कैसे बढ़े जैनों की घटती
आबादी ?
डॉ. अनेकांत कुमार जैन, नई दिल्ली, anekant76@gmail.com
भारत में जैनों की जनसँख्या
की विकास दर नगण्य रूप से सामने आ रही है |यह एक महान चिंता का विषय
है |इस विषय पर सबसे पहले हम कुछ प्राचीन आंकड़ों पर विचार करें | तात्या साहब के. चोपड़े का
मराठी भाषा 1945 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ‘जैन आणि हिन्दू’ ,इस पुस्तक के पृष्ठ ४७ -४८
पर कुछ चौकाने वाले तथ्य लिखे हैं जिसका उल्लेख आचार्य विद्यानंद मुनिराज की
महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महात्मा गांधी और जैन धर्म’ में है –
१. ईसा के १००० साल पहले ४० करोड़ जैन थे |
२. ईसा के ५००-६०० साल पहले २५ करोड़ जैन थे |
३. ईश्वी ८१५ में सम्राट अमोघवर्ष के काल में २० करोड़
जैन थे |
४. ईश्वी ११७३ में महाराजा कुमारपाल के काल में १२ करोड़ जैन
थे |
५. ईश्वी १५५६ अकबर के काल में ४ करोड़ जैन थे |
यदि इन आंकड़ो को सही माना
जाय तो यह अत्यधिक चिंता का विषय है कि अकबर के काल से २५०० वर्ष पहले जैन ४० करोड़
थी और उसके समय तक यह संख्या ९०% की कमी के बाद महज १०% बची |
इसके बाद अब कुछ नए आंकड़ों
पर विचार करें | साल 2001 के
आंकड़ों के अनुसार भारत की कुल आबादी 102 करोड़
थी जिसमें हिंदुओं की आबादी (82.75 करोड़ (80.45 प्रतिशत) और
मुस्लिम आबादी 13.8 करोड़ (13.4प्रतिशत
थी । इसी जनगणना के अनुसार
भारत में जैन धर्म के लोगों की संख्या 4,225,053 थी जबकि उस समय भारत की कुल जनसंख्या 1,028,610,328 थी । 100,000 से अधिक जैन जनसंख्या वाले
राज्य जनसंख्या राज्य एवं
क्षेत्र में निम्नानुसार थी :
राज्य में जैन जनसंख्या
महाराष्ट्र 1,301,900 1.32%
राजस्थान 650,493 1.15%
मध्य प्रदेश 545,448 0.91%
गुजरात 525,306 1.03%
कर्नाटक 412,654 0.74%
उत्तर प्रदेश 207,111 0.12%
दिल्ली 155,122 1.12%
महाराष्ट्र 1,301,900 1.32%
राजस्थान 650,493 1.15%
मध्य प्रदेश 545,448 0.91%
गुजरात 525,306 1.03%
कर्नाटक 412,654 0.74%
उत्तर प्रदेश 207,111 0.12%
दिल्ली 155,122 1.12%
यह सम्भव है कि जैन लोगों
की कुल संख्या जनगणना के आँकड़ों से मामूली मात्र में अधिक हो सकती है। अभी २०१५ में जारी २०११ की जनगणना के अनुसार जैनों की जनसंख्या
44,51,753 हैं जिनमें 51.1 फीसदी पुरुष एवं 48.8 महिलाएं
हैं। धर्म आधारित जनगणना से
संबंधित मुख्य तथ्य निम्नलिखित रूप से सामने आये हैं –
• हिंदुओं की कुल आबादी 96.63
करोड़ यानी 79.8 फीसदी.
• मुस्लिमों की कुल आबादी
17.22 करोड़ यानी 14.2 फीसदी.
• ईसाइयों की कुल आबादी 2.78
करोड़ यानी 2.3 फीसदी.
• सिखों की कुल आबादी 2.08
करोड़ यानी 1.7 फीसदी.
• बौद्धों की कुल आबादी 84
लाख यानी 0.7 फीसदी.
• जैनों की कुल आबादी 45 लाख यानी 0.4 फीसदी.
जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी हुई और हिंदू जनसंख्या घटी। सिख समुदाय की आबादी में 0.2 प्रतिशत बिंदु (पीपी) की कमी आई और बौद्ध जनसंख्या 0.1 पीपी कम हुई। ईसाइयों और जैन समुदाय की जनसंख्या में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ।
जनगणना के धर्म आधारित ताजा आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच 10 साल की अवधि में मुस्लिम समुदाय की आबादी में 0.8 प्रतिशत का इजाफा हुआ है और यह 13.8 करोड़ से 17.22 करोड़ हो गयी, वहीं हिंदू जनसंख्या में 0.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी और इस अवधि में यह 96.63 करोड़ हो गयी। सिखों की जनसंख्या में 0.2%, बौद्ध जनसंख्या में 0.1% की कमी दर्ज की गई है जबकि इस दौरान मुस्लिमों की जनसंख्या 0.8 प्रतिशत बढ़ी है। ईसाई और जैन समुदाय की जनसंख्या में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नजर नहीं आया है। वर्ष 2001 से 2011 के दौरान हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.8%, मुस्लिमों की जनसंख्या 24.6%, ईसाई की जनसंख्या 15.5%, सिख की जनसंख्या 8.4%, बौद्ध की जनसंख्या 6.1 और जैन की जनसंख्या 5.4% रही है।
2001 की तुलना में 2011 में
जहाँ एक तरफ देश की आबादी लगभग बीस करोड़ बढ़ गयी है वहीँ जैनों की संख्या महज बाईस
लाख (226700) के लगभग ही बढ़ी है | चौकानें वाली बात यह भी है
कि जैनों की जनसँख्या वृद्धि दर 1991 से 2001 के बीच 25.8% थी जो 2001 से 2011 के बीच 5.4 % के लगभग रह गयी
है | मैं भारत सरकार द्वारा जारी इन आंकड़ों को सही
मानता हुआ कुछ अपने मन की बात आप सभी के समक्ष रखना चाहता हूँ |आज हमें इस विषय पर गंभीरता
से विचार करना ही होगा कि जैन समुदाय की वृद्धि दर सबसे कम क्यूँ रही ?यह निश्चित रूप से हमारे
अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण चुनौती है |
अब इस विषय पर किसी सरकार
पर आरोप लगा कर तो हम निश्चिन्त हो नहीं सकते क्यूँ कि इसकी जिम्मेवारी पूरी हमारी
है |राष्ट्र की नज़र में इसे जैनों का बहुत बड़ा योगदान भी माना जा सकता है
कि जनसँख्या विस्फोट में जैनों की भागीदारी न के बराबर रही | लेकिन जिस प्रकार किसी जीव
की प्रजाति लुप्त होने का खतरा देख कर उसके संरक्षण का उपाय ,संवर्धन के तरीकों पर विचार
किया जाने लगता है उसी प्रकार इस देश की मूल श्रमण जैन संस्कृति के अनुयायियों की
जनसँख्या यदि इसी प्रकार कम होती रही और भारत की कुल आबादी का एक प्रतिशत भाग भी हम
हासिल न कर सके तो भविष्य में जैन कहानियों में भी सुरक्षित रह जाएँ तो गनीमत
माननी पड़ेगी |
जैनों की घटती आबादी का
प्रमुख कारण-
आम तौर पर जब इस बात की
चिंता की जाती है तो एक सरसरी निगाह से जैनों की घटती आबादी के निम्नलिखित प्रमुख
कारण समझ में आते हैं -
१. परिवार नियोजन के प्रति अत्यधिक सजगता |
२. शिक्षा का विकास, ९४%साक्षरता की दर |
३. ब्रह्मचर्य व्रत के प्रति गलत धारणा |
४. प्रेम विवाह के कारण जैन परिवार की कन्याओं का अन्य धर्म परिवारों
में विवाह |
५. विवाह में विलम्ब |
६. अविवाहितों की बढ़ती संख्या |
७. सधर्मी भाइयों के प्रति तिरस्कार की बढती प्रवृत्ति |
८. पंथवाद और जातिवाद की कट्टरता |
