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दीपावली पर्व वीतराग का या वित्तराग का ?


*दीपावली पर्व वीतराग का या वित्तराग का ?*

प्रो.अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली
drakjain2016@gmail.com

पर्वों के देश भारत में दीपावली ऐसा पवित्र पर्व है जिसका सम्बन्ध भारतीय संस्कृति की लगभग सभी परम्पराओं से है |

भारतीय संस्कृति के प्राचीन जैन धर्म में इस पर्व को मनाने के अपने मौलिक कारण हैं |

ईसा से लगभग ५२७  वर्ष पूर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के समापन के समय प्रत्यूष बेला में स्वाति नक्षत्र के रहते जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का वर्तमान में बिहार प्रान्त में स्थित पावापुरी से निर्वाण हुआ था। 

तिलोयपण्णत्ति में आचार्य यतिवृषभ(प्रथम शती)लिखते हैं –

कत्तिय-किण्हे चोद्दसि,पज्जूसे सादि-णाम-णक्खत्ते ।
पावाए णयरीए,एक्को वीरेसरो सिद्धो ।।  ( गाथा १/१२१९ )

अर्थात्  वीर जिनेश्वर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के प्रत्यूषकाल में स्वाति नामक नक्षत्र के रहते पावानगरी से अकेले ही सिद्ध हुए। 

पूज्यपाद स्वामी (छठी शती )निर्वाण भक्ति की आंचलिका में लिखते हैं-

अवसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए,अट्ठमासहीणे वासचउक्कमि सेसकालम्मि 
पावाए णयरीए कत्तिए मसस्स किण्हचउदसिए रत्तिए सादीए णक्खते,पच्चूसे भगवदो महदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिं गदो ।

भारत की जनता  ने  प्रातः काल जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढा कर पावन दिवस को उत्साह पूर्वक मनाया । यह उत्सव आज भी अत्यंत आध्यात्मिकता के साथ देश विदेश में मनाया जाता है |

इसी दिन रात्रि को शुभ-बेला में भगवान महावीर के प्रमुख प्रथम शिष्य गणधर गौतम स्वामी को केवल ज्ञान रुपी  लक्ष्मी की प्राप्ति हुई  | मूल रूप से ब्राह्मण कुल में जन्में इंद्रभूति गौतम गणधर भगवान ही महावीर के मुख्य ग्यारह गणधरों में सबसे प्रथम स्थान पर थे | जब महावीर भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था तो उनके प्रवचन कई महीनों तक प्रारम्भ नहीं हुए |पता चला कि भगवान की वाणी को समझ कर सबको समझा सके ऐसा एक भी पात्र शिष्य उनकी सभा में नहीं है |इंद्रभूति गौतम वैदिक विद्वान थे वे जब अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान की सभा में पधारे तभी महावीर भगवान ने प्रवचन प्रारंभ किया | इंद्रभूति गौतम दीक्षित हो गए और उन्होंने सभी जीवों को महावीर के उपदेशों का मर्म समझाया | इंद्रभूति गौतम स्वामी का उपकार मानकर आज भी उनकी पूजा अर्चना जैन मंदिरों में और घर घर में होती है |

 दिवाली के दिन ही रात्रि में इन इंद्रभूति गौतम स्वामी को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी | जिसके उल्लास में ज्ञान के प्रतीक के रूप में  निर्मल प्रकाश से समस्त लोक को प्रकाशित करती हुई ज्ञान की प्रतीक दीप मालिकायें प्रज्वलित कर भव्य-दिव्य-उत्सव दीपावली के रूप में मनाया जाता है ।

आचार्य जिनसेन स्वामी(9 वीं शती) लिखते हैं - 

ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात्, प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते ।
समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।।

अर्थात्

उस समय से लेकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध [दीपमालिका] के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् भगवान् के निर्वाणकल्याणक की स्मृति में दीपावली पर्व मनाने लगे।

          इसी दिन से कार्तिक शुक्ल एकम् से नवीन संवत्सर का शुभारम्भ हो कर यह श्री वीर निर्वाण संवत् के नाम से प्रचलित भी  हुआ।

कत्तिसुल्लपडिवदाए देविहिं गोयमस्स कया पूया ।
णूयणवरसारंभो वीरणिव्वाणसंवच्छरो  ।।
अर्थात्
अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को देवों ने भगवान् गौतम की पूजा की और इसी दिन से वीर निर्वाण संवत् और नए वर्ष का प्रारंभ हुआ ।

