बनारस की यादें -1
*विद्वत्ता की गरिमा*
हम बनारस की रवींद्रपुरी कालोनी में रहते थे । हमारे घर के करीब ही गोपी राधा विद्यालय के पास संस्कृत जगत के महान विद्वान पंडित बलदेव उपाध्याय जी रहते थे ।
मेरे पिताजी (प्रो फूलचंद जैन प्रेमी जी ) संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे ।
पंडित जी को अक्सर कोई जैन शास्त्र देखना होता तो पत्र वाहक के साथ एक पर्चा भेजकर पिताजी से मंगवा लेते थे ।
ग्रंथों को लाने ले जाने का यह कार्य कभी मुझे भी करना होता था ।
उनके घर के मुख्य द्वार के बाद कुछ दूरी पर एक चैनल गेट था जो हमेशा बंद रहता था । पंडित जी जल्दी किसी से मिलते नहीं थे । मैं जब भी उनके यहां गया उन्हें हमेशा स्वाध्याय और लेखन में मग्न पाया । चैनल गेट के अंदर से ही कहते जो लाये हो उसे हाथ डाल कर वहीं रख दो और जाओ ।
उनके घर के आगे एक छोटा सा बोर्ड लगा था जिसमें लिखा था मिलने का समय सायं 4 से 5 ।
इस तरह का बोर्ड मैंने दुनिया के हर प्रोफेशन में देखा था लेकिन किसी संस्कृत के विद्वान के घर पर पहली बार देखा ।
पिताजी को भी उनसे मिलना होता तो वे उस समय आनंद पार्क जाते जब वे वहां टहलने आते थे । अन्यथा पिताजी तो कहते कि उनके निश्चित समय के अलावा विश्वविद्यालय के कुलपति,जिलाधिकारी आदि भी आते तो वे मिलते नहीं थे ,उन्हें खाली हाथ जाना होता था ।
जब
पंडित जी ने सौ वर्ष की आयु पूर्ण की तब काशी की विद्वत परिषद ने सोने का मुकुट पहना कर उन्हें सम्मानित किया और स्वयं को धन्य माना ।
प्रो अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली
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