सम्मेद शिखर में ‘सम्मेद’शब्द का अर्थ विमर्श
प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली©
सम्मेद शिखर की चर्चा आज अपने चरम
पर है | कई स्थलों पर यह भी पूछा जा रहा कि इस शब्द का अर्थ क्या है ? अतः मैं कुछ
रिसर्च के माध्यम से इस शब्द का अर्थ खोजने और बताने का एक विनम्र प्रयास कर रहा
हूँ | सम्मेद शिखर में शिखर शब्द स्पष्ट है गिरी या पर्वत ,इसके लिए जैन साहित्य
में सम्मेद शैल शब्द भी आया है और उसके बाद शिखर शब्द का प्रयोग है ,ऐसा लगता है अंग्रेजों
के बाद से ही इसे पार्श्वनाथ हिल भी कहा जाने लगा है |
इसका जो पूर्ववर्ती पद है - सम्मेद
,इस पर विमर्श करना आवश्यक है |काफी विमर्श के बाद हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर
पहुंचे हैं –
1.सम्मेद शब्द भी इस पर्वत की
भांति अनादि से है और जो इसकी संज्ञा के रूप में जुड़ा हुआ है,अतः यह संज्ञा भी
शाश्वत है |मूलतः यह नाम निक्षेप ही प्रतीत होता है ,इसके शाब्दिक अर्थ की मीमांसा
मुझे अभी तक कहीं देखने में नहीं आई है,लगता है अनादि नाम निक्षेप होने से और आर्ष
प्रयोग होने से इसकी शब्द मीमांसा को आवश्यक नहीं समझा गया |
2.सम्मेद शब्द का एक लोक प्रचलित रूढ़ अर्थ है ‘सबसे ऊँचा’ जिसे समभिरूढ़ नय से सही कहा जा सकता है |इसी तरह google में भी इसका अर्थ समता का शिखर किया गया है जिसे इसी नय से स्वीकार किया जा सकता है और चूँकि सम्मेद शिखर की सबसे ऊँची चोटी तीर्थंकर पार्श्वनाथ की टोंक है और वे समता की प्रतिमूर्ति थे ,उन्होंने कमठ के उपसर्ग को कई जन्मों तक समता पूर्वक सहा इसलिए भी उनके कारण यदि इस भाव पक्ष को लेकर इसे समता का शिखर कहकर परिभाषित किया जाय तो कोई हर्ज नहीं है |
3. संस्कृत के प्रामाणिक कोशों में
‘सम्मेद’ शब्द उल्लिखित नहीं हैं अतः यह मूलतः प्राकृत भाषा का शब्द है |
3. लगभग 1-3 शती के आगम साहित्य
में प्राकृत भाषा में इसके दो –तीन रूप मिलते हैं – सम्मेद ,संमेय और संमेअ
,जो कि लगभग एक हैं, आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य यतिवृषभ (तिलोयपण्णत्ति) सम्मेद शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि पाइय-सद्द-महण्णव जैसे प्राकृत कोश(पृष्ठ ८५०) में ‘संमेअ’(संमेत)शब्द दिया है | नायाधम्मकहाओ ‘सम्मेय’ शब्द मिलता है |
6. संस्कृत में मेदिनी शब्द है
जिसका अर्थ पृथ्वी ,जमीन ,भूमि या मिटटी होता है ,इस नाम का एक कोश भी है | सम्
उपसर्ग लगाने पर सम्मेदनी शब्द बन सकता है ,जहाँ सम्
का अर्थ सम्यक् ,शुद्ध या पवित्र हो सकता है अर्थात् सम्यक् पृथ्वी ,पवित्र पृथ्वी
या भूमि जहाँ से बीस तीर्थंकर सहित करोड़ों मुनि मोक्ष गए |हो सकता है बाद में
बोलते बोलते सम्मेदनी में से अंत के ‘नी’ का लोप हो गया हो और ‘सम्मेद’ शब्द रह
गया और प्रसिद्ध हो गया |
7. प्राकृत
और संस्कृत के कोश में एक ‘मेय’ शब्द प्राप्त होता है जिसका एक अर्थ होता
