*कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार*
प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली
drakjain2016@gmail.com
मैं कभी कभी आचार्य समन्तभद्र के शब्द चयन पर विचार करता हूँ और आनंदित होता हूँ कि वे कितनी दूरदर्शिता से अपने साहित्य में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शब्द चयन पर ध्यान देते थे ।
एक दिन मैं अपने विद्यार्थियों को उनकी कृति रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ा रहा था । श्लोक था -
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टांङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
इसकी व्याख्या के समय एक छात्रा ने पूछा कि गुरुजी ! देव ,शास्त्र और गुरु शब्द संस्कृत का भी है , प्रसिद्ध भी है ,उचित भी है फिर आचार्य ने उसके स्थान पर आप्त,आगम और तपस्वी शब्द का ही प्रयोग क्यों किया ? जब कि अन्य अनेक ग्रंथों में ,पूजा पाठादि में देव शास्त्र गुरु शब्द ही प्रयोग करते हैं ।
प्रश्न ज़ोरदार था । उसका एक उत्तर तो यह था कि आचार्य साहित्य वैभव के लिए भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे उन्होंने अकेले सम्यग्दर्शन के लिए भी अलग अलग श्लोकों में अलग अलग शब्द प्रयोग किये हैं ।
लेकिन हमें गहराई से यह भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने सिर्फ साहित्य वैभव के लिए ऐसा किया या उसमें कुछ
अर्थ वैभव भी है ?
मैंने उसे समझाते हुए कहा कि देखो खाना,भोजन और आहार ये एक नज़र में तो पर्यायवाची भी हैं और अर्थ भी लगभग समान हैं किंतु जब इन शब्दों का प्रयोग करते हैं तो खुद के लिए खाना , मेहमानों के लिए भोजन और मुनिराज के लिए आहार शब्द का प्रयोग करते हैं ।
भोजन शब्द कितना भी अच्छा क्यों न हो किन्तु मुनिराज के लिए वह प्रयुक्त नहीं किया जाता है क्यों कि यह भोजन शब्द उनके पद,चर्या आदि की गरिमा को वहन नहीं कर पाता है । इसी प्रकार जब जल के लिए पानी,नीर आदि अनेक शब्द हैं किंतु जब श्री जी के अभिषेक की बात आती है तो हम जल ही बोलते हैं पानी नहीं । पानी शब्द कितना भी प्रचलित और लोकप्रिय क्यों न किन्तु वह अभिषेक के साथ उपयुक्त नहीं बैठता ,या ये कहें कि अभिषेक ,पूजन,विधान आदि की गरिमा को वहन नहीं कर पाता है ।
इसी प्रकार सामान्य रूप से तो देव शब्द अच्छा लगता है किंतु आचार्य नहीं चाहते थे कि कभी भी किसी भी काल में वीतरागी के अलावा इसका कोई और अर्थ भी निकले अतः उन्होंने इसके स्थान पर आप्त शब्द का प्रयोग किया । देव शब्द से स्वर्ग के देव , जल देव वायु देव आदि भी जाने जाते हैं , स्थान स्थान पर जिस किसी को देव संज्ञा दे दी जाती है लेकिन आप्त शब्द में कहीं भी ,किसी भी काल में सर्वज्ञ ,वीतरागी,हितोपदेशी के अलावा कुछ और अर्थ की संभावना लगभग न के बराबर ही रहती है अतः आप्त शब्द ही उन्हें सर्वाधिक उचित लगता है ।
इसी प्रकार आगम और शास्त्र शब्द के साथ भी है । आप्त का वचन ही आगम है अन्यथा शास्त्र तो आजकल नागरिक शास्त्र,रसायनशास्त्र,अपराध शास्त्र आदि अनेक अर्थों में भी प्रचलित होने से कभी किसी को जरा सा भी भ्रम न हो इसलिए आगम शब्द का ही चयन किया ।
गुरु और तपस्वी में भी ऐसा ही देखा जा सकता है । आजकल तो सभी गुरु ही हैं ।जिस किसी को गुरुदेव भी कह देते हैं भले ही वीतरागता और संयम से उनका दूर दूर तक लेना देना न हो । अनेक मत वाले अपने धर्म गुरु को गुरुदेव बोलते ही हैं । प्रत्येक विद्या का अध्यापक भी सामान्यतः गुरु ही कहलाता है । बनारस में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे को 'का गुरु' से संबोधित करने की परंपरा है । गुरुजी एक आम शब्द हो चला है किंतु तपस्वी में जिस वैराग्य और तपस्या का बोध होता है वह आजकल सिर्फ गुरु में नहीं हो पाता है । उन्होंने सदाकाल इसके अर्थ और पद की गरिमा बनी रहे इसलिए इन उत्कृष्ट शब्दों का चयन किया ।
मुझे लगता है ऐसा प्रयोग और इस तरह की समझ का परिचय अब हम सभी को भी देना चाहिए ।
कभी कभी अनजाने में हम ऐसी बड़ी गलती कर देते हैं जिन्हें बाद में इतिहास में सुधारना बड़ा मुश्किल हो जाता है ।
