*प्रचंड वैराग्य का निमित्त बन रहा है 2020*
लगभग रोज ही आये दिन हम अपने गुरुओं ,रिश्तेदारोँ, परिजनों,मित्रों तथा अन्यान्य लोगों का वियोग सहन कर रहे हैं ।
2020 में कॅरोना ने हमें अनित्य की सिर्फ भावना ही नहीं करवायी है बल्कि प्रयोग भी करवाया है ।
इसके बाद भी हम आजकल अपने ही साधर्मी,सहकर्मी,सह निवासी,पड़ोसी जनों से भी कितना द्वेष करने लगे हैं ।
हम अक्सर उन जीवों की रक्षा की चिंता,उनसे क्षमा प्रार्थना तो करते हुए दिखते हैं जो आंखों से दिखाई तक नहीं देते किन्तु जो सामने दिख रहे हैं,जो हमारे साथ रह रहे हैं, जिनसे हमारे साक्षात सरोकार हैं उनकी विराधना ,असातना की चिंता नहीं करते हैं । प्रत्युत अन्य लोगों की अपेक्षा उनसे ही ज्यादा द्वेष कर रहे हैं ।
जरा जरा सी बात पर उन्हें नीचा दिखाने और उनका अपमान करने से बाज नहीं आते ।
लोग रोज मर रहे हैं और हम अमरता के भ्रम में जी रहे हैं और जरा से परिग्रह के लिए दूसरों को कष्ट देकर पाप बांधे जा रहे हैं ।
जीवन में परिवर्तन नहीं कर रहे,कषाय कम नहीं कर रहे और सोच रहे हैं कि 11000/- की बोली लेकर सब पाप धुल जाएंगे ।
पिछले कई महीनों से शोक संदेश पढ़ रहे हैं ,उस पर श्रद्धांजली भी लिख रहे हैं किंतु अधिकांश अनासक्त भाव से औपचारिकता वश ।
ये प्रसंग तो प्रचंड वैराग्य के निमित्त हैं ,आज तो जिन्होंने अपनों को खोया है वे भी हफ्ते भर के भीतर ही अपनी सांसारिक उपलब्धियों का स्टेटस अपडेट करके लाइक्स बटोर रहे हैं ।
अब कोई नहीं रोता,रोता भी है तो कुछ समय के लिए ,
वियोग का दुख भी तेरहवीं के समय तक उत्सव में तब्दील हो जाता है ।
रिश्तेदार,परिजन भोजन की क्वालिटी चर्चा और आपस की कुशल क्षेम में व्यस्त दिखते हैं ।
सब यही सोचते हैं हम तो जिंदा है इतना ही बहुत है ।
अब शोक जैसे प्रसंग भी नाम मात्र के होते हैं ।इस निमित्त को हम वृथा ही गंवा देते हैं ।
जिनके परिजन का वियोग हुआ है उन्हें लोग दिलासा देते हैं दुख मत करो, रो मत , अब जो हुआ सो हुआ , होनहार ही ऐसी थी,खाना कब तक नहीं खाओगे,पानी तो पी लो,दुकान कब तक बंद रखोगे ..चलो अब खोल लो आदि आदि .....।
लेकिन शोक की दुर्दशा अब जिस तरह से की जा रही है उससे लगता है अब संबोधन बदलने पड़ेंगे ...
थोड़ा तो दुख मना ले ,तेरा अपना था जो चला गया, कभी रो भी लिया कर , घर में गमी हुई है ...क्या खाना पीना ही लगा रखा है ,कुछ दिन तो दुकान बंद कर दे,
अरे ....कुछ दिन तो शोक मना ले .....तेरे ये...गए हैं ।क्या तुमने तीसरे दिन ही टीवी रेडियो बजाना शुरू कर दिए ?
तेरहवीं में जब किसी के यहां शोक मनाने उदास मन से जाते हैं वहां का माहौल देखकर अक्सर लगता है कि हम तो 12 दिन से व्यर्थ ही चिंतित थे यहां तो उनके अपनों में भी शोक काफूर हो चुका है ।
वैराग्य के इन महान निमित्तों को जो हमें जीवन धन पद आदि की सारहीनता और क्षण भंगुरता का एहसास कराने आये थे ,हम पर्दा डाल देते हैं और उसी क्रोध मान माया लोभ की दुनिया में पुनः मस्त हो जाते हैं ।
यही सोचते हुए कि हम तो अमर हैं ....
¶कुमार अनेकान्त,नई दिल्ली
drakjain2016@gmail.com
27/11/2020
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