अहिंसा, जैनधर्म और इस्लाम
-डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है। मुहम्मद अली की पुस्तक 'Religion of Islam' में इस शब्द की व्याख्या बताई गई है। इस्लाम शब्द का अर्थ है- ‘शान्ति में प्रवेश करना’। अतः मुस्लिम व्यक्ति वह है, जो ‘परमात्मा पर विश्वास और मनुष्यमात्र के साथ पूर्ण शांति का संबन्ध’ रखता हो। इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा- वह धर्म, जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है और मनुष्यों के प्रति अहिंसा एवं प्रेम का व्यवहार करता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में इस्लामधर्म की विशेषताओं पर व्यापक प्रकाश डाला है।
इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब
माने जाते हैं, जिनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् ५७० ई. में हुआ था और मृत्यु सन् ६३२ ई. में हुई। इस्लामधर्म के मूल कुरान, सुन्नत और हदीस नामक ग्रन्थ हैं। कुरान वह ग्रन्थ है, जिसमें मुहम्मद साहब के पास खुदा के द्वारा भेजे गये संदेश संकलित हैं। सुन्नत वह है, जिसमें मुहम्मद साहब के कार्यों का उल्लेख है और हदीस वह किताब है, जिसमें उनके उपदेश संकलित है।
कुरान में प्रेम और अहिंसा से सम्बन्धित अनेक सन्देश हैं। इकबाल की पुस्तक 'Secret of the self'२ की भूमिका मे लिखा है- नबी ने कहा है, ‘तखल्लिक्-बि-इखलाकिल्लाह’ अर्थात् अपने भीतर परमेश्वर के गुणों का विकास कर। खुदा बन्दों को प्यार करता है और वे उसे प्यार करते हैं इसलिए उसका नाम वदूद (प्रेमी) भी है।’’ - यह कुरान का ही वचन है।
हदीस का वचन है कि ‘‘ईमान की ७० शाखाएँ हैं। सबसे ऊँची यह कि अल्लाह को छोड़कर किसी की इबादत मत करो और सबसे नीची यह कि जिन बातों से किसी का नुकसान होता हो, उन्हें छोड़ दो।’’
कुरान का फातिहा नामक अध्याय बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से यह कर्मफल के विवेचन का अध्याय है, इसमें प्रत्येक मुसलमान का ध्यान हर रोज पांच बार दिलाया जाता है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कर्मफल पर विश्वास दृढ़ होने पर आदमी दुष्कर्मों को छोड़ देता है। कुरान कहता है- ‘‘अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम अवश्य मिलेंगे। जिसने भी,कण मात्र भी सुकर्म किया है, वह उसे अपनी आंखों से देखेगा; जिसने ककण मात्र भी दुष्कर्म किया है वह भी उसे अपनी आँखों से देखेगा। जिसने भी कण मात्र भी सुकर्म किया है, वह भी उसे अपनी आँखों से देखेगा;
इस्लाम दर्शन में ग्यारहवीं शती में एक प्रख्यात चिंतक हुए ‘अबुल अरा’ (सन् १०५७) अबुल अरा आवागमन के सिद्धान्त के विश्वासी थे। शाकाहारी तो थे ही, दूध, मधु और चमड़े का व्यवहार भी नहीं करते थे। पशु-पक्षियों के लिए उनके मन में दया थी। वे ब्रह्मचर्य और यतिवृत्ति का भी पालन करते थे।
इस्लाम की मान्यता है कि जगत मे जितने भी प्राणी हैं, वे सभी खुदा के ही बन्दे और पुत्र हैं। कुरान शरीफ के प्रारंभ में अल्लाताला का विशेषण ‘विस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीमि’ है, जिसका अर्थ है, खुदा दयामय है अर्थात् खुदा के मन के कोने-कोने में दया का निवास है।
मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी हजरत अली ने मानवों को संबोधित करते हुए कहा - हे मानव! तू पशु -पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत बना।’’ अर्थात् तू माँस का भक्षण मत कर। इसी प्रकार ‘ दीन-ए-एलाही’ विचारधारा के प्रवर्तक सम्राट अकबर ने कहा- मैं अपने पेट को दूसरे जीवों का कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहता।’’ यदि किसी की जान बचाई तो मानों उसने सारे इन्सानों की जिन्दगी बख्शी है। कुरान शरीफ का वाक्य है - व मन् अह्या हा फकअन्नम् अह्यन्नास जमी अनः’।
