*क्या सभी एकान्त मिलकर अनेकान्त बन जाता है?*
-प्रो. वीरसागर जैन
अनेकांतवाद की चर्चा करते समय प्राय: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या सभी एकांतों को मिला देने से अनेकांत बन जाता है और इस प्रश्न का उत्तर विद्वानों में अंत तक मतभेदपूर्ण ही बना रहता है, कोई समाधान नहीं निकल पाता है । कुछ विद्वान कहते हैं कि हाँ, सभी एकांतों को मिलाने से ही तो अनेकांत बनता है, एकांतों के समूह को ही तो अनेकांत कहते हैं । किन्तु इसके विपरीत कुछ विद्वान कहते हैं कि नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, एकांतों को मिला देने से अनेकांत नहीं बन सकता, क्योंकि एकांत तो मिथ्या होते हैं और मिथ्याओं का समूह मिथ्या ही रहेगा, सम्यक् नहीं हो सकता, दस-दस वर्ष के दो लड़के मिलकर बीस वर्ष का एक नहीं बन सकता । दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी बात दृढ़ता से प्रस्तुत करते हैं और समर्थन में कुछ गाथा, श्लोक, उदाहरण आदि भी प्रस्तुत करते हैं । शास्त्रों में भी इन दोनों के संकेत मिल जाते हैं ।
इस प्रकार इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न के सम्बन्ध में विद्वानों तक में मतभेद बना रहता है, बात स्पष्ट नहीं होती कि आखिर सही बात क्या है । सभी एकांतों के मिलने से अनेकान्त बनता है या नहीं ।
पर्याप्त अध्ययन-मनन के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वास्तव में इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतात्मक है । अर्थात् सभी एकांत मिलकर अनेकांत बनते हैं -यह बात भी एक अपेक्षा से सत्य है और सभी एकांत मिलकर अनेकांत नहीं बनते हैं -यह बात भी एक अपेक्षा से सत्य है । दोनों में कोई दोष नहीं है । हमें बस दोनों बातों को अपनी-अपनी अपेक्षा से सावधानीपूर्वक समझना है । इस संदर्भ में आचार्य सिद्धसेन ने अपने ‘सन्मतिसूत्र’ (गाथा 1/22-24) में ‘रत्नावली’ अर्थात् हार का बहुत सुंदर उदाहरण दिया है । हमें उस पर ध्यान देना चाहिए । प्रश्न है कि क्या सभी रत्नों को एकत्रित कर देने से रत्नावली अर्थात् हार बन जाएगा ?
इसका उत्तर दोनों प्रकार से दिया जा सकता है- हाँ भी और नहीं भी । यदि सभी रत्नों को व्यवस्थित रूप से एक सूत्र में गूँथा जाएगा तो अवश्य बन जाएगा, किन्तु यदि ऐसे ही ढेर लगा दिया जाएगा, उन्हें एक सूत्र में गूँथा नहीं जाएगा तो कदापि नहीं बनेगा । वह एक ढेर तो बन जाएगा, पर उसे ‘हार’ संज्ञा प्राप्त नहीं होगी, ‘हार’ का सौन्दर्य एवं मूल्य भी प्राप्त नहीं होगा ।
ठीक इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि सभी एकांतों को मिला देने से अनेकांत बनता भी है और नहीं भी बनता है । यदि उन्हें परस्पर एक सूत्र में व्यवस्थित रूप से गूँथा जाएगा तो अवश्य ही सभी एकांतों के मिलने से अनेकान्त बन जाएगा, किन्तु यदि उन्हें परस्पर एक सूत्र में व्यवस्थित रूप से गूँथा नहीं जाएगा, ऐसे ही ढेर लगा दिया जाएगा तो फिर वह कथमपि अनेकान्त नहीं बनेगा । वह उनका ढेर तो बन जाएगा, पर उसे ‘अनेकान्त’ की संज्ञा प्राप्त नहीं होगी, अनेकान्त का सौन्दर्य एवं मूल्य भी नहीं प्राप्त होगा । यही कारण है कि शास्त्रों में इसके लिए भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द