आधुनिक संदर्भ में ‘सामायिक’ की उपादेयता
'सामायिक’ जैनधर्म की एक मौलिक अवधारणा है जिसमें संपूर्ण जैन दर्शन का सार समाहित है। यदि यह पूछा जाए कि एक शब्द में भगवान् महावीर का धर्म क्या है तो इसका उत्तर होगा—‘सामायिक’। प्राचीन काल से ही ही ‘सामायिक’ करने की परम्परा संपूर्ण जैन समाज में चली आ रही है। दिगम्बर हो या श्वेताम्बर; गृहस्थ हो या मुनि सामायिक का महत्त्व प्रत्येक स्थल पर है।
मुनियों के छह आवश्यकों में ‘सामायिक’ प्रथम आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘‘समणो समसुह दुक्खो’ (प्रवचनसार गाथा १/४ कहकर समण का लक्षण ही सुख और दु:ख में समभाव रहने वाला किया है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में समण का लक्षण करते हुए, अपराजितसूरि ने कहा—
‘समणो समानमणो समणस्स भावो सामण्णं क्वचिदप्यनगुगतरागद्वेषता
समता सामणशब्देनोच्यते। अथवा सामण्णं समात।’ अर्थात् ‘जिनका मन सम है वह समण तथा समण का भाव ‘सामण्णं’ (श्रामण्य) है। किसी भी वस्तु में राग—द्वेष का अभाव रूप समता ‘सामण्णं’ शब्द से कही जाती है। अथवा सामण्णं को समात कहते हैं।
मात्र मुनि ही नहीं वरन् गृहस्थ भी मुनियों की तरह सामायिक धारण करता है और समस्त सावद्य योग से रहित, समता में स्थित सामायिक करने वाला गृहस्थ भी उतने क्षण मुनि सदृश हो जाता है। इसकी चर्चा भी जैनाचार्यों ने स्थान—स्थान पर की है। आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि सामायिक आश्रित गृहस्थ चारित्र मोहोदय के सद्भाव में भी महाव्रती मुनि के समान होता है—
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य।।
(पुरुषार्थसिद्धयुपाय—श्लो. १५०)
र्काितकेयानुप्रेक्षा में भी ‘‘जो कुव्वादि साइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव।।’’ (गाथा—३५७) कहकर यही भाव प्रकट किया गया है। आचार्य बट्टकेर मूलाचार (१/२३) में लिखते हैं कि जीवन—मरण, लाभ—हानि, संयोग—वियोग, मित्र—शत्रु, सुख—दु:ख आदि में रागद्वेष न करके समभाव रखना समता है और इस प्रकार के भाव को सासामायिककहते हैं।
सामायिक की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए केशववर्णी ने लिखा है ‘सम’ अर्थात् एकत्व रूप से आत्मा में ‘आय’ अर्थात् आगमन को समाय कहते हैं। इस दृष्टि से परद्रव्यों से निवृत्त होकर आत्मा में प्रवृत्ति का नाम समाय है। अथवा ‘स’ अर्थात् समरागद्वेष से अबाधित मध्यस्थ आत्मा में ‘आय’ उपयोग की निवृत्ति समाय है। यह प्रयोजन जिसका है वह सामायिक है।
(गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीव त. प्र. टीका गाथा ३६८)
उत्तराध्ययन के एक प्रश्नोत्तर में कहा है—जीव को सामायिक से क्या प्राप्त होता है ? इसके उत्तर में कहा है—सामायिक से जीव सावद्य योगों (असत् प्रवृत्तियों) से विरति को प्राप्त होता है।
(उत्तराध्ययन २९/८)
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा कि चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह ‘साम्य’ है और मोह क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम भाव ही ‘साम्य’ है। आत्मा की इसी अवस्था को सामायिक कहते हैं।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।
(प्रवचनसार, १/७)
