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वर्तमान में स्वाध्याय परम तप क्यों है ?

वर्तमान में स्वाध्याय परम तप क्यों है ?
     - प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली 

वर्तमान में पंचकल्याणक , महामस्तकाभिषेक,चातुर्मास आदि और बड़े बड़े धार्मिक आयोजन करवाना फिर भी आसान लगता है किंतु नियमित शास्त्र स्वाध्याय चलाना बहुत कठिन दिखाई देता है । 

जबकि स्वाध्याय शास्त्र सभा में कम से कम सिर्फ चार चीजें चाहिए 1. एक शास्त्र चाहिए 2.एक पढ़ने वाला 3.कम से कम दो सुनने वाले 4.सुनने सुनाने वाले की पवित्र भावना, बस ।

इसके लिए तो करोड़ो की बोली,लाखों के टेंट और स्पीकर साउंड,भोजन व्यवस्था ,पोस्टर ,बैनर,पूजन सामग्री के खर्च आदि आदि भी जरूरी नहीं होती । 

जब कि अन्य कार्यक्रम के लिए ये बहुत जरूरी और अनिवार्य हैं । फिर भी मात्र इन चार सहज चीजों का संयोग आज के समय में कितना कठिन है । यह बहुत गंभीरता से विचारणीय है । 

शायद यही कारण है कि स्वाध्याय को परम तप कहा गया है । मगर इसे 'परम' तो छोड़ो कोई सामान्य तप भी मानने को तैयार नहीं है । 

प्रसन्नता की बात है कि श्रावक के छह कर्तव्यों में 
देव पूजा- अभिषेक न हो , गुरु पूजा न हो , दान न हो तो तो थोड़ी परेशानी दिखती भी है लेकिन दुख इस बात का है कि स्वाध्याय,संयम और तप न हो तो किसी को कोई परेशानी नहीं दिखाई देती । 

खासकर
स्वाध्याय सभा न हो तो किसी को कोई परेशानी नहीं होती । परेशानी तो तब होती है जब वह हो । 

यदि किसी तरह कैसे भी करके स्वाध्याय सभा हो तो कमेटी आदि वाले भी परेशान हो जाते हैं । किससे पूछकर ये शुरू किया ? यही वाला अनुयोग या ग्रंथ क्यों पढ़ा रहे ? इसके पीछे क्या साजिश है ? ये प्रवचन में हमारी कमियां तो नहीं गिना रहे ? 
फिर ये ही क्यों पढ़ा रहे हैं ? क्या और लोग नहीं हैं ? सुनने वाले तो ज्यादा हैं नहीं फिर इसे चलाने से क्या फायदा ? ये बीस पंथ वाले हैं या तेरापंथ वाले ? 

किसी तरह किसी श्रोता की रुचि शास्त्र सुनने में हो भी जाय तो उन्हें अच्छे तरीके से भड़काने वालों की भी कमी नहीं हैं । उससे तो अच्छा तुम ये करो ,वो करो ,पहले आचरण पालो , सिर्फ सुनने से कुछ नहीं होगा - आदि आदि ।

यदि प्रवचन करने वाले विद्वान् निःस्वार्थ भाव से प्रवचन करते हैं तो उनके लिए 'ये जो शास्त्र सुना रहे हैं वो अपना पंथ फैलाने के लिए निःशुल्क प्रवचन करते हैं ,इनका ये मिशन है ,इनका या इनके गुरु महाराज का कोई हिडेन एजेंडा होगा , इन्हें किसी संस्थान या ट्रस्ट से इस कार्य के लिए पैसा मिलता होगा अन्यथा ये फ्री में इतना समय क्यों दे रहे हैं ? इनके चक्कर में मत आना ' -  और यदि कोई वक्ता सम्मान राशि स्वीकार कर ले तो 'ये तो जिनवाणी बेचते हैं' निर्माल्य का खाते हैं ,बहुत लालची हैं, बिके हुए हैं या इनसे अच्छा तो अन्य दूसरे वक्ता बोलते हैं उनसे सुना करो , या इन्हें तो कुछ आता नहीं है ,इनसे ज्यादा तो तुम जानते ही हो ....इत्यादि इत्यादि कहकर विद्वान् वक्ता की उपेक्षा और श्रोता का समर्पण कम करने की निरंतर कोशिश करते रहते हैं । वक्ता की महिमा मिटाने का पूरा प्रयास किया जाता है । 

इसके विपरीत कोई कवि या गायक लाखों रुपये लेकर भी मंच पर बैनर से नाम पढ़कर पुरानी कविता में नाम बदलकर गुरु भगवंतों की महिमा गाये , धार्मिक मंचों पर मसखरे लगा कर सबका मनोरंजन करे तो किसी को वह बिका हुआ ,लालची,निर्माल्य भोगी नजर नहीं आता है । उसके पोस्टर लगवाते हैं ,उसका सम्मान बहुमान करते हैं उसकी महिमा गाते फिरते हैं । 

इन सब बातों का सार यह निकलता है कि स्वाध्याय न ही हो तो सबसे अच्छा है , पूर्वोक्त कोई भी समस्या आएगी ही नहीं । 

यही कारण है कि नियमित तो छोड़ दीजिए ,अन्यान्य स्थानों पर तो पर्युषण दशलक्षण पर्वों पर भी अब स्वाध्याय प्रवचन नहीं होते । या होते भी हैं तो उपेक्षा भाव से सिर्फ रस्म अदायगी के लिए । उसमें भी लोगों को शाब्दिक मनोरंजन चाहिए,सास बहू के किस्से चाहिए अन्यथा तत्त्व और वैराग्य की बातें लोग सुनना भी नहीं चाहते हैं । शाम को आरती भजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दबाव बीच कुछ शास्त्र बांच लिया जाय तो बहुत बड़ी बात होती है । 

लेकिन फिर भी 
इन सब कष्टों को सहन करके भी , किसी के भड़काने पर भी न भड़कते हुए , अपने उपयोग को निर्मल रखकर , चित्त को एकाग्र करके जो जिन वचनों को अत्यंत उत्साह और प्रीति पूर्वक सुनता है वह ही स्वाध्याय जैसा परम तप कर पाता है । वह ही सम्यग्दर्शन का भी अधिकारी होता है ।

वास्तविक
स्वाध्याय में आपकी प्रशंसा नहीं होती, उल्टी आपकी कमियां गिनाई जाती हैं , आपको माला नहीं पहनाई जाती है , आपका नाम नहीं लिया जाता ,कोई विशेष सम्मान आदि नहीं किया जाता है ,कोई मान बढ़ाई नहीं होती है , कोई मसखरे नहीं लगाए जाते हैं,  मनोरंजन नहीं किया जाता है , कोई चमत्कार नहीं दिखलाया जाता है , कोई प्रलोभन नहीं दिया जाता है ...मात्र आपके हित का उपदेश और तत्त्वज्ञान दिया जाता है । यदि इन सभी सांसारिक आकर्षणों  से भी परे जाकर , शास्त्र सभा में आकर मात्र आत्म कल्याण की भावना से आप शास्त्र सुन और गुन रहे हैं तो आप वास्तव में परम तपस्वी हैं । 

स्वाध्याय की गिनती अंतरंग तप में की जाती है किंतु इसका बहिरंग तप भी कम नहीं है । 

इसीलिए स्वाध्याय को परम तप कहा गया है ।

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