जैसे दिल्ली में महरौली से गुरुग्राम जाने वाले रास्ते में छत्तरपुर मेट्रो स्टेशन के पास सरकार की तरफ से एक विशाल बोर्ड लगा है 'आचार्य श्री तुलसी मार्ग '। मुझे प्रसन्नता हुई कि श्वेताम्बर जैन तेरापंथ के यशस्वी महान आचार्य तुलसी के नाम पर उनके जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर समाज ने इस तरह का कार्य सरकार से करवाया । लेकिन अब क्या होगा ? तुलसी नाम के अनेक कवि और संत हिन्दू समाज में प्रसिद्ध हुए हैं । पूरी दुनिया कुछ समय बाद क्या अभी से ही यही समझती है कि ये उन्हीं के नाम पर है । कोई सरकारी कागज देखने तो जाता नहीं है । अब इसके स्थान पर नामकरण यदि *जैन आचार्य तुलसी मार्ग* समाज ने करवाया होता तो वर्तमान में या भविष्य में भी कभी कोई भ्रम ही खड़ा नहीं होता ।
हमारे तीर्थों के नाम भी हमें बहुत सोच समझ कर रख लेना चाहिए और बात व्यवहार भी वैसा ही करना चाहिए ।भविष्य की दृष्टि से सम्मेद शिखर जी को भी अब जैन सम्मेद शिखर जी बोलना लिखना प्रारंभ कर दीजिए । आने वाले दिनों के संकटों की गंभीरता को देखते हुए बात व्यवहार लेखन और सरकारी रिकॉर्ड में भी जैन गिरनार,जैन नैनागिरी,जैन द्रोणगिरि, जैन मंगलायतन, जैन वीरायतन, आदि जैसे भी करके संस्था,तीर्थ,मंदिर आदि में जहाँ फिट बैठता हो जैन शब्द अवश्य लिखवाना चाहिए ।
बनारस में स्याद्वाद महाविद्यालय गंगा घाट पर स्थित है । वहां सुपार्श्वनाथ भगवान की जन्मभूमि है । इसके घाट का निर्माण आरा के श्रेष्ठी प्रभुदास जैन जी ने करवाया था ,अतः इस घाट का नाम प्रभु घाट पड़ गया ,अब कोई पर्यटक यह नहीं समझ पाता है कि यह जैन धर्म से संबंधित घाट है । सरकार द्वारा जब सभी घाटों के नामों का पुनः लेखन हो रहा था तब महाविद्यालय के एक विद्यार्थी ने अपनी सूझबूझ से उस घाट का नाम जैन घाट लिखवा दिया । आज काशी के घाट अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और आकर्षण का केंद्र हैं । पूरी दुनिया की मीडिया इसको कवर करती है तो उसमें जब जैन के नाम पर एक मात्र घाट का नाम आ जाता है तो लाज भी बची रहती है और गौरव भी होता है । ठीक उसके बगल में एक श्वेताम्बर जैन मंदिर भी है ,उस घाट का निर्माण बच्छराज जैन ने करवाया था किंतु उसका वहां नाम मात्र बच्छराज घाट है ,कोई इसे जैन संस्कृति से संबंधित नहीं मानता । लोग उसे मल्लाहों का घाट समझते हैं ।
इसी तरह कोई भी शिलापट्ट लिखवाएं उसमें वीर निर्वाण संवत् भी अवश्य लिखवाएं । दान का भी शिलापट्ट हो तो उसमें भी लिखवाएं ,भले ही कोष्ठक में अंग्रेजी तिथि लिख दें । इसी तरह हमें जैन मंदिरों के लिए चैत्यालय शब्द का भी व्यापक प्रयोग करना चाहिए ,क्यों कि यही वह शब्द है जो अन्य परंपरा में प्रयुक्त नहीं होता है । मुस्लिम की मस्जिद,ईसाई का चर्च,हिंदुओं का मंदिर , सिक्खों का गुरुद्वारा और जैनों का चैत्यालय - प्रसिद्ध होना चाहिए । यह हमारी मौलिक पहचान है जो सामान्य रूप से ही हमारी स्वतंत्र पहचान का बोध करा सकती है । वर्तमान में
जैन समाज में चैत्यालय का सामान्य अर्थ छोटे या एक बेदी वाले मंदिर से ही लगाते हैं ,जब कि वास्तव में ऐसा नहीं है ।
इसी तरह का प्रसंग मेरे एक विद्यार्थी ने कुंडलपुर महामहोत्सव से लौटते समय ट्रेन में बातचीत का सुनाया । ट्रेन में एक सामान्य अजैन व्यक्ति ने कुंडलपुर के बड़े बाबा का यह अर्थ लगाया कि यहां जैनों के किसी बाबा की समाधि हुई होगी इसलिए यहां हर वर्ष मेला भरता है ठीक उसी प्रकार जैसे पीरबाबा , भैरवबाबा आदि अनेक नामों से गॉंव गॉंव में वार्षिक मेले का आयोजन होता रहता है ।
मुझे लगा हम जैन तो इसका अर्थ समझते हैं लेकिन हम यह जो प्रचार करते हैं वह सिर्फ अपने लिए थोड़े ही करते हैं जनता जनार्दन के लिए करते हैं । यदि इस आम व्यक्ति के दिमाग में सिर्फ इतना ही चित्र हम बना पाए तो हमें अपने प्रचार तंत्र पर पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए ।
हमें एक बार पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए कि
'बड़े
बाबा' संबोधन के अतिरेक में तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव कहीं छुप तो नहीं गए ?
