*प्रो(डॉ) अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली*
सबसे बड़ा सिद्धांत तो यही है कि -
*तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।*
*सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता॥*
किसी भी बड़े सफल व्यक्ति से पूछें कि ये जो आप सफलता के लंबे लंबे भाषण प्रेरणा के लिए दे रहे हैं ,वो भाषण की दृष्टि से भले ही प्रभावशाली हैं पर यथार्थ क्या है ,अपनी छाती पर हाथ रखकर विचार करके अपने अनुभव को सही अभिव्यक्ति दीजिये तो अधिकांश व्यक्तिगत रूप से यही कहेंगे कि मैंने आगे का ज्यादा कभी नहीं सोचा , कभी बहुत बड़ा लक्ष्य नहीं बनाया, बस जो सामने दिखता गया उसे जैसे तैसे करके परिश्रम पूर्वक करता गया और यहां तक आ गया ।
वास्तविकता यह है कि सभी चीजों को एक ही तराजू पर तौल कर देखा नहीं जा सकता ।
शास्त्री उत्तीर्ण एक प्राच्य विद्या का विद्यार्थी अपने रोजगार के सीमित अवसरों को लेकर हमेशा चिंतित रहता है - यह एक यथार्थ है ।
शास्त्र में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले भावुकतावशात् ऐसे द्वंद्व में जीते हैं जहां परिश्रम को तो पुण्य माना जाता है किंतु पारिश्रमिक को अपराध । इसलिए मजबूरीवशात् उसे आजीविका हेतु उन क्षेत्रों में हाथ पांव मारने पड़ते हैं जिसका उसने प्रशिक्षण नहीं लिया और इसमें कोई बुराई भी नहीं है -
*अर्थार्जननिदानं च तत्फलं चायमौहत ।
निरंकुशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्त नं।।*
(क्ष.चू.3/3)
धन कमाने का कारण और उसके फल का चिंतन ,आजीविका के उपाय का चिंतन - प्रत्येक मनुष्य को सहज होता है ।
विद्वान एक स्वाभिमानी और मेहनती व्यक्तित्व होता है और उद्यमशील मनुष्य को पराधीन होकर निर्वहन करना नहीं रुचता है -
*रोचते न हि शौण्डाय परपिंडादिदीनता*
(क्ष.चू.3/4)
एक विद्वान् यह भी जानता है कि दरिद्रता से बड़ा कोई दुख नहीं है -
*दारिद्र्यादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् ।*
*अत्यक्तं मरणं प्राणै: प्राणिनां हि दरिद्रता ।।* (क्ष.चू.3/6)
किन्तु साथ में यह भी सही है कि धन के साथ तत्त्वज्ञान हो तभी सुख प्राप्त होता है -
*दुखार्थोपि सुखार्थो हि तत्त्वज्ञानधने सति।* (क्ष.चू.3/21)
अब इसके लिए ही उन संस्थाओं से ये अपेक्षा की जा रही है कि वे शास्त्र के साथ साथ विद्यार्थियों को लौकिक प्रशिक्षण भी दें ताकि शास्त्री बेरोजगार न रहे ।
सबसे पहले तो हमें बिना किसी भावनात्मक दबाव के यह विचार करना चाहिए कि इस तरह की समस्या आ क्यों रही है ?
दुनिया में प्रत्येक विद्यार्थी जो विद्या प्राप्त करता है उसे ही अपनी आजीविका का साधन बनाता है ,और इसे तब तक पाप नहीं समझा जाता जब तक वह उसमें ईमानदारी रखता है किंतु जैन विद्या और उससे संबंधित क्षेत्र में ऐसा नहीं है । अगर आप प्रवचन ,कक्षा या किसी भी अन्य सेवा के लिए अपनी फीस निर्धारित करते हैं तो उसे अच्छा नहीं समझा जाता अतः एक शास्त्री विद्वान को या तो आजीविका हेतु अन्य क्षेत्र देखने पड़ते हैं या इसी क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से आय के स्रोत तलाशने होते हैं । इसलिए ये मानदंड उसे भटकाते हैं । जैन विद्या में विश्वविद्यालय स्तर पर बहुत ही कम स्थान हैं और उन स्थानों पर भी आरक्षण नीति के कारण सामान्य वर्ग के विद्यार्थी उससे वंचित रहने को मजबूर हैं । इसलिए विद्यार्थी इस स्तर का लक्ष्य बनाने से भी डरते हैं।
इसलिए इसमें थोड़ा संतुलित विचार करने की अपेक्षा है । चिंतन को बिंदुबार प्रस्तुत कर रहा हूँ -
1.सारे संसार में भगवान महावीर के दर्शन एवं तत्त्वज्ञान को गहराई से सिखाने के लिए कुछ गिनी चुनी संस्थाएं हैं , उनमें से भी मात्र कुछ ही हैं जो वास्तविक कार्य कर रहीं हैं । उनके सीमित संसाधन हैं ,सीमित शक्ति है और काम वे दुर्लभ कर रहे हैं अतः उन्हें अपना काम करने दिया जाय । उन्हें अतिरिक्त भार देकर भटकाया न जाय ।
