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भारतीय भाषाओं की जड़ों को बचाने का प्रयास होना चाहिए


भारतीय भाषाओं की जड़ों को बचाने का प्रयास होना चाहिए


प्रो अनेकान्त कुमार जैन 
आचार्य - जैनदर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली 


दिनाँक 21-23 मार्च 2023 तक भारतीय भाषा समिति (शिक्षा मंत्रालय) एवं श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में प्राकृत भाषा विभाग द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय प्राकृत कार्यशाला में परिचर्चा में भाग लेने के अनंतर कुछ चिंतन स्वरूप निष्कर्ष बिंदु निम्नलिखित प्रकार से समझ में आये हैं -

1. भारतीय भाषाओं को सुरक्षित रखने का एक कारगर तरीका है उसकी जड़ों को सुरक्षित करना । 

2. निश्चित रूप से भारत की लगभग सभी भाषाओं की जड़ सर्वप्राचीन प्राकृत और संस्कृत भाषा में सन्निहित हैं ।

3.संस्कृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन में जैनाचार्यों का महनीय योगदान रहा है और वर्तमान में लगभग सभी परंपराएं संस्कृत भाषा का यत्किचित संरक्षण और संवर्धन कर भी रहीं हैं किंतु प्राकृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए वो प्रयास अभी तक नहीं हो सके जो होने चाहिए थे ।
4. भारत सरकार की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इस समस्या को समझा और संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन को भी अपने महत्त्वपूर्ण एजेंडे में सम्मिलित किया । 

5. भारत में अनेक भाषाएं और बोलियां हैं किन्तु उन सभी का केन्द्र बिन्दु उद्गम स्थल एक ही है और वो है स्वाभाविक बोलचाल से आई भाषा - प्राकृत । प्राकृत भाषा जो आरम्भ से ही मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति के लिए स्वाभाविक रूप से स्वयं प्रकट हुई ।
6. अतिप्राचीन काल से जनभाषा के रूप में प्रचलित प्राकृत भाषा के मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री,पैशाची,अपभ्रंश आदि रूपों से होती हुई वर्तमान भारत में जो भाषा और बोलियों की धारा बह रही है उसका मूल प्राकृत भाषा में खोजा जा सकता है।
 
7.भाषा वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ●महाराष्ट्री प्राकृत से
मराठी और कोंकणी,●मागधी प्राकृत की पूर्वी शाखा से बंगला,उड़िया तथा असमिया, ●मागधी प्राकृत से बिहारी, मैथिली, मगही और
भोजपुरी,●अर्द्धमागधी प्राकृत से पूर्वी हिन्दी-अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी,●शौरसेनी प्राकृत से बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा,बांगरू,हिन्दी,●नागर प्राकृत से राजस्थानी, मालवी, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी तथा गुजराती, ●पालि प्राकृत से सिंहली और मालदीवन , टाक्की या ढाक्की से लहँडी या पश्चिमी पंजाबी, ●शौरसेनी प्रभावित टाक्की से पूर्वी पंजाबी,ब्राचड प्राकृत से सिन्धी भाषा (दरद); पैशाची प्राकृत से कश्मीरी
भाषा का विकास हुआ है।

8.भाषाओं के सम्बन्ध में यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भाषा की स्थिति विभिन्न युगों में क्षेत्रीय प्रभाव से परिवर्तित होती रही है। भावों के संवहन के रूप में जनता का झुकाव जिस ओर रहा, भाषा का प्रवाह उसी रूप में ढलता गया।
9. प्राकृत भाषा भारोपीय परिवार की एक प्रमुख एवं प्राचीन भाषा है| प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल में वैदिक भाषा का विकास तत्कालीन लोकभाषा से हुआ। प्राकृत भाषा का स्वरूप तो जनभाषा का ही रहा। प्राकृत एवं वैदिक भाषा में विद्वान् कई समानताएँ स्वीकार करते हैं।इससे प्रतीत होता है कि वैदिक भाषा और प्राकृत के विकसित होने से पूर्व जनसामान्य की कोई एक स्वाभाविक समान भाषा रही होगी जिसके कारण इसे 'प्राकृत' भाषा का नाम दिया गया।

10. मूलतः प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्
अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्" है। १० वीं शती के
विद्वान् कवि राजशेखर ने प्राकृत को 'योनि' अर्थात् सुसंस्कृत साहित्यिक
भाषा की जन्मस्थली कहा है।
रुद्रटकृत काव्यालंकार में भाषाओं के भेदों के सम्बन्ध में कहा गया है - "प्राकृत-संस्कृत-मागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च।
षाष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंश:।।२/१२ ॥

11.महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार
किया है। गउडवहो में वाक्पतिराज ने कहा भी है -
सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एक्तो य णेंति वायाओ।
एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाईं।।९३॥
अर्थात् 'सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और से ही (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।'
हो जाता है। तात्पर्य यह है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, अपितु सभी भाषायें इसी प्राकृत से ही उत्पन्न हैं।
हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की मान्यता है कि
'प्राकृत' नाम से जो भाषा आज जानी जाती है, वह साहित्यिक भाषा है किन्तु एक मूल प्राकृत भाषा भी थी, जो संस्कृत से भी प्राचीन है। यह मूल प्राकृत जनभाषा थी और इसी ने साहित्यिक प्राकृत को जन्म दिया तथा यही भाषा बाद में अपभ्रंश कहलाई। 

12. प्राकृत भाषा अपने लौकिक साहित्य एवं आगम ग्रंथो के कारण सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक तो है ही, साथ ही भारतीय संस्कृति की अनमोल विरासत भी है ।
इस प्रकार आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती,मराठी आदि अनेक भाषाओं के विकासक्रम को जानने के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। प्राकृत भाषा के शिक्षण, अध्ययन एवं विकास से देश की विभिन्न भाषाओं के प्रचार-प्रसार एवं भाषा को भाषावैज्ञानिक अध्ययन को बल मिलेगा । 

13.जिस प्रकार संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी,फ्रेंच,जर्मन आदि भाषाओं का विद्यालय में प्रारम्भिक अध्ययन करवाया जाता है उसी प्रकार  "प्राकृत भाषा" का भी अध्ययन करवाया जाना चाहिए जिससे भारत वर्ष की अतिप्राचीन प्राकृत भाषा की मूल विरासत देश की भावी पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित रह सके। हमें ये हमेशा याद रखना होगा कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था कि "प्राकृत भाषा के अभ्यास के बिना भारत के इतिहास का ज्ञान अधूरा है।
14. विशेष अध्ययन एवं अनुसंधान के लिए प्राकृत भाषा अनुसंधान केंद्र की पृथक और स्वतंत्र केंद्र के स्थापना की आवश्यकता है । 

15.भारत की जनता में प्राकृत भाषा के प्रति जागरूकता के लिए कक्षा 6 से लेकर 12 वीं तक के अनिवार्य हिंदी विषय की किताबों में प्राकृत भाषा के परिचय संबंधी अध्याय जुड़वा कर इस भाषा का महत्त्व समझाने का कार्य अवश्य होना चाहिए ।

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
बहुत सुंदर व्याख्या
बेनामी ने कहा…
अत्यन्त पठनीय प्राकृत विषयक शोधालेख। पूज्य गुरुवर को सादर नमन।

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