इसके अलावा
और भी बहुत कुछ हुआ । मैंने स्वयं अपने कई जैन रिश्तेदारों और मित्रों से पूछा कि यह अतिशय क्षेत्र है या सिद्ध क्षेत्र ? तो सभी ने कहा सिद्ध क्षेत्र ,क्यों कि जगह जगह यही लिखा हुआ था किंतु जब मैंने पूछा कि सिद्ध क्षेत्र क्यों है ? तो अधिकांश मौन हो गए क्यों कि श्रीधर केवली जिनके निर्वाण के कारण इस भूमि को सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है ,अधिकांश को नहीं पता था । 'बड़े बाबा' संबोधन के अतिरेक में वे भी अचर्चित से रह गए ।
प्रचार हर समय नहीं हो पाता और ऐसा भी कम होता है कि सारी कायनात ही महामहोत्सव के लिए संकल्पित हो ।तब आयोजकों को यह दृष्टि भी रखनी चाहिए कि इस अवसर का भरपूर उपयोग उस स्थान के सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उजागर करने में भी कर लें । उसी धन,समय और शक्ति का उपयोग करके ।
बाबा शब्द सिर्फ एक श्रद्धा का ही है ,यह शब्द न तो तीर्थंकर की गरिमा का वहन कर पाता है और न ही आचार्य या साधु परमेष्ठी की गरिमा का ।
मुझे लगता है कि
सिर्फ यह तर्क काफी नहीं है कि यह जनता को पसंद है या बहुत पहले से प्रसिद्ध है ।
आज नाम बदलने की धूम तो पूरे देश में चल रही है ,शहरों के ,स्टेशनों के नाम ,आयोगों और मंत्रालयों के प्रसिद्ध और प्राचीन नाम तक बदले जा रहे हैं । इसके पीछे सिर्फ यह सोच है कि कहीं हमारी मूल संस्कृति न समाप्त हो जाये । अतः जो जैन संस्कृति से संबंधित प्राचीन मूल और गरिमापूर्ण नाम हैं उन्हें पुनः स्थापित किया जाना ही चाहिए ।
मैंने बाबा शब्द प्रयोग के इतिहास की भी कुछ तलाश की तो पाया कि बाबा मूलतः फ़ारसी शब्द है । यह अधिकांश मुस्लिम देशों में पहाड़ी आदि के नाम से जाना जाता है । इसका बहुविकल्पीय प्रयोग होता है ।
इस
संज्ञा का पुल्लिंग रूप पिता, पितामह, दादा, नाना, सरदार, बूढ़ा, बुज़ुर्ग, बच्चा आदि के लिए प्रसिद्ध है ।
यह
संज्ञा स्त्रीलिंग में
भेड़ों वग़ैरा के चीख़ने की आवाज़ के रूप में जानी जाती है । आपने बच्चों की अंग्रेजी की कविता सुनी होगी बाबा बाबा ब्लैक शीप .....यह उन्हीं भेड़ों की आवाज है ।
मिस्र में बाबा एक मिस्री देवता है । मिस्र की सभ्यता के अनुसार बाबा लंगूर का रूप धारण करने वाले देवता हैं । प्राचीन स्लावी सभ्यता के अनुसार बाबा यागा - मृत्यु या दूसरी दुनिया की देवी के रूप में है ।सुमेर सभ्यता में एक देवी को बाबा कहा जाता है ।
कई देशों में
बाबा पहाड़ों की शृंखला को कहते हैं । जैसे कोह-ए-बाबा अफ़ग़ानिस्तान के हिन्दु कुश में स्थित है।
स्लावी भाषाओं में बाबा नारियों के लिए एक आम नाम है जो कभी बड़ी उम्र की औरतों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
उत्तर-पश्चिमी युन्नान प्रान्त, चीन के नाकसी लोगों द्वारा तैयार की जाने वाली मोटी और गोल प्रकार की एक रोटी को बाबा कहते हैं ।
सुप्रसिद्ध लेखक
डॉ सुरेंद्र वर्मा के शब्दों में "सामान्यत: जब हम बाबा, शब्द कहते हैं तो हमारे दिमाग में एक बुज़ुर्ग आदमी की शक्ल आती है | लेकिन ज़रूरी नहीं है कि बाबा बूढ़ा ही हो | बहुतेरे भरी जवानी में बाबा बन जाते हैं | घर-बार त्याग कर, दाढी बढ़ाकर, हाथ में चिमटा धारण कर बाबा रूप धारण कर लेते हैं | अब उनके मन में संन्यास-भाव कितना होता है, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अपनी धज तो वे बाबा सरीखी बना ही लेते हैं | पर बाबा, इसमें संदेह नहीं, बुजुर्गों के लिए ही नहीं,साधु-संन्यासियों के लिए प्रयुक्त एक आदर सूचक संबोधन भी है |
जब हम अपने बाबा-परबाबा की बात करते हैं, तो स्पष्ट: हम अपने पुरुखों को सम्मान दे रहे होते हैं | बाबा के साथ जब परबाबा भी लग जाता है तो हम बाबा या परबाबा तक ही सीमित नहीं रहते | इसमें हमारे परिवार के सभी बुज़ुर्ग आ जाते हैं | पिता को अरबी भाषा में “अब्बा” और फारसी में बाबा कहते हैं | कई परिवारों में पिता के पिता को भी ‘बाबा” कहा जाता है | “आदम” तक, जिसकी हम सब औलाद माने गए हैं, ‘बाबा आदम’ कहलाते हैं |"
मुझे लगा बाबा शब्द का प्रयोग प्राकृत भाषा में तो हुआ ही होगा किन्तु
प्राकृत भाषा के कोश पाइय-सद्द- महण्णवो में भी बाबा शब्द नहीं दिखाई दिया ।
तीर्थंकर भगवंतों आचार्य परमेष्ठी के लिए प्राकृत साहित्य में भी कहीं इसका प्रयोग हुआ हो इसकी संभावना भी कम ही दिख रही है ।
जैन परंपरा में यद्यपि बाबा शब्द का प्रयोग बहुत बाद में मिलता है ,जिसपर फ़ारसी का प्रभाव दिखाई देता है ।जैसे जैन कवि बुधजन का एक काव्य है -
बाबा मैं न काहूका
बाबा! मैं न काहूका, कोई नहीं मेरा रे ।।
जैन पुराणों के हिंदी अनुवादों में पितामह के लिए बाबा शब्द का प्रयोग किया गया है किंतु इस शब्द का प्रयोग मूल में नहीं दिखा ।