2.हाँ, वे संस्थाएं युगानुरूप कुछ ऐसे परिवर्तन अवश्य कर सकती हैं जिसमें विद्यार्थियों के लिए शास्त्र की प्रकृति के अनुकूल दूसरे अवसर प्राप्त हो सकें । जैसे हम अपनी संस्था में जैन दर्शन के कठिन से कठिन शास्त्रों का अभ्यास करवाएं किन्तु विश्वविद्यालय में उन्हें साहित्य,व्याकरण,ज्योतिष,दर्शन,आयुर्वेद,संगीत,कला,इतिहास,पुरातत्त्व,योग आदि अन्य शास्त्रीय विषय लेने हेतु स्वतंत्रता अवश्य दें क्यों कि इन विषयों में भी जैनाचार्यों ने बहुत कार्य किया है । जैसे कोई विद्यार्थी प्रकृति से वैयाकरण है ,उसे जबरजस्ती दार्शनिक बनने पर मजबूर मत कीजिये । नई शिक्षा नीति में वैसे भी शास्त्री,BA,BSc,Bcom जैसी डिग्रियों का भेद खत्म हो जाएगा , मात्र स्नातक कहा जायेगा और यह चार वर्ष का होगा । कोई भी विषय लेने की स्वतंत्रता होगी ।
हमें ऐसे अवसर अवश्य
निर्मित करने चाहिए ताकि समय समय पर शास्त्री अध्ययन रत विद्यार्थियों की कैरियर कॉउंसलिंग विशेषज्ञों द्वारा होती रहे । उन्हें विभिन्न क्षेत्रों का, अवसरों का ज्ञान होता रहे ।
3.लौकिक प्रशिक्षण भी विद्यार्थी अवश्य लें ,किन्तु इसके लिए समाज के ही अन्य अनेक संस्थान हैं वे अपनी प्रतिभा अनुसार वहां प्रशिक्षण अवश्य लें , कौन रोकता है ? हाँ ,यदि रोकता है तो अवश्य गलत है ।
4. प्रशासनिक IAS/PCS आदि लुभावने क्षेत्र इसलिए माने जाते हैं क्यों कि वहां अधिकार हैं , किन्तु उसके यथार्थ से भी परिचित रहें तो बेहतर होगा । अपने आप का सही आंकलन किये बिना इनकी दुरूह परीक्षाओं में नहीं जाना चाहिए । जब 1000 विद्यार्थी बर्बाद होते हैं तब 1 आईएएस बनता है । उस एक में आने की काबिलियत हो तो अवश्य प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए ।
दूसरी बात प्रशासनिक होना एक अध्यापक होने से बेहतर तो नहीं है ।
स्नातकोत्तर में अध्ययन के दौरान मेरे साथी मित्र लोक सेवा आयोग की तैयारी करते थे और मुझसे कहते थे तुम भी करो तो मैं हमेशा उनसे कहता था हाँ अवश्य करूंगा यदि अध्यापक नहीं बन सका तो । उनके लिए अध्यापक बनना प्लान B था ,मेरे लिए अधिकारी बनना प्लान B था । प्लान A के लिए
सबकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं ।हम रुतबे और अधिकार को ही कब तक मानदंड बनाकर चलेंगे ? ये एक तरह की सामंतवादी सोच है ।
"अगर मुझे ऐसी नौकरी नहीं करनी जहां मंत्रियों की गालियां सुननी पड़ें, भ्रष्टों को सलाम करना पड़े और मजबूरी में कषाय करनी पड़े तो मैं अपनी प्राथमिकताएं तय करने के लिए स्वतंत्र हूँ ,जैसे कि तुम हो ।"
- ऐसा मैं अपने मित्रों से कहता रहता था । आज भी अध्यापक रह कर मैं चाहूं तो ईमानदारी से अपना यह मनुष्य भव बिता सकता हूँ । यहाँ अधिकार भले ही न हों ,पर मेरे गुणों के आधार पर
( न कि अधिकारों के आधार पर भय जनित ) रुतबा और सम्मान पूरा रहता है जो सेवा निवृत्ति के अनन्तर घटता नहीं है अपितु बढ़ता ही है ।
5. मैंने देखा है अधिकांश विद्यार्थी शास्त्री के तीन वर्ष में समय भी बहुत खराब करते हैं । उस समय का उपयोग उन्हें अन्य हुनर विकसित करने में अवश्य करना चाहिए । इसके साथ साथ अपना कौशल विकास अवश्य करते रहें । जैसे आपको कंप्यूटर पर अच्छे से कार्य करना आना चाहिए । ऑनलाइन शिक्षण की प्रोफेशनल ट्रेनिंग अवश्य ले लें । ICT और Smart class room अब किसी भी शिक्षा जगत की नौकरी के लिए अनिवार्य योग्यता होने जा रहा है । प्रूफ रीडिंग,संपादन,प्रकाशन,सर्जनात्मक लेखन आदि की कला भी इसी दौरान विकसित करनी चाहिए ।