कुरआन में अहिंसा सम्बन्धी आयतें -
मुझे कुरान देखने एवं पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। मक्तबा अल-हसनात, रामपुर (उ.प्र.) से सन् १९६८ में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कुरआन मजीद, जिनके मूल संदर्भों का प्रयोग मैंने किया है, को ही मैंने पढ़ा है। इसी ग्रन्थ से मैंने कुछ आयतें चयनित की हैं जो अहिंसा की भावना को व्यक्त करती हैं। प्रस्तुत हैं वे चयनित आयतें -
१. अल्लाह ने काबा को शान्ति का स्थान बनाया है। (२८:५७)
२. नाहक खून न बहाओ और लोगों को घर से बेघर मत करो। (२:८४)
३. दूसरे के उपास्यों को बुरा न कहो। (६:१०८)
४. निर्धनता के भय से औलाद का कत्ल न करो। (१७:३१)
५.नाहक किसी को कत्ल न करो। मानव के प्राण लेना हराम है। (१७:३३)
६. यतीम पर क्रोध न करो। (९३:९)
७. गुस्सा पी जाया करो और लोगो को क्षमा कर दिया करो। (२:१३४),(२४:२२)
८. बुराई का तोड़ भलाई से करो। (१३:२२), (२८:५४,५५), (४१:३५)
९. कृतज्ञता दिखलाते रहो। (१४:७)
१०. सब्र करना और अपराध को क्षमा करना बड़े साहस के काम हैं। (४२:४३)
११. दो लड़ पड़ें तो उनमें सुलह-सफाई करा दो। (४९:९,१०)
१२. दुश्मन समझौता करना चाहे तो तुम समझौते के लिए हो जाओ। (८:६१)
१३. जो तुमसे न लड़ें और हानि न पहुँचाये उससे, उसके साथ भलाई से व्यवहार करो। (६०:८)
अहिंसा के प्रायोगिक रूप -
मुस्लिम समाज में मांसाहार आम बात है। किन्तु ऐसे अनेक उदाहरण भी देखने में आये हैं जहाँ इस्लाम के द्वारा ही इसका निषेध किया गया है। इसका सर्वोत्कृष्ट आदर्शयुक्त उदाहरण हज की यात्रा है। मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से इसका वर्णन साक्षात् सुना है तथा कई स्थानों पर पढ़ा है कि जब कोई व्यक्ति हज करने जाता है तो इहराम (सिर पर बाँधने का सपेâद कपड़ा) बाँध कर जाता है। इहराम की स्थिति में वह न तो पशु-पक्षी को मार सकता है न किसी जीवधारी पर ढेला फेक सकता है और न घास नोंच सकता है। यहाँ तक कि वह किसी हरे-भरे वृक्ष की टहनी पत्ती तक भी नहीं तोड़ सकता। इस प्रकार हज करते समय अहिंसा के पूर्ण पालन का स्पष्टविधान है। ‘इहराम की हालत में शिकार करना मना है’।
इतना ही नहीं, इस्लाम के पवित्र तीर्थ मक्का स्थित कस्बे के चारों ओर कई मीलों के घेरे में किसी भी पशुपक्षी की हत्या करने का निषेध है। हज-काल में हज करने वालों को मद्य-मांस का भी सर्वथा त्याग जरूरी है। इस्लाम में आध्यात्मिक साधना में मांसाहार पूरी तरह वर्जित है, जिसे तकें हैवानात (जानवर से प्राप्त वस्तु का त्याग) कहते हैं।
डॉ. कामता प्रसाद लिखते हैं ‘म जरदस्त ने ईरान में पशुबलि का विरोध कर अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा की थीं ईरान के शाहदरा के पाषाणों पर अहिंसा का आदेश अंकित कराया था। त तेजमशेद नामक स्थान पर एक लेख आज भी मौजूद हैं। आज भारत में भी ऐसे अनेक उदहारण हैं। कर्नाटक राज्य में गुलबर्गा में अल्लन्द जाने के मार्ग में चौदहवीं शताब्दी में मशहूर दरवेश वाजा वन्दानवाज गौसूदराज के समकालीन दरवेश हजरत शारुव्रुâद्दीन की मजार के आगे लिखा है- ‘‘यदि तुमने मांस खाया है तो मेहरबानी कर अन्दर मत आओ’’
इसके अलावा कई मुस्लिमसम्राटों ने जैनों के दशलक्षण-पर्युषण पर्व पर कत्लखानों तथा मांस की दुकानों को बन्द रखने के आदेश भी दिये हैं। जिसके प्रमाण मौजूद हैं।
सारांश के रूप मे कह सकते हैं कि इस्लाम में सदगुण (Virtue) और दुर्गुण (Vice) का स्पष्ट विवेचन हुआ है। इस धर्म ने ईश्वर में विश्वास करने, धर्मपथप्रदशकों के विचारों पर आस्था रखने, निर्धनों और दुर्बलों के प्रति दयाभाव रखने की सीख दी है। इससे स्पष्ट है कि इस्लाम परम्परा में उन तत्त्वों की अवहेलना की गई है, जिनसे हिंसाभाव की उत्पत्ति या वृद्धि होती है और उन तत्त्वों को अपनाया गया है, जिनसे अहिंसाभाव की पुष्टि होती है एवं अहिंसा का विकास होता है। यदि हम वास्तव में विश्व शांति और भाई-चार स्थापित करना चाहते हैं तो हमारा यह कत्र्तव्य होना चाहिए कि मजहबों के उन बिन्दुओं को उजागर करें जिनमें अहिंसा, प्रेम, बन्धुत्व आदि की चर्चा है तथा प्रायोगिक उदाहरण हैं, न कि सिर्पâ उन्हें जिनके कारण हमारे कटु अनुभव जुड़े हैं।