यदि जैन परंपरा में यह शब्द प्रयोग है भी तो वह सामान्य अर्थों में ही है । तीर्थंकर ,वीतरागी दिगंबर संतों के लिए तो देखने में नहीं आया । प्राचीन संस्कृत मंत्रों में भी बाबा शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं दिया । किन्तु ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः बहुतायत रूप से उच्चारित हो ही रहा है । इसमें भी फ़ारसी का बाबा शब्द समाहित हो गया है । पर यह सब श्रद्धा सत्य है ।
जैन परंपरा में अतिशय क्षेत्र महावीर जी के भजनों आदि में भी टीले वाले बाबा , पदमपुरा वाले बाबा ,तिजारा वाले बाबा आदि भी स्थानीय स्तर पर थोड़ा बहुत प्रसिद्ध हैं किंतु इस संबोधन का बहुत अतिरेक नहीं है । नगर का नाम श्री महावीर जी है ,स्टेशन का नाम श्री महावीर जी है अतः मूल परंपरा पर ज्यादा बाधा नहीं आती है ,लेकिन फिर भी हमें सतर्क तो रहना चाहिए कि गुलाब बाबा, साईं बाबा आदि जैसे भ्रम आम भारतीय जनता में खड़े न हों और तीर्थंकर पद का ,नाम का ,उसके अर्थ, वैभव और अतिशय का जलवा बरकरार रहे ।
यह जिम्मेदारी भी हमें स्वयं ही बिना किसी दुराग्रह के संभालनी होगी और समय रहते अपनी चूकों को सुधारना होगा ।
श्रद्धावशात् तो मैं स्वयं भी बड़े बाबा की जय बोलता ही हूँ किन्तु मेरे मन के किसी कोने में ऐसा लगता रहता है कि मैं अपने शब्दों में ,मंत्रोच्चार में वो माहात्म्य और गरिमा प्रगट नहीं कर पा रहा हूँ जिसके कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ और संतशिरोमणि आचार्य प्रवर वास्तव में हकदार हैं ।
टिप्पणियाँ
यदि जैन समाज ने समय रहते काम नहीं किया तो हमें इसका खामियाजा भुगतना होंगा। आपका लेख अत्यंत शोध परक व प्रासंगिक है, आपकी चिंता जायज है, आपकी लेखनी को प्रणाम🙏🙏🙏👌👌👌
[3/5, 20:06] Sanjay badjatya kama: आपने अपनी लेखनी का बिल्कुल सही दिशा में उपयोग किया है। वास्तव में हम अपने वैभव को प्रदर्शित करने में शब्दों की मर्यादा को नहीं जान पाते हैं और अनायास ही जो शब्द निकल जाए वही कहने लग जाते हैं। ऐसा श्रावकों के कहने से नहीं होता है अधिकतर जो भी संबोधन दिए जा रहे हैं वे संतो के कहने पर दिए जा रहे हैं और संतों की वाणी का श्रावकों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
हमें प्रत्येक तीर्थ में नाम के अनुसार जहां भी जैन शब्द उचित लगता हो अवश्य लिखवाना चाहिए हमारे जिन मंदिरों में भी यह आवश्यक रूप से लिखना चाहिए कि यह *जैन श्रावकों के पूजन का स्थान है* । जैसा कि कामा के शांतिनाथ दिगंबर जैन दीवान मंदिर जी मैं प्रवेश करते समय मुख्य द्वार के ऊपर लिखा हुआ है। भामाशाह जैसे अनेकों दानवीर हुए लेकिन जैन शब्द ना लगाने से हमारी जैन पीढ़ी उन्हें नहीं पहचान पाई और ना ही उनके द्वारा दिए गए दान का गौरव कर पाई । अत्यंत विचारणीय मननीय और भविष्य के लिए एक नवीन परंपरा के प्रारंभ करने का विषय आपने दिया है बहुत-बहुत साधुवाद और धन्यवाद।
*संजय जैन बड़जात्या कामा*
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[3/5, 18:51] Ashokgoyal: सारगर्भित, सामयिक, उपयोगी आलेख के लिए डॉ अनेकांत जी बधाई के सुपात्र हैं।
[3/5, 18:52] Piyus jpr: सामयिक , प्रासंगिक और साहसिक लेखन के लिए ढेरों साधुवाद
[3/5, 18:52] Bhanu Shastri Khaderi: 👍👍👌👌हम सबको बहुत से बिषयों को जीवन में अपनाने योग्य कहा आपने👏👏👏
[3/5, 18:53] Vivek., phd. std: बहुत ही मार्मिक एवं संवेदनशील सभी को ध्यान देना चाहिए
[3/5, 18:55] PRAMOD JITO: सधी हुई आलोचना👏🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
[3/5, 19:05] Arvindji jaipur: मानना पडेगा कि
किसी भी बडे विषय को अहिंसक, प्रेम और सभ्य तरीके से भी समझाया या कहा जा सकता है. इसमें मेहनत अवश्य लगती है लेकिन आपका कथ्य ह्रदयाग्राही और मान्य हो जाता है.
अनेकान्तजी स्याद्वाद शैली में अनुकरणीय विवेचन करते हैं.
इसमें आपकी सुशिक्षा एवंं सुसंस्कार भी झलकते है.
👏👏👏💐💐💐
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साभार
शैलेन्द्र जैन, जयपुर
आदरणीय अग्रज प्रोफेसर श्री अनेकान्त जी के साथ भी यही हो रहा है।ए बचपन से ही एकाक्षी संस्था टोडरमल स्मारक में पढ़े-बड़े,संस्कारित हुए,बाद में इन्होंने जैनविश्व भारती लाड़नूं से Ph D की उपाधि प्राप्त की।सौभाग्य और पितृकृपा से विना संघर्ष के कम उम्र में ही प्रतिष्ठित हो गए सो स्वयं को इतना ऊंचा मान लिया कि सत्य को ही अप्रतिष्ठित करने चले।
मैंने अनेक अवसरों पर देखा कि न जाने ए क्यों बहक जाते हैं,दोनों हाथों में लड्डू के चक्कर में इन्होंने कभी तय नहीं कर पाया कि क्या करूं?