‘ज्ञेय’-अर्थात जानने योग्य और दूसरा अर्थ है नापने योग्य | प्रथम अर्थ ‘ज्ञेय’ को
देखें तो ‘सम्मेय’ अर्थात सम्यक् प्रकार से जानने योग्य ,या
सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने योग्य ,या केवलज्ञान प्राप्त करने योग्य ,चूँकि इस शिखर
से कोड़ाकोडी मुनि मोक्ष गए , हो सकता है उन मुनियों में से कई ने यहीं से केवल ज्ञान भी प्राप्त किया हो अतः यह अर्थ भी
हो सकता है किन्तु सम्यक् प्रकार से जानने योग्य अर्थ भी महत्त्वपूर्ण है क्यों कि
प्रत्येक जैन को यहाँ का ज्ञान होना चाहिए और वंदना करके ज्ञान लेना चाहिए |
8. दूसरे अर्थ पर दृष्टिपात करें
तो चूँकि यह पर्वत पहले और ज्यादा ऊँचा था अतः सम्यक् प्रकार से नापने (वंदना करने
)योग्य को ‘सम्मेय’
कहा गया हो ,क्यों कि आज भी हम साधारण भाषा में कहीं आने जाने को भी दूरी
नापना कहते हैं |
9. प्राकृत और संस्कृत के कोश में एक ‘समवेत ’ शब्द प्राप्त होता है,जिसका अर्थ होता है एक साथ ,बड़ी संख्या में समाविष्ट या सम्मिलित | प्राकृत में शौरसेनी में ‘त’ को ‘द’भी होता है ,और सामान्य प्राकृत में उसका लोप होकर ‘अ’ भी बचता है ,तथा ‘अ’ की ‘य’ श्रुति भी होती है | अतः यदि समवेत शब्द का प्राकृत रूपांतरण करें तो समवेद, समवेअ,और समवेय ये तीनों बन सकते हैं, ‘व’ का लोप करके ,फिर बोलते बोलते ‘म’ का अनुस्वार या द्वित्व होने में ज्यादा समय भी नहीं लगता अतः ‘सम्मेद’, ‘सम्मेय’ या ‘संमेय’ कहा जाने लगा हो तो आश्चर्य नहीं है |परंपरा प्राप्त शब्द होने से पूज्यपाद आदि आचार्यों ने संस्कृत में भी ‘सम्मेद’ शब्द का ही प्रयोग किया है | किन्तु जिनप्रभसूरी(13-14 शती ) ने संस्कृत में लिखे विविधतीर्थकल्प में ‘संमेत’शब्द का प्रयोग किया है जिसमें ‘त’ का परिवर्तन भी नहीं किया गया |
10. सम्मेद शब्द का यदि समवेत(एक
साथ ,बड़ी संख्या में समाविष्ट या सम्मिलित) अर्थ किया जाय तो उसका अर्थ होगा ऐसा
शिखर जहाँ मुनि समवेत रूप से तपस्या करते हैं और समवेत रूप से मोक्ष जाते हैं और
आगम प्रमाण यह कहता है कि जिस जिस समय जो 20 तीर्थंकर मोक्ष गए वे अकेले नहीं गए
बल्कि भिन्न भिन्न संख्या में हजारों मुनि उनके साथ समवेत रूप से मोक्ष गए – जब यह
अर्थ मुझे भासित हुआ तो मुझे बहुत आनंद आया और मुझे इस अर्थ की संगति भी सबसे
ज्यादा दिखाई दी |
मेरा मानना है कि यदि और अधिक
अनुसन्धान किया जाय तो अधिक निष्कर्ष सामने आ सकते हैं ,मेरी अल्पबुद्धि में ये
भावार्थ ध्यान में आये तो मैंने
‘अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम ।
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥‘
के आधार पर सम्मेद शिखर के प्रति
अपनी अगाध भक्ति के वशीभूत होकर ही यह विचार प्रस्तुत किया है |धन्यवाद
©आचार्य – जैनदर्शन विभाग ,श्री
लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली -16
email-drakjain2016@gmail.com
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