सूफी दर्शन और अहिंसा -
इस्लामधर्म के अन्तर्गत ही सूफी संप्रदाय भी विकसित हुआ है। सुफियों का मानना है कि मुहम्मदसाहब को दो प्रकार के ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुए थे- एक ज्ञान को उन्होंने कुरान के द्वारा व्यक्त किया और दूसरा ज्ञान, उन्होंने अपने ह्रदय में धारण किया। कुरान का ज्ञान, विश्व के सभी व्यक्तियों के लिए प्रसारित किया गया, जिससे वे सद्ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को पावन बनायें। दूसरा ज्ञान, उन्होंने अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को ही प्रदान किया। वह ज्ञान अत्यन्त रहस्यमय था, वही सूफीदर्शन कहलाया। कुरान का किताबी ज्ञान तो ‘इल्म-ए-शाफीन’ और हार्दिक ज्ञान ‘इल्म-ए-सिन’ कहलाता है।
सूफीदर्शन का रहस्य है-
परमात्मा- सम्बन्धी सत्य का परिज्ञान करना। परमात्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिए सांसारिक वस्तुओं का परित्याग करना। जब परमात्म-तत्त्व की अन्वेषणा ही सूफियों का लक्ष्य रहा है तो हिंसा-अहिंसा का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हिंसा-अहिंसा का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हिंसा-अहिंसा का प्रश्न वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ किसी के प्रति रागभाव का प्राधात्य हो और किसी के प्रति द्वेष की दावाग्नि सुलग रही हो; वहीं हिंसा का प्राधान्य रहता है।
सूफी सम्प्रदाय
सूफी सम्प्रदाय में प्रेम के आधिक्य पर बल दिया गया है। वे परमात्मा को प्रियतम मानकर सांसारिक प्रेम के माध्यम से प्रियतम के सन्निकट पहुंचना चाहते हैं। उनके अनुसार मानवीय प्रेम ही आध्यात्मिक प्रेम का साधन है। प्रेम परमात्मा का सार है। प्रेम ही ईश्वर की अर्चना करने का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोंत्कृष्ट रूप है।
इस प्रकार सूफी संप्रदाय में, प्रेम के रूप में अहिंसा की उदात्त भावना पनपी है। प्रेम के विराट रूप का जो चित्रण सूफी संप्रदाय में हुआ, वह अद्भुत है।
यदि हम सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो पाएँगे कि इस्लामिक विश्वास, वचन और कर्मकाण्ड (Practice), इसके बाहरी रूप हैं, जबकि इसका आंतरिक रूप सूफीमत है; अतः जनसाधारण का नीतिगत विचार भी सामाजिक और व्यवाहारिक नियमों के अंतर्गत पाया जाता है, पर इसका आंतरिक रूप सूफी विचारों में ही देखा जाता है।
जहाँ तक सूफी मत का प्रश्न है, उसमें आत्म-विकास (Development of the Soul) का पाठ सिखाया गया है। इसमें बहुत ऊँचे आंतरिक आचार की बातें बताई गयी हैं। इस्लाम के अनुसार सच्चा जेहाद तो अपनी शारीरिक तृष्णाओं अथवा वासनाओं के विरुद्ध करना चाहिए। अध्यात्म की दृष्टि से सूफी अहिंसा के अधिक करीब दिखायी देते हैं।
इस्लाम और जैनधर्म-
भारत सदाकाल से अहिंसा, शाकाहार, समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है, उसकी कोशित रही है कि सभी जीव सुख से रहें, जिओ और जीने दो- जैनधर्म का मूलमंत्र है। जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से मुल्क के तथा विदेशी मुल्को के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘विश्ववाणी’ के यशस्वी संपादक पूर्व राज्यपाल तथा इतिहास विशेषज्ञ डॉ. विशम्बरनाथ पाण्डेय ने अपने एक निबन्ध ‘अहिंसक परम्परा’ में इस बात का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि-
इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है, उनसे यह स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दी में और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्य-पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है। प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान व्रेमर के अनुसार ‘मध्य-पूर्व’ में प्रचलित ‘समानिया’ संप्रदाय ‘श्रमण’ शब्द का अपभंरश है इतिहास लेखक जी.एफ.मूर के अनुसार ‘हजरत’ ईसा की संख्या शताब्दी से पूर्व इराक, शास और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों तरफ पैâले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे, ये साधु वस्त्रों तक का त्याग किये हुये थे, अर्थातवे दिगम्बर थे।
सियाहत नामए नासिर का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा। कलन्दरों की जमात परिव्रजकों की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में नहीं रहता था। कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे- साधुता, सत्यता और दरिद्रता। वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे।
डॉ. कामता प्रसाद जैन अपने एक निबन्ध ‘विदेशी’ संस्कृतियों में अहिंसा में लिखते हैं कि मध्यकाल में जैन दार्शनिकों का एक संघ बगदाद में जम गया था। जिसके सदस्यों ने वहाँ करुणा और दया, त्याग और वैराग्य की गंगा बहा दी थी। सिहायत नामए नासिर के लेखक की मान्यता थी कि इस्लाम धर्म के कलन्दर तबके पर जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। वे लोग अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अहिंसा का पालन करते थे, ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं। श्री विशम्बरनाथ पाण्डेय लिखते हैं कि एक बार दो कलन्दर मुनि बगदाद में आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुर्मुर्ग किसी का हीरों का हार निगल गया। सिवाय कलन्दरों को किसी ने यह बात नहीं देखी। हार की खोज हुई। कोतवालों को कलन्दर मुनियों पर संदेह हुआ। मुनियों ने मूक पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। उन्होंने स्वयं कोतवालों की प्रताड़ना सहन कर ली लेकिन शुतुर्मुर्ग के प्राणों की रक्षा की।
डॉ. कामता प्रसाद लिखते हैं कि अलविद्या फिर्वेâ के लोग हजरत अली की औलाद से थे- वे भी मांस नहीं खाते थे और जीव दया के पालते थे। ई. ९वीं-१०वीं शती में अब्बासी खलीफाओं के दरबार में भारतीय पण्डितो और साधुओं को बड़े आदर से निमंत्रित किया जाता था। इनमें जैन बौद्ध साधु भी होते थे। इस सांस्कृतिक संपर्वâ का सुफल यह हुआ कि ईरान में अध्यात्मवाद जगा और जीव दया की धारा बही।
वे लिखते हैं कि प्राचीनकाल में अफगानिस्तान तो भारत का ही एक अंग था और वहाँ जैन एवं बौद्ध धर्मों का प्रचार होने से अहिंसा का अच्छा प्रचार था। ई. ६वी-७वीं शताब्दी में चीन यात्री हुएनसांग को वहाँ अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे।
अरब का उल्लेख
अरब का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। भारत से अरब का व्यापार चलता था। जादिस अरब का एक बड़ा व्यापारी था- भारत से उसका व्यापार खूब होता था। भारतीय व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की मूर्ति अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता। जादिस भी प्रभावित हो पूजा करने लगा। मौर्यसम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणों, भिक्षुओं के विहार की व्यवस्था अरब और ईरान में की, जिन्होंने वहां अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरब जैनी हो गये, किन्तु पारस नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु और श्रावक भारत चले गये। ये लोग दक्षिण भारत में बस गये और ‘सोलक’अरबी जैन कहलाये।