फिर ए तात्कालिक लाभ देखकर लेखनी लेकर शुरू हो जाते हैं।हालांकि मिठमोले संस्कार इनके जन्मनः हैं,सो इनकी लेखनी भी शहद लपेटी तलवार की तरह चलती है।
अपनी पत्रकारिता चमकाने,विद्वत्ता बघारने और हो सकता है कुछ ऋण उतारने अथवा किसी को खुश करने के लिए आदि जो भी कारण हों,पर इन्होंने उस शहद लपेटी तलवार से उस सत्य पर प्रहार करने का कुत्सित प्रयास किया है जो अक्षम्य है।
क्या अनेकान्त जी अपने सभी मंतव्य, विचार,कर्म, सोच और स्वार्थ को लिखने की क्षमता रखते हैं?....... नहीं न।
फिर जगत्प्रसिद्ध परम आराध्य पूज्य बड़े बाबा पर अनेक थोथे अनुमानों द्वारा भ्रम फैलाने का प्रयास क्यों किया गया।स्वार्थसिद्धि करो पर ऐसे नहीं। जैसे गंदे कपड़े को साफ करते हैं,बैसे ही आपको अपने मंतव्य को भी प्रक्षालित करना चाहिए।
शैलेश भाई आपने अनेकान्त जी को बहुत सुंदर और सटीक जबाव लिखा,एतदर्थ आपका आत्मिक आभारी हूँ।
प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन
अतः उन्हें जैनाचार्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी के संबोधन से ही संबोधित किया जाना चाहिए।
जन सामान्य की दृष्टि में बाबा का अर्थ भिक्षुक भी होता है जब भी कोई बाबा किसी के समक्ष मांगने के लिए उपस्थित होता है तो कई बार हम लोग आगे जाओ बाबा कहकर उन्हें जाने के लिए कह देते हैं। अतः ऐसे शब्द का संबोधन आचार्य श्री और ना ही भगवान की प्रतिमा के लिए कदापि नहीं किया जाना चाहिए।
हमें जैनत्व की रक्षा, गरिमा और अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए अपनी गलती और मनीषी विद्वान डॉक्टर अनेकांत कुमार जी के तर्कों को स्वीकार कर अपनी गलती सुधार लेना चाहिए।
डॉक्टर साहब ने जैन मंदिरों के संबंध में भी विचार व्यक्त करते हुए मंदिर के लिए चैत्यालय शब्द के प्रयोग पर जोर दिया है मेरी राय में चैत्यालय उस धर्म स्थल को कहा जाता है जो शिखर और कलश विहीन होता है। अतः चैत्यालय जैन धर्मावलंबियों के लिए आराधना स्थल तो है लेकिन जब तक उसे शिखर और कलश से सुशोभित न किया जाए तब तक उसे चैत्यालय ही कहा जाएगा, जबकि मंदिर शिखर सुशोभित होता है एवं शिखर पर कलश भी स्थापित होता है,यही फर्क चैत्यालय और मंदिर में होता है। हो सकता है मेरा तर्क सही ना हो। मैं न तो कोई आगम अध्येता हूं और ना ही विद्वान हूं बल्कि एक सामान्य श्रावक हूं। यदि मेरे इस आलेख में मैंने कुछ गलत लिख दिया हो तो मैं सभी से क्षमा चाहता हूं ।
डॉक्टर जैनेंद्र जैन इंदौर
मोबाइल नंबर 94 24008100
🙏👏👏👏
[3/7, 03:29] Sachin jain badaut: जय जिनेन्द्र अमित जी
संभवत आपने अनेकांत जी का लेख संपूर्ण नहीं पढा है, केवल हेडिंग पर ही ध्यान दिया है!
अनेकांत जी ने अपने लेख में भारत के संपूर्ण जैन तीर्थो पर भविष्य में होने वाले संकटों पर ध्यान दिलाया है।
नामकरण से गलतफहमी हो सकती है इस बात को लेख में रखा गया है। इसी भावना से पढा जाना चाहिए। तर्क आगम उदाहरण भी इसी बात की पुष्टि के लिए हैं। लेखक मनीषी विद्वान हैं, प्रोफेसर हैं, अन्तर्राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।
अगर हमने ऐसे मनीषियों को हतोत्साहित करेंगे तो आगम दृष्टि प्रदाता विद्वान ही नष्ट हो जायेगे।
[3/6, 21:10] Arvindji jaipur: *बडे बाबा नाम प्रकरण-*
कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र. सिद्ध क्षेत्र है या अतिशय क्षेत्र? अनेक अतिशय हुए हैं इसलिए अतिशय क्षेत्र तो है ही परन्तु श्रीधर केवली की सिद्ध भूमि होने के कारण सिद्ध क्षेत्र है यह गौण हो रहा है जबकि अतिशय क्षेत्र से सिद्ध क्षेत्र की महिमा विशेष है.
आचार्य विद्या सागरजी महाराज के कुण्डलपुर प्रवास से पूर्व ही कुण्डलपुर बडे बाबा के नाम से प्रसिद्ध रहा है. बडे बाबा नाम आचार्य श्री ने दिया है ऐसा नहीं है इसलिए बडे बाबा शब्द को आचार्य श्री से नहीं जोडना चाहिए ना यहां जोडा जा रहा है. हां बडे बाबा के कारण आचार्य श्री को छोटे बाबा नाम अवश्य मिला है. जो उनकी बडे बाबा के प्रति अनन्य भक्ति का द्योतक है.