९. विभिन्न रोगों के कारण बढती मृत्यु दर |
१०. दूसरों को जैन बनानें की प्रवृत्ति या घर वापसी जैसे आंदोलनों का
अभाव
11.आर्थिक समृद्धि की बढ़ती दर
जैनों की आबादी बढाने के
लिए कुछ प्रमुख उपाय –
जैन समुदाय को भारत की कुल आबादी का कम से कम एक प्रतिशत भाग हासिल करने के लिए भी अवश्य ही एक मुहिम चलानी होगी | हमारी विडंबना है कि हम प्रत्येक सामजिक कार्य साधुओं की ही अगुआई में संपन्न करने लगे हैं |हमारा खुद का कोई नेतृत्व ही नहीं है |जैन जनसँख्या बढाने जैसे मुद्दे पर भी वीतरागी साधुओं से मार्गदर्शन और नेतृत्व की यदि अपेक्षा रखेंगे तो हमसे अधिक दुर्भाग्यशाली शायद ही कोई हो | इस कार्य में स्वतः ही प्रेरित होना होगा ,इसे एक सामाजिक आन्दोलन बनाना होगा | इसके लिए हमें कुछ समाधान की तरफ आगे बढ़ना होगा |वे समाधान निम्नलिखित प्रकार से हो सकते हैं –
१.परिवार को समृद्ध
बनायें -
संपन्न तथा संस्कारी परिवारों को परिवार नियोजन के प्रति थोड़ी उदासीनता रखनी चाहिए | हम दो हमारे एक की अवधारणा को छोड़ कर कम से कम हम ‘हम दो हमारे दो’ ,या तीन का नारा तो देना ही होगा ,हमारे चार या पांच भी हों तो भी बहुत अधिक समस्या नहीं होगी |यदि हमारे पास आर्थिक सम्पन्नता है और पर्याप्त संसाधन हैं और किसी कारण से बच्चे नहीं हैं या हो नहीं रहे हैं तो हमें अनाथालय से बच्चे गोद लेने में भी संकोच नहीं करना चाहिए | यदि बच्चे पहले से हैं किन्तु कम हैं तो भी उन बच्चों के कल्याण के लिए तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए भी गोद लेने की प्रवृत्ति को विकसित करना चाहिए |इससे वे बच्चे जन्म से संस्कारी तथा जैन बनेंगे |समृद्धि का अर्थ सिर्फ धनादि अचेतन वस्तुओं का भण्डार नहीं होता,बल्कि चैतन्य बच्चों की चहल पहल भी उसका एक दूसरा महत्वपूर्ण अर्थ है |
२.बड़े एवं संयुक्त
परिवारों का करें अभिनन्दन -
समाज को अब उन माता पिताओं को सार्वजनिक समारोहों में अभिनन्दन कर पुरस्कृत भी करना प्रारंभ करना चाहिए जिन्होंने अधिक संतानें जन्मीं हैं |यह कार्यक्रम एक प्रेरणा का काम करेगा |एक सरकारी नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ “छोटा परिवार,सुखी परिवार”,जैन समाज ने इस फार्मूले को बहुत अपनाया | इस नारे का पूरक भाव यह ध्वनित हुआ कि ‘बड़ा परिवार दुखी परिवार’,इन सिद्धांतों के पीछे आर्थिक और सामाजिक कारण मुख्य थे | कमाने वाला एक होगा और खाने वाले अधिक तो दुखी परिवार होगा और खाने वाले कम होंगे तो परिवार सुखी होगा |किन्तु गहरे में जाकर देखें तो ऐसी स्थिति नहीं है |
संतोष, सादगी, सहिष्णुता, त्याग, प्रेम, अनासक्ति आदि आध्यात्मिक
मूल्यों के अभाव में छोटे परिवार भी दुखी रहते हैं और जहाँ ये मूल्य हैं वहां बड़ा
परिवार भी सुखी रहता है | सुख और समृद्धि को एक मात्र आर्थिक आधार पर निर्धारित करना बेमानी है
|नारा होना चाहिए ‘आध्यात्मिक परिवार सुखी
परिवार’|
एक संतान की संस्कृति ने सबसे बड़ा नुकसान यह होने वाला है कि उसके कारण हमारे मधुर रिश्ते नाते जिनसे हमारे सामाजिक संबंधों के सुन्दर ताने बाने और जीवन के मूल्य जुड़े हुए थे वे भविष्य में नष्ट होने के कगार पर हैं |जब बच्चा ही एक होगा तो भविष्य में सगे मामा-मामी, मौसी-मौसा, चाचा-चाची,बुआ-फूफा,साला-साली, और यहाँ तक की भाई -बहन तक ये तमाम रिश्ते स्वाहा हो जायेगें |