आया है- ‘समन्वय’ । ‘समन्वय’ अर्थात् सम्यक् रूप से अन्वय । कहने का तात्पर्य है कि यदि सभी एकांतों का ‘समन्वय’ किया जाएगा, सम्यक् रूप से अन्वय किया जाएगा तब तो वहाँ अनेकान्त बन जाएगा, अन्यथा यदि उनका समन्वय नहीं किया जाएगा, सम्यक् रूप से अन्वय नहीं किया जाएगा, ऐसे ही ढेर लगा दिया जाएगा तो वहाँ कथमपि अनेकान्त नहीं बनेगा, उसमें अनेकान्त का वह सौन्दर्य एवं मूल्य उत्पन्न नहीं हो सकेगा ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही बातें अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य हैं, कोई भी गलत नहीं है । सभी एकान्त मिलकर अनेकान्त बनता है -यह बात भी सत्य है और सभी एकान्त मिलकर अनेकान्त नहीं बनता है -यह बात भी सत्य है । हमें दोनों बातों को अपनी-अपनी अपेक्षा से शांतिपूर्वक समझना-समझाना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए ।
तथा यदि हो सके तो विवाद से बचने के लिए हमें ‘एकांतों का समूह अनेकान्त है’ -ऐसा कहने की बजाय ‘एकांतों का समन्वय अनेकान्त है’ -ऐसा कहना चाहिए । इससे बात भलीभाँति स्पष्ट हो जाएगी ।
किन्तु इसमें भी एक समस्या यह आती है कि हर समय हर वक्ता इतनी अधिक सावधानी से भाषा का प्रयोग नहीं कर पाता है । ऐसा ही वस्तुस्वरूप है, इसमें कुछ नहीं किया जा सकता | ‘मिलना’ शब्द के कोशग्रंथों में भी दोनों अर्थ बताए गए हैं और लोक-व्यवहार में भी बहुत प्रचलित हैं । अत: हमें ही बात को सावधानी से समझना सीखना होगा ।
ऊपर जिसप्रकार रत्नावली या हार का उदाहरण देकर बात को समझाया गया है, उसीप्रकार अन्य भी अनेक उदाहरणों से हम इस बात को आसानी से समझ सकते हैं । जैसे कि पुष्पों का समूह माला है भी और नहीं भी । यदि सभी पुष्प एक सूत्र में गुँथे हुए हैं तो वह माला है, अन्यथा नहीं है । तन्तुओं का समूह वस्त्र है भी और नहीं भी । यदि सभी तन्तु एक निश्चित व्यवस्था में गुँथे हुए हैं तो वह वस्त्र है, अन्यथा नहीं है । पाँच रंगों का समूह जैन ध्वज है भी और नहीं भी । यदि सभी रंग एक निश्चित व्यवस्था में बँधे हुए हैं तो वह जैन ध्वज है, अन्यथा नहीं है । इसी प्रकार अन्य भी अनेक उदाहरणों द्वारा बात को आसानी से समझा जा सकता है और विवाद से भी बचा जा सकता है । सभी एकांतों के मिलाने से अनेकान्त बनता है -यह कहकर हमारे पूर्वज विद्वानों ने ‘समन्वय’ की ही बात कहने की कोशिश की है और सब लोगों को परस्पर अपेक्षावाद के साथ सब बातों को समझने की पवित्र प्रेरणा दी है ।
*अनेकांतवाद का प्रयोग*
-प्रो. वीरसागर जैन
अनेकांतवाद केवल सिद्धांत की दृष्टि से ही पढ़ने योग्य नहीं है, अपितु उसका निरंतर प्रयोग भी करते रहना चाहिए, तभी उसका विशेष लाभ प्राप्त होगा। उसकी पद्धति यह है कि हम जब भी कोई बात सुनें तो एक बार उसे पलटकर दूसरी ओर से भी अवश्य देख लें, ताकि हमें उसके अपर पक्ष का भी ज्ञान हो सके। जैसे कि बाजार में फल आदि खरीदते समय हम उसे पलट कर भी देखते हैं कि वह दूसरी तरफ से भी ठीक है न, कुछ सड़ा-गला तो नहीं है। इसी प्रकार उपदेश के हर वाक्य को जो व्यक्ति पलटकर दूसरी तरफ से भी देख लेता है वह कभी धोखा नहीं खाता, उसे वस्तु के सर्वांग स्वरूप का समीचीन ज्ञान हो जाता है।
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