काफी समय पूर्व कुण्डलपुर नाम के कारण बडे बाबा को भगवान महावीर मानकर दीपावली पर निर्वाण लागु का विशेष उत्सव हुआ करता था. बडी मूर्ति होने के कारण बडे कहलाते थे तथा जनमानस बाबा (कुलदेव) की मान्यता थी इसलिए जैन समाज में भी बडे बाबा प्रचलित हो गये. भगवान महावीर से आदिनाथ कैसे हो गये ये भी एक विन्दु है.
रूढ भी सत्य है परन्तु भविष्य की विसंगति की संभावना को देखते हुए अनेकान्तजी बात रखी है. उसमें ना बडे बाबा के नाम का विरोध है ना उसकी महिमा का . आचार्य श्री के विरोध की तो बात ही नही है.
नामकरण से गलतफहमी हो सकती है इस बात को लेख में रखा गया है इसी भावना से पढा जाना चाहिए. इसी द्रष्टि से मननीय है. तर्क आगम उदाहरण भी इसी बात की पुष्टि के लिए हैं. लेखक मनीषी विद्वान हैं, प्रोफेसर हैं, अन्तर्राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. अगर हमने ऐसे मनीषियों को हतोत्साहित किया तो आगम द्रष्टि प्रदाता विद्वान ही नष्ट हो जायेगे.
आचार्य श्री सभी के उतने ही पूज्य है जितने आपके ,एक विद्वान अगर कोई तर्क संगत लेख लिखता है तो आप उसे विरोध क्यों समझते है
अंत मे आपने अनेकांत जी को विरोधियो की लिस्ट में जोड़ने का भी भाव प्रगट किया ।
विद्वानों के बीच अगर तर्क न हो तो उनकी विद्वता सिर्फ चाटुकारिता बनकर रह जावेगी
अनेकांत जी के लेख में कही भी विरोध एवं निंदा नही अपितु तर्क है वह भी आगम की साक्षता के साथ ।
पुनः पड़कर विचार कीजियेगा
हमें प्रत्येक तीर्थ में नाम के अनुसार जहां भी जैन शब्द उचित लगता हो अवश्य लिखवाना चाहिए हमारे जिन मंदिरों में भी यह आवश्यक रूप से लिखना चाहिए कि यह *जैन श्रावकों के पूजन का स्थान है* । जैसा कि कामा के शांतिनाथ दिगंबर जैन दीवान मंदिर जी मैं प्रवेश करते समय मुख्य द्वार के ऊपर लिखा हुआ है। भामाशाह जैसे अनेकों दानवीर हुए लेकिन जैन शब्द ना लगाने से हमारी जैन पीढ़ी उन्हें नहीं पहचान पाई और ना ही उनके द्वारा दिए गए दान का गौरव कर पाई । अत्यंत विचारणीय मननीय और भविष्य के लिए एक नवीन परंपरा के प्रारंभ करने का विषय आपने दिया है बहुत-बहुत साधुवाद और धन्यवाद।
*संजय जैन बड़जात्या कामा*
प्रिय श्री डॉक्टर अनेकांत कुमार जैन जी,
आपका यह लेख व्हाट्स ऐप पर पढ़ने को मिला। पढ़ कर मन आंदोलित हो गया।
वर्तमान समय में जाने, अनजाने में, प्रेम वश, स्वार्थ वश, दबाव वश, अपने आपको तथाकथित उदारवादी सामाजिक कहलाने या बुद्धिजीवी कहलाने की आकांक्षा के चलते, छद्म समाजसेवी समझ के वशीभूत, छद्म समाज के उद्धारक कहलाने के लिए या कुछ नया कर दिखाने के लिए हम सभी, जिनमें मैं भी शामिल हूं, कुछ इस इस तरह की मिथ्या, गलत परंपराओं को जन्म दे देते हैं जिनका कोई आधार ही नहीं होता है। जैसे अब यह परंपरा सी बनती जा रही है बड़े बाबा और छोटे बाबा जैसे शब्दों का प्रचलन में आना। ऐसे हीऔर भी मंदिर जी के मूल नायक भगवान के नाम को बाबा जैसे शब्दों से बदल दिया जाता है। यह खिलवाड़ वास्तव में अपने अस्तित्व मूल को बदलने जैसा निरर्थक प्रयास है जो सिर्फ इस तरह है कि मैं अपने पिता का माता के मूल धर्म को ही नकार दूं।
आपने बिलकुल सही कहा की बाबा शब्द तो हमारी भाषा और संस्कृति का है ही नहीं। तो
फिर हम जैन धर्म के अनुयायी इस तरह की गलती क्यों करने लगे हैं?
कहीं यह किसी सोची समझी साजिश का हिस्सा तो नहीं है?
यह एक मानसिक दासता का हिस्सा तो नहीं होता जा रहा है?
कोई हमारे ऊपर हमारी संस्कृति को बदलने की चेष्ठा तो नहीं कर रहा है?
क्या इस सब के लिए हम स्वयं ही दोषी हैं?