एक लड़का होगा तो वह कभी भी
बहन के प्यार के मायने ही नहीं समझ पायेगा और यही हाल तब भी होगा जब
मात्र एक लड़की ही होगी ,वो जान ही नहीं पायेगी कि भैया माने क्या ? इधर बीच मेरे कुछ एक
मित्रों ने जिन्होंने एक ही संतान का संकल्प ले रक्खा है एक नयी समस्या का जिक्र
भी किया है वह यह कि उनकी एकलौती संतान अवसाद या असामान्य व्यवहार वाली बीमारी से
ग्रसित हैं और डॉक्टर ने इसका एक मात्र इलाज यह बताया है कि आपको दूसरा बेबी करना
ही होगा तभी यह पहला स्वस्थ्य हो पायेगा | इससे ये पता लगता है कि
परिवार में जो दो चार भाई बहन आपस में खेलते -लड़ते रहते हैं वो समस्या नहीं बल्कि
एक किस्म की मनोवैज्ञानिक थेरेपी है जिससे उनका मानसिक संतुलन बना रहता है |
३.ब्रह्मचर्य अणुव्रत के
प्रति गलत अवधारणा –
अक्सर लोग कम जनसँख्या के पीछे तुरंत ही ब्रह्मचर्य अणुव्रत को दोष देने लग जाते हैं | यह छोटी और तुच्छ सोच है | गृहस्थ को संतान उत्पत्ति के उद्देश्य से की जाने वाली मैथुन क्रिया का कभी भी धर्म शास्त्रों ने निषेध नहीं किया | श्रावक धर्मप्रदीप का एक श्लोक है –
विहाय यश्चान्यकलत्रमात्रं
सुपुत्रहेतोः स्वकलत्र एव |
करोति रात्रौ समयेन सङ्गं
ब्रह्मव्रतं तस्य किलैकदेशम् ||श्लोक-१७८
आप गहराई से विचार करें तो
पाएंगे कि जब तक गृहस्थों के जीवन में ब्रह्मचर्य अणुव्रत की अधिकता रही है तब तक
बच्चों की संख्या अधिक रही | आज इस व्रत का अभाव है और संतानें कम हो रही हैं | कोई अनाड़ी होगा जो ये कहेगा
कि आज बच्चे इसलिए कम हो रहे हैं क्यूँकि घरों में ब्रह्मचर्य है | राजा ऋषभदेव के सौ पुत्र थे
जब कि पत्नी केवल दो थीं | आज की पीढ़ी जब अपने ही बुजुर्गों के १०-१५ बच्चों की बातें सुनती है
तो मजाक में सहज ही कह उठती है कि उन्हें और कोई काम नहीं था क्या ? जब कि साथ ही यह भी सच है
कि उन्होंने उन्हें कभी सतत रोमांस करते नहीं देखा | आज रोमांस तो खुले में
सड़कों पर उन्मुक्त है किन्तु उसमें संतानोत्पत्ति का पावन उद्देश्य नहीं है, बल्कि इसके स्थान पर मात्र
भोग और वासना है | बच्चे पैदा करना और उनका लालन पालन करना एक तपस्या है जो भोगी नहीं
कर सकते और
करते भी नहीं हैं | यह काम भी ब्रह्मचर्य
अणुव्रत के महत्व को समझने वाले योगी ही करते हैं | इसलिए ‘बच्चा माने अब्रह्मचर्य’- यह अवधारणा जितनी जल्दी
सुधर जाए उतना अच्छा है | यह कतई नहीं कहा जाता कि जो कपल बच्चा प्लान नहीं करता वह ब्रह्मचर्य
का संवाहक हैं |
४. प्रेम विवाह की समस्या को समझें-
प्रेम विवाह के प्रति आज भी
हमारा नज़रिया दकियानूसी है | हम अपनी समाज में आवश्यकता अनुसार कोई अवसर प्रदान
नहीं करते और बाद में रोते हैं | प्रेम विवाह आज की आवश्यकता बन चुका है, इसे रोकने की बजाय इसे नयी
आकृति दीजिये | काफी हद तक समाधान प्राप्त हो सकता है |
हमारी बेटियां जो अन्य धर्म
के लड़कों के साथ प्रेम विवाह कर रही हैं इसके लिए हमे अपनी समाज में एक तरफ तो
संस्कारों को मजबूत बनाना होगा दूसरी तरफ समाज में खुला माहौल भी रखना होगा | सामाजिक संस्थाओं में अनेक
युवा क्लब ऐसे भी बनाने होंगे जहाँ जैन युवक युवती आपस में खुल कर विचारों का आदान