विश्व में ज्ञात, प्रचलित- अप्रचलित लगभग सभी संवत्सरों में यह सर्वाधिक प्राचीन माना जाता  है।पुरातत्ववेत्ता बड़ली के शिलालेख का अध्ययन कर यह बात 1912 में सिद्ध कर चुके हैं ।

भारतीय संस्कृति के आस्थावान अनुयायी इस दिन व्यावसायिक संस्थानों में हिसाब, बहियों का शुभ मुहुर्त करते  हैं, भारतीय परंपरा में इसी दिन से नवीन लेखा-वर्ष का परम्परानुसार शुभारम्भ माना जाता है।

सरकार ने वर्ष 1989 में एक विधेयक पारित कर लेखा वर्ष की गणना ईसवी सन की 1 अप्रैल से प्रारम्भ कर 31 मार्च तक की जाने की अनिवार्यता लागू कर हमारी धार्मिक , सांस्कृतिक तथा सामाजिक मान्यताओं से परे अपनाने को सभी को बाध्य एवं विवश कर दिया है। यद्यपि शासकीय नियम के परिवर्तन को इतने वर्ष हो चुके हैं किंतु अब भी अधिकांश जैन व्यापारी लेखा बहियाँ दीपावली के दिन ही खरीद कर लाते हैं। दीपावली के मंगल दिवस पर विधि-विधान अनुसार श्री महावीर स्वामी, गणधर गौतम की पूजा एवं अन्य मांगलिक क्रियायें सम्पन्न कर शुभ बेला में स्वस्तिक मांड कर रख देते हैं, तथा इन्हें लगभग पाँच माह उपरांत 1 अप्रैल से प्रारंभ करते हैं।
                             धनतेरस को जैन मान्यता में धन्य तेरस या ध्यान तेरस भी कहते हैं । भगवान महावीर को तेरस के दिन पूर्ण ध्यान  की प्राप्ति हुई थी तब लोगो ने उस तिथि को ‘धन्य’ माना और कहा – ‘धन्य है वो तेरस जिस दिन भगवान को अंतिम शुक्ल ध्यान प्राप्त हुआ’। तभी से यह दिन ध्यान तेरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

हम धनप्रेमी लोगों ने इस पर्व को धन से जोड़ दिया है । ध्यान का दिन धन्य तेरस भी कैसे धन तेरस बन गया पता ही नहीं चला । धन की प्रभुता के शिकंजे में फ़ँसे हमारे लिए ज्ञानलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी का यह पर्व भी धन की देवी समझे जानी वाली लक्ष्मी पूजा का पर्व बन गया है ।
 वीतरागी पर्व वित्तराग का संदेशवाहक बन गया है । अब हमें धन चाहिए श्वेत हो या श्याम, स्वच्छ हो अस्वच्छ, इस धारणा ने धर्म और जीवन को खण्ड – खण्ड कर दिया है । इस तृष्णा की आँधी में सभी लिप्त है । दीप पर्व को गिफ्ट के बहाने अधिकारियों को उत्कोच देकर अपने अनैतिक कार्य करवाने का भ्रष्ट माध्यम बना लिया है ।
 हमने अपने जीवन में धर्म और ध्यान का प्रकाश नहीं बल्कि धन का अन्धकार भर लिया है । मृण्मय दीपों और विद्युत लाइटों के इस संसार में इस दुर्लभ नर तन रत्नदीप की गुणवत्ता और महत्ता को विस्मृत कर दिया गया है । यह पर्व हमारे चिन्तन का पर्व है ,नर जन्म दुर्लभ मनुष्य पर्याय को सार्थक करने का पर्व है ।
 अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए । अतः इस पर्व को “रूप-चौदस” के रूप में मनाते हैं । वास्तव में यह दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर आत्म स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये।

भगवान् महावीर के आदर्शों और जैन धर्म की आचार संहिता और दर्शन को समझने का पर्व है । गौतम गणधर के मार्ग पर चलने का पर्व  है, हम प्रकाश करें, अपने घरों को सजायें साथ ही स्वयं भी संयम और सद्‍गुणों का भी कम से कम एक दीप अपने अन्तर में रखें तभी दीप पर्व की सार्थकता है ।

*चिरागों के सिलसिले इस कदर डाले हैं*
*अंधेरा है ज़ेहन में और बाहर उजाले हैं*

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