*याद है उनकी पहली डांट* प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली मुझे स्मरण है जब मैंने स्मारक में प्रवेश किया था । न मैंने पूर्व में कोई शिविर किया था और न ही पहले कभी यहां आया था । लेकिन *भावितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र* उक्ति के अनुसार प्राचार्य आदरणीय बड़े दादा जी की अनुकम्पा से मुझे इस शर्त पर ले लिया गया कि अगला प्रशिक्षण शिविर जरूर करोगे । जब आए तब छोटे दादा जी विदेश गए हुए थे अतः बहुत समय तक बाल मन आपको ही छोटे दादा समझता रहा और लगा कि बड़े वाले तो विदेश गए हैं । किसी की कोई बात समझ में नहीं आती थी । नेमीचंद जी पाटनी जी का प्रवचन तो बिल्कुल भी नहीं । शुरू में सुनना सबकी पड़ती थी किन्तु समझ में सिर्फ दो लोग आते थे एक बड़े दादा जी के प्रवचन और दूसरा बड़ी मम्मी जी की कक्षा । साहित्य भी इनका ही इतना सरल था कि वो ही पल्ले पड़ता था । शुरू में छात्रावास में मन नहीं लगता था तो बड़े दादा और बड़ी मम्मी में ही घर देखा ,परिवार देखा , मां बाप देखे । और वैसा ही वात्सल्य देखा और वैसी ही डांट खाई । अभी शुरुआत ही थी कि एक दिन शाम को प्रवचन न सुनकर मित्र संजय के साथ मन बहलाने बिरला मंदिर चल