आदि तीर्थंकर भगवान १००८ श्री आदिनाथ स्वामी जी को सभी बड़े बाबा संबोधित तो करने लगे हैं पर भविष्य में हो सकता है की कुंडल पुर को बाबा धाम या ऐसा ही कुछ चमत्कारिक क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध करके कोई और लोग कब्जा कर लें। तब हम क्या करेंगे।
परम पूज्य गुरुदेव प्रणम्य सागर जी महाराज ने श्री पार्श्वनाथ कथा के चलते काशी नगरी स्थित समंतभद्र स्वामी की स्वयंभू स्तोत्र की रचना कैसे हुई, का संस्मरण सुनाते हुए बताया था कि कैसे समंतभद्र स्वामी जी के मंदिर को समंतभद्रेश्वर महादेव मंदिर का नाम दिया गया था। वे स्वयं इस मंदिर को देखने गए थे। चंदा प्रभु भगवान की प्रतिमा तो वहां थी ही नहीं।
बताने की आवश्यकता नहीं है, हम सब जानते हैं कि जाने कितने ही प्राचीन जिन मंदिर हिंदू देवताओं के मंदिर बन चुके हैं। संभवतः प्राचीन समय में कुछ इस प्रकार की गलतियां हमारे पूर्वजों ने की होंगी। जो आज हम नहीं जान पाते हैं। I इनका कहीं भी इतिहास उपलब्ध नहीं है।
वर्तमान के एक प्रसिद्ध लेखक कवि, गीतकार मनोज मुंतशिर को कहते हुए सुना कि भाषा का कोई धर्म नही होता, उर्दू एक भाषा ही तो है। यदि इसके शब्दों का प्रयोग बोल चाल में किया जाए तो कुछ गलत नहीं होगा। उर्दू को कविताओं में बहुतायत में उपयोग किया जाने लगा है। यहां तक कि कुछ जैन भजन, पूजा आदि में भी उर्दू शब्दों का उपयोग किया गया है। जबकि अपनी मूल भाषा हिंदी, संस्कृत, प्राकृत आदि पहले से ही इतनी समृद्ध हैं कि किसी भी तरह से उर्दू आदि अन्यतर भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं करें तो भी अपनी रचना को सबसे अच्छी तरह से प्रस्तुत किया जा सकता है। मेरी समझ से उर्दू जैसी भाषा, जो मूल रूप से अरबी संस्कृति सभ्यता से उपजी है, एक हिंसक समाज को प्रतिबिंबित करती है, चिन्हित करती है, का उपयोग हमें अपने लेखन में, प्रतिदिन के व्यवहार में कम से कम करना चाहिए या नहीं ही करना चाहिए।
हमारी उदारवादी गलत सोच के चलते ही मुस्लिम विदेशी आतताई आक्रांता भारत के बहुत बड़े हिस्से को अपने अधिकार में करके अत्याचार कर पाए और धर्म परिवर्तन कर पाए जो आज भी हम सब भुगत रहे हैं।
इसी तरह अंग्रेजी भाषा भी हमारी संस्कृति की पहिचान है ही नहीं। यह तो हमारे देश पर जबरन थोपी गई भाषा है जो अब हमारी मजबूरी बन चुकी है। और अंग्रेजी भाषा हमारे मन मस्तिष्क पर इस बुरी तरह हावी हो चुकी है की हम स्वतंत्र होते हुए भी दास हैं।
इस तरह के लेख हमको कहीं ना कहीं सोचने पर विवश जरूर करते हैं, इसलिए आप इस तरह का लेखन करते रहिएगा। कभी तो जन जागृति आ ही जायेगी। ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।
आपका अजय कुमार जैन
जबलपुर
Santosh Jain on fb
Kanti Prabha Jain
Sanjeev Gassu Jain on Fb
Rahi baat alag alag language ki Panjabi Mai boy Ko munda kahte,and muh ko bhi Munda kahte hai Telugu mein randi ka matalab aana hota to Hindi Mai randi matlab alag hota hai, Marathi main aai ka matalab ma hota hai toh Hindi aana and English main aankh hota hai toh Marathi aai bolna band kar de,Bai ka matalab bahin bhi hota hai, Beti bhi hota hai, jaise Rani lakhsmi Bai, Meera Bai, gharo Mai kaam karne wali ladies ko bhi bai kahte to Meera Bai or kaam karne wali Bai Mai koi fark nahi hai kya
Narendra Kumar Jain on FB
Sneh guddi shah on FB
जय जिनेन्द्र
कुंडलपुर में विश्व विख्यात ऐतिहासिक महा महोत्सव सानन्द सम्पन्न होने के बाद बड़े बाबा के नाम से निर्थक विवाद के लेख की क्या आवश्यकता थी इस लेख से कहीं न कहीं आपकी ईर्ष्या कुंठा एवम कषाय ही परिलक्षित हो रही है आपने तो अपने इस लेख में पूज्यवर यतिवर आचार्यश्रेष्ठ स्वामी समन्त्रभद्र आचार्य की गाथाओं का वैसे ही अपने अनुरूप अर्थ निकाला जैसे कि पूर्व में कांजीभाई सोनगढ़ वालो ने ग्रँथराज समयसार की टीकाओं में किया था
आपको अवगत होगा कि कुछ वर्ष पूर्व आपकी ही तरह आपके टोडरमल संस्थान सहपाठी एवम दिल्ली निवासी डॉ सुदीप जैन ने सांगानेर महा महोत्सव पर अनर्गल स्तरहीन कुतर्को से युक्त प्रश्न चिन्ह लगा दिया था
मेरा निवेदन है कि यदि आपको कुंडलपुर एवम बडे बाबा छोटे बाबा के सम्बंध अपने विचार रखने थे तो आप गुरुचरणों में पहुच कर अपनी भावना व्यक्त कर सकते थे वहां शायद समाधान मिल गया होता और शायद नही मिल पाता तब आपके विचारों को कदाचित मानने का विचार किया जाता
आप पढ़े लिखे है कृपया सकारात्मक चिंतन लिखे जिससे सभी को ग्रहणीय हो आशा है सहमत होंगे
Dr JB Jain by Whatsapp
आपका
नरेंद्र कुमार जैन
न तो सारभूत है और न ही समर्थन में ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत किया गया जिससे नाम के कन्फ्यूजन में कोई तीर्थ या मूर्ति हाथ से चली गई हो।
जिन नाम बदलने की घटनाओं का संदर्भ लिया है वो कन्फ्यूजन नहीं वरन राष्ट्र भावना और साक्ष्य आधारित बदलाव है।
कृपया व्यर्थ काल्पनिक मुद्दों के स्थान पर जैन संस्कृति रक्षण के मौजूदा मुद्दों - लोकजागरण, दर्शन एवं जीवनशैली के वैज्ञानिक पक्ष - पर ध्यान दें।
उपरोक्त कथन मेरी व्यक्तिगत अपील है।
जय जिनेंद्र
अखिल बंसल ,जयपुर
चंद्रेश जैन (फेसबुक )
आपकी भाषा तो आगम प्रमाणिक ही है, अपने मन मर्जी की बात तो हम न कहते है न लिखते है बस जिनवाणी की ही बात को प्रचलित भाषा में सरल भाषा में जन-जन की भाषा में कहते और लिखते है, अपने मन मर्जी से कुछ भी लिख दें तो भय हो सकता है किंतु जब आपने हर बार तर्क और आगम प्रमाण के आधार पर लिखी है, शास्त्रों के प्रकाश में अपनी बात कही है तो चिंता कैसी।
जिनआज्ञा का उल्लघंन नहीं किया तो भय किस बात का।??
