तीर्थंकर भगवान् महावीर का जीवन और सन्देश
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जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें एवं
अंतिम तीर्थंकर महावीर तक तीर्थंकरों की एक सुदीर्घ परंपरा विद्यमान है । भागवत्
पुराण आदि ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि इन्हीं ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर
हमारे देश को 'भारत' नाम प्राप्त हुआ । सृष्टि के आदि में कर्म भूमि प्रारम्भ
होने के बाद यही ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम प्रवर्त्तक माने जाते हैं जिन्होंने अपनी
पुत्री ब्राह्मी को लिपि विद्या और सुंदरी को गणित विद्या सिखाकर स्त्री शिक्षा के
क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति की थी ।
इसी
परंपरा के अंतिम प्रवर्त्तक तीर्थंकर भगवान् महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी
के दिन विश्व के प्रथम गणतंत्र वैशाली गणराज्य के कुंडग्राम में ईसा की छठी
शताब्दी पूर्व हुआ था ।युवा अवस्था में ही संयम पूर्वक मुनि दीक्षा धारण कर कठोर
तपस्या के बाद उन्होंने केवलज्ञान( सर्वज्ञता ) प्राप्त किया और अहिंसा,सत्य,अनेकान्त,अपरिग्रह , सर्वोदय आदि सिद्धांतों का उपदेश देते हुए जन जन को कल्याण
का मार्ग बताया ।
उन्होंने
स्वयं कठोर तपस्या की तथा जब तक उन्हें पूर्ण ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता की प्राप्ति
नहीं हो गई ,वे मौन रहे |सर्वज्ञता –केवल्यज्ञान प्राप्त होने बाद उन्होंने
आत्मानुभूति से उत्पन्न अपने दिव्यज्ञान को सभी जीवों को सच्चे सुख का मार्ग बताने
के लिए , दिव्य ध्वनि के माध्यम से प्रगट किया,उनके प्रमुख शिष्य गणधर इंद्रभूति
गौतम ने उनके ज्ञान का भावार्थ प्रगट किया और उनके समवशरण में उपस्थित सभी भव्य
लोगों ने जीवन का सच्चा ज्ञान प्राप्त किया |
उन्होंने 72 वर्ष की अवस्था में वर्तमान के बिहार राज्य के पावापुर
क्षेत्र से कार्तिक कृष्णा अमावस्या दीपावली के दिन निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया
। उनके निर्वाण दिन से ही भारत का सर्व प्राचीन संवत 'वीर निर्वाण संवत् ' भी तब से ही विख्यात हुआ ।
तीर्थंकर भगवान् महावीर ने 'अप्पा सो परमप्पा ' कह कर बिना किसी भेद भाव के प्रत्येक जीव और आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बताया ।
किसी
भी जीव को किसी भी प्रकार से कष्ट पहुंचाना या उसका विचार भी करना महापाप है
- ऐसा भगवान् महावीर का अहिंसा का
सिद्धांत पूरी दुनिया के लिए एक महान संदेश है ।
उनका
मानना था कि मांसाहार मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा कलंक है ।अपना पेट भरने के लिए
किसी भी प्राणी को मारना सबसे बड़ा पाप है । हमें मांसाहार न करना चाहिए , न करवाना चाहिए और न ही किसी भी रूप में इसका समर्थन करना
चाहिए ।
शुद्ध
आचार विचार और शाकाहार के सिद्धांत को जन जन तक पहुंचा कर उन्होंने प्रत्येक
मनुष्य के जीवन को कल्याणकारी बनाने का महान कार्य किया और इसका बहुत व्यापक
प्रभाव आज भी विद्यमान है ।
वे
कहते थे जीवन में सच्चा विश्वास, श्रद्धा
(सम्यग्दर्शन) ,
सच्चा ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) ,सच्चा आचरण ( सम्यग्चारित्र) ये तीनों सबसे बड़े रत्न हैं । वे इसे रत्नत्रय
कहते थे । मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के लिए ये तीनों चीजें जरूरी हैं । अकेली
श्रद्धा,अकेला ज्ञान या इन दोनों
के बिना अकेला आचरण मनुष्य की आत्मा का सही विकास नहीं कर सकता । आचरण में
अहिंसा,
विचारों में अनेकांत,वाणी में स्याद्वाद और जीवन में अपरिग्रह –इस प्रकार का चिंतन ही एक स्वस्थ्य व्यक्ति और शांतिपूर्ण समाज के लक्ष्य को
पूरा कर सकता है |
आज भी
उनकी परंपरा के अनेक आचार्य ,उपाध्याय,मुनि,आर्यिका,साधु एवं साध्वी निरंतर तपस्या पूर्वक बिना किसी वाहन का
प्रयोग किये नंगे पैर पद विहार करते हुए देश के नगर नगर गांव गांव में जीवन मूल्य,धर्म एवं संस्कृति की अलख जगाते हुए राष्ट्र उद्धार का
कार्य कर रहे हैं ।
भगवान्
महावीर का अनेकान्त-स्याद्वाद का सिद्धांत
हम सभी को विरोधियों के भी साथ अहिंसक रूप से कैसे रहा जाता है और उनसे कैसे संवाद
किया जाता है - यह सिखलाता है । 'जिओ और जीने दो'- जैसा सर्वकल्याणकारी नारा देने वाले महावीर कहते थे कि यदि
पृथ्वी पर शांति से रहना है तो हमें प्रत्येक जीव के अस्तित्व को सुरक्षित रखना
होगा । सह अस्तित्व की अवधारणा ही मनुष्य को महाविनाश से बचा सकती है ।
भगवान्