संपूर्ण व्याख्याओं का सार यही है कि सभी सावद्ययोग से रहित होकर, राग—द्वेषादि विकारों से परे आत्मा का साम्यभाव में स्थिर होना ही सामायिक कहलाता है। जयधवला में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन चार प्रकारों से सामायिक के भेद किया है। (जयधवला १/१/१, प्र. ८१)। भगवती आराधना में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से तथा एक स्थल पर मन, वचन और काय—इन तीन भेदों से सामायिक के भेद माने हैं। (भ. आ. वि. टीका गाथा—११६) इस प्रकार प्रकारान्तर से और भी प्रभेद मिल जाते हैं। किन्तु यदि गहराई से विचार करें तो हम पायेंगे इन भेदों के मूल में भी बाह्य निमित्तों की अपेक्षा ही मुख्य है। अन्तरंग निमित्त तो यहाँ एक आत्मपरिणति ही है। कब कब सामायिक करना चाहिए इसका उल्लेख भी शास्त्रों में कई प्रकार से प्राप्त होते हैं।
आवश्यकसूत्र में उल्लिखित सामायिक पाठ
उच्चारण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस विषय पर शोधकार्य करके पर्याप्त दृष्टियों को सामने लाया जा सकता है। यहाँ मैं सामायिक के मात्र कुछ संदर्भ ही उल्लिखित कर रहा हूँ क्योंकि सामायिक विषय पर प्राचीन दिगम्बर—श्वेताम्बर आगमों का अध्ययन तथा उन पर शोधकार्य कर एक पूरे शोध प्रबन्ध की भी रचना हो सकती है और संभवत: हुई भी है। शास्त्रों में सामायिक के अतिचारों का भी उल्लेख है, मैं उस विस्तृत व्याख्या में भी नहीं जा रहा हूँ।
इस संदर्भ में मेरा मात्र यही कहना है कि सामायिक के पाठ आज हिन्दी तथा संस्कृत में भी उच्चरित होने लगे हैं। मेरा मानना है कि सामायिक पाठ मूल प्राकृत भाषा में ही होने चाहिए। भाषा का अपना एक महत्त्व होता है। प्राकृत जैनों के मूल आगमों की भाषा है। हम भले ही हिन्दी, संस्कृत या अंग्रेजी में उनके अर्थ श्रावकों को समझायें ताकि आत्महत्या तक कर लेते हैं यह किसी से छुपा नहीं है।
जैनधर्म की ‘सामायिक’ व्यक्ति को खुद से जुड़ने का मौका देती है। खुद से खुद की मुलाकात का मौका देती है ‘सामायिक’। ‘सामायिक’ का अभ्यास करने वाले का आत्मबल इतना मजबूत हो जाता है कि वह किसी भी परिस्थिति में अपना संतुलन नहीं खोता। इस प्रकार का आत्म विजयी व्यक्ति पूरे विश्व पर सफलता की विजय पताका फहरा सकता है।
आज नयी पीढ़ी धार्मिक क्रियाओं के नाम से घबराती है। सम्प्रदायाओं की व्याख्याओं से उसका कोई लेना देना नहीं है। महानगरों में, विदेशों में प्रतिदिन देवदर्शन करना एक बहुत बड़ी समस्या है। आज की इस भागदौड़ वाली जिन्दगी में कोई एक स्थान पर बैठकर दो घड़ी यदि अपनी आत्मा और परमात्मा का स्मरण कर ले तो समझिए बहुत बड़ी सफलता मिल गयी है।
यदि हम सामायिक के उद्देश्य, स्वरूप को सुरक्षित रखते हुए नयी सामायिक को विकसित करें तो आधुनिक युग का श्रावक धर्म से जुड़ा रहेगा, अपनी आत्मा से जुड़ा रहेगा, अपने जीवन मूल्यों को सुरक्षित रख सकेगा। तनाव और अशांति के इस माहौल में भी वह हर परिस्थिति पर विजय प्राप्त करके आत्मकल्याण का मार्ग भी प्रशस्त कर सकेगा।
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
अध्यक्ष -जैनदर्शन , श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
(मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ल— १६
, ९७११३९७७१६
अनेकान्त शोध पत्रिका अक्टू. दिसम्बर. २०१० पृ० ४२ से ४६ तक प्रकाशित
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