प्रदान कर सकें, एक दुसरे के प्रोफ्फेशन को जान सकें और अपनी ही समाज में अपने
प्रोफेशन और भावना के अनुरूप जीवन साथी खोज सकें |
समाज में अनेक छोटे बड़े
कार्यक्रम तो होते ही रहते हैं किन्तु वे धार्मिक किस्म के ही होते हैं और वहां जैन
युवक युवतियों को साथ में उठना बैठना, वार्तालाप आदि करना भी पाप
माना जाता है, तब ऐसी स्थिति में उन्हें स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, ओफिस आदि में अपने अनुरूप
जीवन साथी खोजने पड़ते हैं जो किसी भी धर्म के हो सकते हैं | यद्यपि यदि बेटी के संस्कार
अत्यंत मजबूत हों तो बेटी अन्य धर्म के परिवार में जाकर युक्ति पूर्वक उन्हें जैन
धर्म का अनुयायी बना सकती है और यह जैन समुदाय की संख्या बढ़ने में कारगर हो सकता
है लेकिन ऐसा बहुत दुर्लभ और नगण्य है |
यदि हम अपने परिवार और बेटे
के संस्कारों को बहुत मजबूत रखें तो अन्य धर्म से आई बहु भी जैन धर्म का पालन कर
सकती है किन्तु ऐसा बहुत कम देखा जाता है | अधिकांश जैन परिवार एक अजैन
बहु से प्रभावित होकर अजैन होते देखे गए हैं | आज के परिवेश में प्रेम
विवाहों को कोई नहीं रोक सकता अतः ऐसे अवसर निर्मित करने होंगे ताकि साधर्मी प्रेम विवाह ज्यादा हों |
५. विवाह में विलम्ब है मुख्य समस्या –
हमने विवाह को लेकर इतने जटिल ताने बाने बुन रखे हैं कि उन्हें सुलझाने में बच्चों की उम्र निकल जाती है और उलझने फिर भी समाप्त नहीं होतीं |
आज से पचास वर्ष पूर्व और अब में जो विडंबना देखने में आ रही है वह यह कि तब विवाह पहले होता था और जवानी बाद में आती थी आज जवानी बचपन में ही आ जाती है और विवाह अधेड़ उम्र में होता है | मैं बाल विवाह का पक्षधर नहीं हूँ लेकिन उसके भी अपने उज्जवल पक्ष थे जो हम देख नहीं पाए |बाल विवाह के विरोध में जो सबसे मजबूत तर्क यह दिया गया कि Teen age pregnancy लड़की के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं ,बात सही है किन्तु ये समस्या तो आज भी है अंतर बस इतना है कि पहले यह विवाह के अनंतर होती थी और आज विवाह से पूर्व |
इस समस्या को थोड़े खुले दिमाग से समझना होगा | आज लड़का हो या लड़की उनका विवाह तभी होता है जब उनका कैरियर बन जाये, पढ़ लिख जाएँ | यह विवाह नहीं समझौता है |
जीवन में जवानी का सावन अपने समय से ही आता है जब किसी भी किशोर या युवा को शारीरिक,मानसिक तथा भावनात्मक रूप से एक जीवन साथी की प्रबल अपेक्षा होती है ,जहाँ उसका अधूरापन पूर्ण होता है | वे स्वयं ,परिवार या समाज शिक्षा, कैरियर, पैसा, दहेज़ या अन्य अनेक कारणों से उन दिनों विवाह नहीं होने देते तब ऐसे समय में बाह्य कारणों से भले है बाह्य/द्रव्य विवाह न होता हो किन्तु भाव विवाह /इश्क/प्रेम/मुहब्बत.............आदि आवश्यकता के अनुसार गुप्त रूप से संपन्न होने लगते हैं क्यूँ कि प्रकृति अपना स्वभाव समय पर दिखाती है,वह आपकी कृत्रिम व्यवस्था के अनुसार नहीं चलती |
बरसात यह सोच कर कभी नहीं
रूकती कि अभी छत पर आपके कपड़े सूखे नहीं हैं |फिर हम रोते हैं मेरे बेटे
ने दूसरी जात/धर्म की लड़की से शादी कर ली क्यूँ कि वह उसी के साथ अच्छी जाब पर है
या मेरी बेटी मोहल्ले के एक अलग धर्म /जात के सुन्दर लड़के के साथ भाग गयी भले ही
