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दिगम्बर जैन मुनियों के मूलसंघ का इतिहास : एक झलक

*दिगम्बर मुनियों के मूलसंघ का इतिहास : एक झलक*

1.भगवान् महावीर के निर्वाण के 162 वर्ष बाद अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु ( प्रथम )  के समय ( 527+162 ) अर्थात् 364 BC को दिगंबर श्वेतांबर का भेद हुआ ।

2. उसके बाद दिगंबर परंपरा में 10 देशपूर्व धारी मुनि हुए - विशाख,क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन,विजय, बुद्धिल,गंगदेव और सुधर्म । भद्रबाहु ( प्रथम ) के बाद इन सभी का कुल समय 183 वर्ष रहा ।

3. सुधर्म के बाद पांच मुनि 11अंग के धारी हुए - नक्षत्र,जयपाल,पांडु,ध्रुवसेन,कंस । इनका कुल समय 220वर्ष तक रहा ।

4. कंस के बाद चार मुनि एक अंगधारी ( आचरांगधारी ) हुए - सुभद्र,यशोभद्र,भद्रबाहु ( द्वितीय ) ,लोहाचार्य ( लोहोर्य ) । इनका कुल समय 118 वर्ष का रहा ।

यहां तक अर्थात्
162+183+220-118=683 वर्ष , अर्थात्  महावीर निर्वाण ( 527BC ) से 683 वर्ष  अर्थात् 156 AD  तक दिगंबर मुनि संघ एक रहा , उनके कोई भेद नहीं हुए थे ।

अर्थात् लोहाचार्य तक दिगंबर परंपरा में गण,कुल,संघ की स्थापना नहीं हुई थी । भगवान् महावीर का मूल संघ एक ही था ।

आचार्य शिवगुप्त और आचार्य अर्हद्वली के समय नवीन संघ और गण की स्थापना हुई ।आचार्य धरसेन और माघनंदी आचार्य अर्हद्वली के समकालीन थे  ।

आचार्य अर्हद्वली ने सितारा जिले  ( महिमा नगर  ) ( आंध्र प्रदेश) में एक विशाल यति सम्मेलन किया जिसमें 100-100 योजन तक के यति ( मुनि ) आकर सम्मिलित हुए । यह पञ्च वर्षीय युग प्रतिक्रमण था । काल के प्रभाव से मुनियों में अपने अपने शिष्य, संघ के प्रति स्वाभाविक रूप से पक्षपात जागृत हो गया था । आगे जाकर यह कहीं और विकार का कारण न बने अतः उन्होंने नंदी आदि अनेक अवांतर संघों में संघ को स्वतः ही विभाजित कर दिया । अतः निम्नलिखित संघ बन गए -  नंदी , वृषभ , सिंह देव,काष्ठा,वीर,अपराजित, पंच स्तूप , सेन, भद्र, गुण धर , गुप्त , चन्द्र ।

इसमें नंदी संघ आचार्य माघनंदी ,आचार्य कुंदकुंद,आचार्य उमास्वामी तक चला । ये वही मूल संघ था जो 156 AD  तक रहा ।

दिगम्बर श्रमण परंपरा में आ रही अनियमितता को सुधारने के लिए तथा मूल स्वरूप की रक्षा के लिए विशुद्धता वादी मुनियों ने जिस आंदोलन को चलाया उसे ही मूल संघ संज्ञा से कहा गया ।

इसके पुरोधा *आचार्य कुंदकुंद* बने ।आचार्य कुंदकुंद ने मूल स्वरूप को बचाने के लिए अष्ट पाहुड जैसे ग्रंथों का प्रण यन किया । इसलिए आज तक आचार्य कुंदकुंद की आम्नाय प्रसिद्ध है और मंगलाचरण में अन्य प्राचीन आचार्यों की अपेक्षा आचार्य कुंदकुंद को इसलिए स्मरण किया जाता है क्यों कि उन्होंने मूल स्वरूप की रक्षा में विशेष योगदान किया था ।

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