अपने मूल विषय के साथ साथ अन्य विषयों की जानकारी भी बहुत अच्छे से होनी चाहिए । सामान्य ज्ञान,तर्क शक्ति परीक्षण,सूचना विज्ञान,शोध प्रविधि,शिक्षा कौशल आदि विषय तो आपको प्रत्येक
प्रवेश परीक्षा या योग्यता परीक्षा या प्रतियोगिता परीक्षा के लिए तो आने ही चाहिए ।
6. अन्य किसी भी विषय में यदि आप मात्र अच्छी अंग्रेजी जानते हैं तो भी आपका बहुत बढ़िया काम हो सकता है किन्तु जैन विद्या में अच्छा कार्य करने के लिए आपको अच्छी हिंदी,संस्कृत,प्राकृत और अंग्रेजी कम से कम इन चार भाषाओं पर अच्छी पकड़ अवश्य होनी चाहिए - अन्यथा आप कोई बड़ा कार्य अच्छे से नहीं कर सकते हैं । अपने समय का उपयोग इन भाषाओं के अभ्यास में लगाना चाहिए । इसलिए जैन विद्या के लिए अन्य विषयों की अपेक्षा अधिक प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की आवश्यकता होती है ।
7. आपको पता है जैन विद्या के अनुसंधान के लिए अभी भी पूरे देश में एक भी कार्यशील बड़ा शोध संस्थान नहीं है जहां जैन विद्या एवं प्राकृत के शोधार्थियों को परियोजनाओं में संलग्न कर उनका वास्तविक उपयोग जैन अनुसंधान के विकास में किया जा सके । हाँ, इस नाम की अनेक संस्थाएं अवश्य हैं जो किस अनुसंधान में व्यस्त हैं?उन्हें स्वयं नहीं पता । समाज और सरकार दोनों को ही इसकी परवाह नहीं है । किंतु ये जो सामाजिक महाविद्यालय हैं वे तो ज्ञानमार्गी हैं , वे अपनी कार्य योजना को विकसित करके अगर अपने ही यहां ऐसी योजनाओं को विकसित करते हैं तो उन्हीं के श्रेष्ठ विद्यार्थी पूजा-पाठ को अपनी आजीविका न बनाकर अपने ही शास्त्रों की प्राचीन पाण्डुलिपियों का संपादन प्रकाशन तथा अनुसंधान कर जिनवाणी का उद्धार भी करेंगे और आत्मकल्याण भी करेंगे ।
8. यदि बहुत आर्थिक समस्या न हो तो शास्त्री करने के अनन्तर कोई प्राइवेट नौकरी नहीं करनी चाहिए ,अपना समय उच्च शिक्षा को अच्छे से प्राप्त करने और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लगाना चाहिए । अपनी योग्यताएं विकसित करनी चाहिए । शास्त्री की डिग्री सामाजिक नौकरी के लिए पर्याप्त हो सकती है , अन्य स्थानों के लिए यह मामूली डिग्री है इस बात को समझ लेना चाहिए ।
9. अनजाने ही अधिकांश विद्यार्थी भोजन और आवास सुविधा के इतने मोहताज हो जाते हैं कि आगे भी वहीं अध्ययन करना चाहते हैं जहां यह सुविधाएं मिलें । स्वयं भोजन बनाने और स्वतंत्र छात्रावास में रहने से भी व्यक्तित्व का विकास होता है ।इसलिए आप आत्मनिर्भर बने और स्वयं अपने भविष्य का निर्माण करें ।
10.भावुकता में चाहे कुछ भी कह लो । कोई भी व्यक्ति 24×7 आध्यात्मिक नहीं रह सकता,पूजा पाठ नहीं कर सकता,स्वाध्याय नहीं कर सकता उसे अन्य कार्य करने ही होते हैं किन्तु बेहतर यही है कि उन अन्य कार्यों का संपादन हम उसी सीमा तक करें ताकि मूल उद्देश्य से न भटकें ।
11.संस्थाएं अपना काम करती हैं , वे किसी का भविष्य निर्धारित नहीं करतीं , अपना भविष्य हम स्वयं चुनते हैं अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर । राष्ट्रपति कलाम के शब्दों में - " *संस्था में अपने कार्य से प्रेम करो ,संस्थाओं से नहीं । क्यों कि संस्थाएं कभी आपसे प्रेम नहीं करतीं* ।"
12.जब हमने घर परिवार तक से आसक्ति कम करने का प्रशिक्षण लिया है तब वह राग संस्थाओं से क्यों करें ? ये तो फिर भी पर हैं ।इस विचार से कार्य करेंगे तो कभी समर्पण भी कम नहीं होगा और संस्था द्वारा निकाले जाने पर दुखी भी नहीं होंगे ।
कुल मिला कर सबकुछ विद्यार्थी की स्वयं की योग्यता , प्रतिभा,परिश्रम और पुण्य पर निर्भर करता है ,अन्य संस्थाएं आदि तो निमित्त मात्र होते हैं । आप अपने उद्देश्यों के मुताबिक निमित्तों का चयन कर सकते हैं ।
*णमो जिणाणं*
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