी से भी बैर नहीं है
हम अपने जीवन में झांक कर एक बार देखें तो पाएंगे कि मनुष्य भव की इस छोटी सी यात्रा में छोटी छोटी बातों को लेकर हम कितने चिंता ग्रस्त हैं और दूसरों को रखते हैं । क्षमाशीलता एक ऐसी अचूक औषधि है जो आपको इन व्यर्थ की चिंताओं से बचा कर रखती है । अगर किसी के प्रति कोई अपराध हमने पहले कर दिया है तो उस अपराध बोध से ग्रसित रहकर तनाव में रहने से लाख भला है कि हम उस अपराध की क्षमा मांग लें ।
भगवान महावीर ने प्रतिक्रमण का विधान इसीलिए किया था ताकि हम सिर्फ आपस में ही नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों से भी क्षमा मांग सकें और निर्भार होकर साधना कर सकें । प्रतिक्रमण का सीधा अर्थ यह होता है कि हमने भूलवश जो अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया उसे सुधारना ।
मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ और सभी जीव मुझे क्षमा कर दें । मेरी सभी जीवों से मैत्री है और बैर किसी से भी नहीं है । - यह वचन हमारा जीवन बदल सकता है ,यदि हम चाहें तो ।
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