वे आगे लिखते हैं कि - सन् ९९८ ई. के लगभग भारत से करीब बीस साधु सन्यासियों का दल पश्चिम एशिया के देशों में प्रचार करने गया। उनके साथ जैन त्यागी भी गए, जो चिकित्सक भी थे। इन्होंने अहिंसा का खासा प्रचार उन देशों में किया। सन् १०२४ के लगभग यह दल पुनः शान्ति का संदेश लेकर विदेश गया और दूर-दूर की जनता की अहिंसक बनाया। जब यह दल स्वदेश लौट रहा था, तो इसे अरब के तत्त्वज्ञानी कवि अबुल अला अल मआरी से भेंट हुई। जर्मन विद्वान प्रâान व्रेâगर ने अबुल-अला को सर्वश्रेष्ठ सदाचारी शास्त्री और सन्त कहा है।
अबुल-अला गुरू की खोज में घूमते-घामते जब बगदाद पहुंचे, तो बगदाद के जैन दार्शनिकों के साथ उनका समागम हुआ था और उन्होंने जैनशिक्षा ग्रहण की थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अबुल अला पूरे अहिंसावादी योगी हो गये। वे केवल अन्नाहार करते थे। दूध नहीं लेते थे, क्योंकि बछड़े के दूध को लेना पाप समझते थे। बहुधा वे निराहार रहकर उपवास करते थे। कामता प्रसाद लिखते हैं कि वे शहद और अण्डा भी नहीं खाते थे। पगरखी लकड़ी की पहनते थे। चमड़े का प्रयोग नहीं करते थे। नंगे रहने की सराहना करते थे, सचमुच वे दया की मूर्ति थे।
इस प्रकार जैनधर्म दर्शन ने जलालुद्दीन रूमी एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियों के विचारों को प्रभावित किया। जीव दया का यह चिंतन कुरान मजीद से भी प्रकट हुआ है। पार - १२ सत्ताइसवें नूर ‘अन-नस्ल’ में २३ आयतें हैं जो मक्का में उतरी थी। उनमें एक प्रसंग बड़ा महत्त्वपूर्ण है- ‘‘सुलेमान के लिए उसकी सेनायें एकत्र की गयीं जिनमें जिन्न भी थे और मानव भी, और पक्षी भी, और उन्हें नियंत्रित रखा जाता था, यहाँ तक कि जब ये सब च्यूँटियों की घाटी में पहुँचे, तो एक च्यूँटी ने कहा : हे च्यूँटियों! अपने घरों में घुस जाओ ऐसा न हो कि सुलैमान और उनकी सेनायें तुम्हें कुचल डालें और उन्हें खबर भी न हो।
’’कुरआन मजीद, पृ. ४२४ इसी पृ. पर नीचे लिखा है कि च्यूँटियो की बात कोई सुन नहीं पाताः परन्तु अल्लाह ने हसरत सुलेमान अ. को च्यूँटियों की आवाज सुनने की शक्ति प्रदान की थी। कुरआन मजीद का यह प्रसंग इसलिए संवेदनशील है कि संसार के छोटे से प्राणी चींटी की भी ह्रदय वेदना की आवाज को सशक्त अभिव्यक्ति देकर इस ग्रंथ में उकेरा गया है। यह अहिंसक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति है। बाद में सूफी कवियों ने भी अपनी रचनाओं में उन्हीं आध्यात्मिक चेतना को आवाज दी जो जैन परम्परा की अमूल्य मौलिक धरोहर रही है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
मुर्गे जाँ अ़ज हत्से यावद रिहा, गर बतेग् लकुशी ई ़जहदा’
सारांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि संसार की प्रत्येक धर्म, संस्कृति, सभ्यताएं और दर्शन सदा से दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं। जैन संस्कृति के अहिंसावादी आचार-विचार से इस्लाम धर्म भी काफी प्रभावित हुआ। कुरआन की आयतों में तो अहिंसा, जीवदया, करुणा का प्रतिपादन तो था ही, साथ ही उदारवादी तथा व्यापक सोच रखने वाले इस्लामिक सूफियों और दार्शनिकों को जब अन्य परम्पराओं में इन अच्छाइयों का उत्कृष्ट स्वरूप दिखाई दिया तो उन्होंने उन सदगुणों को ग्रहण किया।
संदर्भः
१. कुरान मजीद, २:१/१५ २. कुरान मजीद, २७:९१ ३. दिशा बोध, कलकत्ता, अगस्त २००४, पृ. ७
-अध्यक्ष-जैनदर्शन ,श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ कुतुब इंस्ट्टीयूशनल एरिया, नई दिल्ली-११००१६
अनेकान्त (जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका)वर्ष -६५ वाल्यूम-४ अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ में प्रकाशित
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