*वैसाखी को पैर न समझें*
*डॉ अनेकान्त जैन*,नई दिल्ली
एक बड़े विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर जो कि स्वयं जैन हैं और बुंदेलखंड से हैं , बुंदेलखंड की जैन सामाजिक धार्मिक स्थिति पर डाटा एकत्रित करके एक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने लिखा है कि 75℅ बुंदेलखंड के जैन युवा धर्म में कोई रुचि नहीं रखते ।
पता नहीं आप इन आंकड़ों से कितने सहमत हैं ?
यदि धर्म का गढ़ समझे जाने वाले इस क्षेत्र की यह स्थिति है तो अन्य प्रदेश की क्या हालत होगी विचारणीय है ।
कल श्रुत पंचमी पर ऑनलाइन और ऑफ लाइन हज़ारों कार्यक्रम हुए ,
मैंने कुछ परिचित उन जैन इंजीनियर,डॉक्टर और अन्य विद्यार्थियों से जो दिनभर इंटरनेट पर मशगूल रहते हैं , शाम को यूं ही पूछ लिया कि आज जैन परंपरा का कौन सा उत्सव है तो वे अवाक रह गए ।
एक दो ने तो यह कह दिया कि आज महावीर जयंती है ।
इससे यह पता लगा कि समाज में पढ़े लिखे मूर्ख युवाओं की कमी नहीं है जिन्हें निज संस्कृति धर्म और सभ्यता का बोध तो दूर लगाव तक नहीं है ।
यदि सच्चे आंकड़े एकत्रित किये जायें तो हमें पता लगेगा कि हमारा धुंआधार प्रचार भी मात्र 10% जैनों पर ही असर डालता है ,वो भी सिर्फ उनपर जो स्वयं पहले से रुचि वंत हैं , नए रुचिवन्त पैदा करने का कार्य जो साक्षात शिविरों और कक्षाओं से होता है ,दुर्भाग्य वश वह अभी नहीं हो पा रहा है ।
ऑनलाइन शिक्षण की उपयोगिता मात्र इतनी है कि न मामा से काना मामा अच्छा ।
शिक्षण संस्थाएं अब इसी में अपना भविष्य देखने लगीं हैं , बिना यह विचारे कि आपदकाल के धर्म को राज धर्म घोषित नहीं किया जाता । दुर्घटना में एक पैर की हड्डी टूट जाने पर चलने के लिए वैसाखी बहुत उपयोगी होती है लेकिन पैर ठीक होने पर भी वैसाखी लगाए रहना बुद्धिमानी नहीं है ।
ऑनलाइन शिक्षण को लेकर
हमारी स्थिति तो न न करके प्यार तुम्हीं से कर बैठे ,जैसी होती जा रही है ।
लगभग
दो साल बाद जब स्कूल कॉलेज ठीक से खुलेंगे तो वहां आधे अंधे और बहरे छात्र पढ़ने पहुंचेंगे और माइग्रेन और स्पोंडलाइटिस से पीड़ित शिक्षक पढ़ाने पहुंचेंगे ।
डर है कि
कहीं यह ऑनलाइन शिक्षण की अत्यधिकता भावी पीढ़ी में ऑनलाइन तो छोड़ो साक्षात शिक्षण के काबिल भी न छोड़े ।
हम इसमें अवसर देख रहे हैं बिना यह विचार किये कि इसका स्वास्थ्य पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
विचार तो करना पड़ेगा ।
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