धर्म का लॉक डाउन तो सदियों से चल रहा है
कुमार अनेकांत
पुराने जमाने की एक कहानी सुनी होगी । अमावस्या के दिन डाकू पहाड़ी पर बने देवी के मंदिर में जरूर आता है और देवी को प्रसाद जरूर चढ़ाता है । पुलिस भी जो और दिनों में उसे ढूढने में असफल रहती है वह अमावस्या की रात मंदिर के आसपास डाकू की प्रचंड भक्ति पर विश्वास करके घेरा बंदी कर लेती है कि उसकी और बातें भले ही झूठ हों लेकिन यह बात बिल्कुल सही है कि वह देवी से रक्षा और सफलता का आशीर्वाद लेने जरूर आता है । ऐसी कहानियां सच हैं कि काल्पनिक हैं या फिल्मी हैं यह तो आप जानें लेकिन धर्म क्षेत्र की अधिकांश व्यवस्थाएं इन दिनों किसी न किसी रूप में ऐसे ही डाकुओं से घिरी हुई हैं । फर्क सिर्फ इतना है कि अब डाकू छुप कर नहीं आते , क्यों कि डकैती कर्म होने पर भी वे अब इतने स्वच्छ दिखते हैं कि अब वे डाकू नहीं कहलाते । अब वे सामाजिक हैं । लूटने के ,डकैती के बहुत सुरक्षित उपाय उन्होंने अपना लिए हैं ।
अब आप लुट जाएंगे और उसे डाकू भी नहीं कह पाएंगे क्यों कि उसने इतने सफेद आवरण ओढ़ रखे हैं कि आप उस पर दाग भी नहीं लगा सकते । डाकुओं ने अपना ड्रेस कोड भी काले से बदल कर सफेद रंग का कर लिया है । बोलने का तरीका भी उनका सभ्य हो गया है । विनम्रता की माया रचना वे सीख चुके हैं । अब उन्हें भगवान् भी नहीं पकड़ पाते हैं क्यों कि वे उनके ही अव्वल दर्जे के सेवक बने हुए हैं ।
मैंने तो यह भी देखा है कि कई ऐसे लोग बहुत निश्चिंत होकर पाप करते हैं जो धार्मिक जप पूजा पाठ अभिषेक आदि बहुत कट्टरता से नियमित करते हैं , मानो उन्हें यही विश्वास हो कि पैसा तो पाप करने से ही मिलता है और उसमें सफलता धर्म कार्य करने से मिलती है ।
कभी कभी लगता है कि शुद्ध धर्म के प्रति भी जब इस प्रकार का अंध विश्वास पैदा कर दिया जाता है तो धर्म समाज में अपराध वृद्धि का सबसे बड़ा साधन बन कर सामने आता है और अपराधी को पनाह देने वाला उससे भी बड़ा अपराधी दिखने लगता है ।
इस बीच सच्चा धर्म कहीं खो जाता है ।लॉक डाउन में मंदिर बंद भले ही हैं लेकिन सच्चा आत्म धर्म तो सदियों से लॉक डाउन है ।
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