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'संत निवास' - नामकरण से पूर्व जरा सोचें ?

'संत निवास' - नामकरण से पूर्व जरा सोचें ?

प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली 

अक्सर कई तीर्थों आदि धार्मिक स्थानों पर जाने का अवसर प्राप्त होता है । विगत वर्षों में एक नई परंपरा विकसित हुई दिखलाई देती है और वह है - संत निवास,संत निलय ,संत भवन , संत शाला आदि आदि नामों से कई इमारतों का निर्माण । 

हमें गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए कि हमारे साधु संत उन भवनों में मात्र कुछ दिन या कुछ माह ही प्रवास करते हैं , न कि निवास करते हैं तब अनगारी साधु संतों के आगारत्व को साक्षात् प्रदर्शित करता यह नामकरण कहाँ तक उचित है ?

फिर उसमें AC कूलर फिट करवाते हैं अन्य समय में वर्ष भर उस भवन का अन्यान्य सामाजिक कार्यों में उपयोग भी कर लेते हैं लेकिन उस भवन का नामकरण संत निवास कर देते हैं । 

यहाँ अच्छे भवन निर्माण का निषेध नहीं किया जा रहा है और न ही इस बात का निषेध किया जा रहा है कि उसमें साधु संतों का अल्प प्रवास हो ,यहाँ प्रश्न सिर्फ इतना है कि नामकरण उनके नाम पर क्यों ? 

और भी बहुत दार्शनिक और साहित्यिक नाम जैसे ' अहिंसा भवन' , ' प्राकृत भवन ' , ' समयसार भवन ', अनेकान्त भवन , तत्त्वार्थसूत्र निलय , अनुप्रेक्षा भवन, स्याद्वाद निलय आदि आदि अनेक प्रकार से नामकरण किया जा सकता है और  
अनगारी को सागारी कहने के दोष से भी बचा जा सकता है । 

यद्यपि अपरिग्रह महाव्रत के धारी वीतरागी मुनिराजों के ठहरने के एक मात्र उद्देश्य से भवनों का निर्माण भी उचित नहीं है । क्यों कि जिस प्रकार उनके निमित्त से आहार नहीं बनता उसी प्रकार वसतिका भी नहीं बनती है । 

कोई भी जैन मुनिराज उद्दिष्ट आहार और वसतिका आदि के त्यागी होते हैं । 

भगवती आराधना की टीका( गाथा 421/613/8 ) में लिखा है - 

श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देसिगमित्युच्यते। 

अर्थात् मुनि के उद्देश से किया हुआ आहार, वसतिका वगैरह को उद्देशिक कहते हैं।

पद्मपुराण (सर्ग 4/95) में एक प्रसंग आया है जहाँ मुनिराज ऋषभदेव कहते हैं - 

इत्युक्ते भगवानाह भरतेयं न कल्पते। साधूनामीदृशी भिक्षा या तदुद्देशसंस्कृता ॥

भगवान् ने कहा कि हे भरत! जो भिक्षा मुनियों के उद्देश्य से तैयार की जाती है, वह उनके योग्य नहीं है-मुनिजन उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं करते ।

यही बात आवास के लिए भी है ।

 भगवती आराधना ( विजयोदया टीका 230/443/13 ) में स्पष्ट उल्लेख है - 

...  निर्ग्रंथानामेवेति सा उद्देसिगा वसदिति भण्यते।

अर्थात् निर्ग्रंथ मुनि आवेंगे उन सब जनों को यह वसति होगी' इस उद्देश्य से बाँधी गई वसतिका उद्देशिक दोष से दृष्ट है।

अतः स्पष्ट है कि श्रावक समाज भवन आदि का निर्माण अपने लिए या समाज के लिए करता है साधु संतों के लिए नहीँ । अतः इस प्रकार का  नामकरण करके दोनों के दोषों को वृद्धिंगत करने का कोई औचित्य नहीं है । 

यह अन्य भारतीय धार्मिक परंपराओं के प्रभाव और उनके अंधानुकरण के कारण हो रहा है । वहाँ तो आलीशान होटलों के नाम तक 'संत निवास' है और उनकी ऑनलाइन बुकिंग भी होती है । 

फिर भी 
यहां सिर्फ शब्द प्रयोग के विवेक की दृष्टि से बात कही जा रही है क्यों कि अन्य परंपराओं से जैन संस्कृति का अपना एक अलग वैशिष्ट्य है । अतः जितना हो सके ,जहाँ तक हो सके अपनी शाश्वत पहचान को बचाने का प्रयास युक्ति पूर्वक अवश्य करना चाहिए । 

इस विषय पर मेरा एक प्रस्ताव है कि जहाँ जहाँ भी इस नाम से भवन निर्मित हैं वहाँ वहाँ स्वतः ही नाम परिवर्तित कर उसका नाम एक रूपता से 'प्राकृत भवन' रख देना चाहिए । इससे हमारे आगमों की भाषा ' प्राकृत' की प्रसिद्धि भी होगी और फिर प्रयोग में  यह अर्थ भी रूढ़ हो जाएगा कि जो सहज प्राकृतिक साधना करते हैं ऐसे वीतरागी साधकों के अनुकूल अल्प प्रवास का स्थान । वर्तमान समय में  संतुलन हेतु यह समाधान किया जा सकता है ।

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