संभव जैन (फेसबुक)
प्रदीपकुमार जैन (फेसबुक)
Shri Suresh Jain IAS Bhopal
by sms
Dr Sunil Sanchay ,Lalitpur
Whatsapp
अब मैं भी जब कुंडलपुर के बारे में किसी को बताऊंगा तो कहूँगा कि वहां हमारे यानी जैनों के पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की 14 फुट ऊंची प्राचीन पद्मासन प्रतिमाजी हैं जो अब बड़े बाबा के नाम से जगतविख्यात हैं,जिसका एक देखने लायक अद्वितीय मंदिर जैनाचार्य विद्यासागर महामुनिराज की प्रेणना से बना है। अंतिम श्रुत केवली श्रीधर की निर्वाण स्थली होने,मुँहअन्धेरे से छहघडिया की चढ़ाई सहित कुंडलाकार पर्वत और तलहटी में अब लगभग 70-80 नए पुरानेमंदिरों के समूह की वंदना, वर्धमान सागर में जल मंदिर और बचपन मे अर्घ के चावल को भी वहां मछलियों को डाल देने के आनंद, और बाई के साथ बावड़ी में पानी के पास वाली निचली सीढ़ी तक जाकर पानी छानकर बावड़ी में आहिस्ता से बिलछानी देने की बाते भी साझा करूंगा। और हां शाम को चढ़के सीधे बढ़े बाबा के मंदिर में आरती के लिए जाना, .... ना ना बढ़े बाबा भगवान ऋषवदेव की आरती के लिये जाना (बस इतना ही तो आप कहना चाहते हैं��, सही है बॉस)
आपने लेख के उपसंहार में आपकी कसक दिखी। बड़े बाबा के प्रति अगाध श्रद्धा,परंतु कभी अर्थ का अनर्थ न हो जाये इसका भय। आपने भय व्यक्त करके ठीक किया, लोग भलाई-बुराई जो करें, पर सनद सबको रहेगी, और इसका अच्छा परिणाम आएगा।
देवेंद्र जैन
डॉ0 अनेकांत कुमार जैन द्वारा लिखित ‘‘कुंडलपुर के आदिनाथ या बड़े बाबा: एक पुनर्विचार’’ शीर्षक से लिखा गया लेख पढ़ा। पढ़कर प्रतीत हुआ कि आज जैनों की पहचान अत्यंत खतरे में है उसी को देखते हुए एवं उसके दूरगामी परिणामों को मद्देनजर रखते हुए लेखक ने कतिपय महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। आलेख पढ़ने से पता चलता है कि लेखक जैनधर्म की पहचान को लेकर अत्यन्त चिन्तित है। लेखक के अभिप्राय में किसी प्रकार की दुर्भावना प्रतीत नहीं होती है। इस लेख में मुख्य रूप से दो बातें विशेषकर उभरकर सामने आई हैं। सर्वप्रथम तो जैन धर्म की पहचान के बारे में चिंता प्रकट की गई है और दूसरे बिंदु के रूप में जैन धर्म की यथोचित शब्दावली के प्रयोग पर बल दिया गया है। यद्यपि यह बिंदु भी जैन धर्म की पहचान को बचाये रखने के लिए ही आया है। लेख में बताया गया है कि देव शास्त्र गुरु शब्द भी अनुचित नहीं है, तथापि आप्त, आगम और तपोभृत विशिष्ट शब्द हैं। विशिष्ट का विशिष्ट महत्व माना ही जा सकता है। इसी प्रकार कुंडलपुर के बाबा कहने पर रागियों और संसारियों का ही प्रतिबोध होता है, जबकि उनकी वीतरागता और गरिमा के अनुरूप शब्द आप्त, वीतराग, तीर्थंकर आदि पहले से ही मौजूद हैं तो क्यों ना हम उनका अधिकाधिक उपयोग करें। जिसप्रकार हम अपने बालक को घर में बड़े प्रेम से किसी भी नाम से क्यों ना बुलाते हो, लेकिन समाज में उसे उसके नाम से ही पुकारते हैं, इसी प्रकार हमें भी अपने आराध्य को उचित एवं गरिमामयी नाम से ही पुकारना चाहिए, जिससे हम अपनी पहचान बनाये रख सकें।
डॉ0 शुद्धात्मप्रकाश जैन
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैन अध्ययन केन्द्र,
के. जे. सोमैया इंस्टीट्यूट ऑफ धर्मा स्टडीज,
सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, विद्याविहार (पूर्व) मुम्बई
भरत कुमार काला बोरीवली मुम्बई प्रधान संपादक जैनगजट
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