महावीर ने भारतीय धर्म दर्शन और संस्कृति के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया और
वीतराग भाव से संसार में रहकर दूसरों के कल्याण के साथ साथ स्वयं भी संसार से ऊपर
उठकर आत्मानुभूति प्राप्त कर आत्मकल्याण करने की कला स्वयं जी कर सिखलाई ।
उन्होंने
एक प्रामाणिक और आदर्श मनुष्य के निर्माण के लिए पञ्च अणुव्रत (अहिंसा ,सत्य
,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) की अवधारणा प्रस्तुत की | वे कहते थे कि यदि
मनुष्य व्रतों का छोटा रूप भी पाल ले तो उसका और समाज का विकास हो सकता है |
भगवान् महावीर ने तत्कालीन लोक भाषा प्राकृत में अपने कल्याणकारी उपदेश इसलिए दिए ताकि आम जनता इस ज्ञान को समझ सके और अपना कल्याण कर सके।
उनकी
वाणी आज भी हज़ारों प्राकृत आगमों के रूप में उपलब्ध है जिसे जिनागम कहा जाता है ।
बाद में इसी प्राकृत भाषा से भारत की अन्य अनेक भाषाओं का विकास भी हुआ ।
भगवान्
महावीर का मानना था कि सभी जाति और वर्ग के लोगों को धर्म करने और उसके द्वारा
आत्मविकास करने का अधिकार है । जैन शास्त्र पढ़ें तो उससे पता लगेगा कि भील और
चांडाल जैसे अज्ञानी जीव भी धर्म की शरण पा कर अपना उद्धार कर गए ।
उन्होंने
तत्कालीन भारतीय धर्म तथा समाज में व्याप्त हिंसा , छुआछूत,
जातिवाद आदि कुरीतियों की समीक्षा की और प्रत्येक वर्ग को
धर्म और संस्कृति से जोड़ा और सर्वप्रथम अहिंसक राष्ट्र निर्माण का मार्ग
प्रशस्त किया ।
आज
धर्म ,सम्प्रदाय ,जाति आदि को लेकर पूरा विश्व हिंसा पर उतारू हो जाता है ।
जब मनुष्य मनुष्य का
दुश्मन हो रहा है तो अन्य जीवों के प्रति करुणा का भाव कैसे आएगा ? हिंसा,आतंकवाद और
प्रदूषण समाज और जीवन के लिए नासूर बन गए हैं ।
ऐसे
वातावरण में भगवान् महावीर के सिद्धांतों और उनके द्वारा बताई गई जीवन शैली पर
चलकर हिंसा,पर्यावरण प्रदूषण , आतंकवाद , महामारी,युद्ध आदि
अनेक वैश्विक समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है ।
अतः
आवश्यकता है कि महावीर को समझा जाए ,उन्हें समझाया जाय और उन्हें जिया जाय ।
10 Principles of Teerthankar Mahaveera
1.अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है |
Non-violence is the greatest religion.
2.प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है और किसी पर निर्भर नहीं है |
Every soul is free and not dependent on anyone else.
3.हमें प्रत्येक के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम अपने
प्रति चाहते हैं |
We should treat everyone the way we want them to be.
4.मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ ,सभी जीव मुझे क्षमा करें |मेरी सभी से मैत्री है ,किसी से बैर भाव नहीं है |
I forgive all living beings, forgive me all beings. I have amity with all and enmity with none.
5.शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और विश्व एकता के लिए अनेकांत का सिद्धांत सर्वोत्तम साधन है |The principle of Anekant (non-absolutism)is a great instrument to peaceful co‑existence and unity in the world.
6.सत्य और वास्तविकता को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने पर ही समझा जा सकता है | कोई भी एक दृष्टिकोण सम्पूर्ण सत्य नहीं है | अतः दूसरों के दृष्टिकोण का सम्मान करें |
Truth and reality can be understood only by looking at them from different perspectives. No one viewpoint is completely true. So respect the point of view of others.
7.भगवान् जगत का कर्ता नहीं है ,वह सिर्फ जानता और देखता है |
God is not the doer of the world, he only knows and sees. 8.जीव की सबसे बड़ी भूल अपने वास्तविक रूप को ना पहचानना है, और यह केवल स्वयं को जानकर ही ठीक की जा सकती है।
The greatest mistake of a soul is non-recognition of itself and can only be corrected by recognizing itself.
9.सभी जीव अपनी ही भूलों की वजह से दुखी हैं, और वे खुद अपनी भूल सुधार कर सुखी हो सकते हैं।
All living beings are miserable due to their own faults, and they can attain happiness by correcting these faults.
10. आसक्ति ही परिग्रह है और सभी दुखों की जड़ है |
Attachment is the possession and the root of all suffering.
प्रो अनेकान्त कुमार जैन (राष्ट्रपति सम्मानित)
आचार्य - जैनदर्शन विभाग,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीयसंस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली
Ph.9711397716
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