वह बेरोजगार हो | गलती सिर्फ बच्चों की ही नहीं है माँ-बाप और समाज की भी उतनी ही है |
विशेषज्ञों का मानना है कि कोई भी लड़की/महिला यदि तीस वर्ष की उम्र तक एक बार भी माँ नहीं बने तो बाद में उसे माँ बनने में बहुत समस्या होती है अब अगर उसका विवाह ही किसी भी कारण से २९-३० वर्ष में होगा तो समस्या तो आएगी ही |
कहने में बात अटपटी जरूर लग सकती है लेकिन क्या करें ,जो कारण है अगर उसका जिक्र हो ही न तो बात बने कैसे ? वर्तमान में स्त्री शिक्षा के विकास ने कई समाधान तो दिए ही हैं लेकिन इसका दूसरा पहलु देखें तो एक समस्या भी दी है वह यह कि स्त्रियों की शिक्षा प्रतिशत बढ़ने के साथ साथ ,समय पर उनके विवाह होने का प्रतिशत निरंतर गिरा है,उनके जॉब आदि की अत्यधिक बढती प्रवृत्ति ने विवाह और परिवार संस्था को काफी समस्या ग्रस्त भी बनाया है |
यह इसलिए हुआ कि स्त्री शिक्षा और रोजगार के विकास के साथ साथ समाज का जो मानस विकसित होना चाहिए था वह न हो सका |आज भी एक रोजगार से युक्त लड़का तो बेरोजगार लड़की से शादी कर लेता है किन्तु एक रोजगार में लगी लड़की चाहे जितनी उम्र हो जाए एक बेरोजगार लड़के से शादी नहीं करती है ,प्रत्युत उसे जीवन साथी के रूप में अपने से ऊँची पोस्ट पर पदस्थ वर की हमेशा तलाश रहती है |और वो कभी कभी दुर्लभ हो जाता है फलस्वरूप वो अधिक उम्र तक अविवाहित रहती हैं |समाज में यह असंतुलन दिनों दिन निरंतर बढ़ ही रहा है |
चूँकि कार्पोरेट की दुनिया में लड़कियों को अवसर प्रदान करने का ज्यादा प्रचलन है क्यूँ कि वे कम पैकेज में भी कार्य करने में संकोच नहीं करती हैं |इस कारण लड़कों की अपेक्षा लड़कियां रोजगार में भी औसतन ज्यादा हैं |रोजगार युक्त लड़की बेरोजगार लड़के से विवाह नहीं करती और लड़कों का विवाह इसलिए नहीं होता क्यों कि वे अच्छे रोजगार पर नहीं हैं,फल स्वरुप दोनों अविवाहित हैं |या फिर जो अनुकूल लगा उससे विवाह किया चाहे वह अपने धर्म या जाति से विपरीत ही क्यों न हो | ये एक किस्म की बिडम्बना है , छद्म आधुनिक विकास का नशा है तो उसके दुष्परिणाम भी सामने हैं | इस विकास के पक्ष में आप अनेकों लाभ भी गिना ही सकते हैं किन्तु इसके जो दुष्परिणाम हैं उनसे भी नजरें चुराई नहीं जा सकतीं |
कहने का मतलब यह है कि इस
जटिलता को हम नहीं सुलझाएंगे तो कौन सुलझाएगा ? विवाह के बाद की खर्चीली
शर्तों को यदि हम थोड़े वर्षों के लिए टाल दें और उच्च शिक्षा आदि को भी विवाह के
बाद या साथ साथ करने का सहज वातावरण बनायें तो समस्या काफी कुछ हद तक सुलझ सकती है
|
जनसँख्या
में कमी का ही नहीं सामाजिक संतुलन और स्वास्थ्य बिगड़ने का भी यह एक बहुत बड़ा कारण है | शास्त्रों के अनुसार भी
वास्तविक विवाह सिर्फ कन्या का ही होता है, महिलाओं की तो सिर्फ
शादी/समझौता होता है |
सेक्स अनुपात
में असन्तुलन -
यह एक सुखद सूचना है कि जैनसमाज में सैक्स असन्तुलन थोड़ा सन्तुलित हुआ है,२००१ में १००० जैन लड़कों के पीछे ८७० लड़कियां थीं,जैनों ने काफी सामाजिक आन्दोलन किये,जिसके परिणामस्वरूप २०११ में यह आंकड़ा ८८९ हो गया,जबकि सिख समाज के अलावा अन्य सभी समाज के परिणाम निराशा जनक रहे हैं।
किन्तु लड़की पैदा होने पर आज भी क्षोभ होता है और कहीं न कहीं गर्भपात भी हो रहे हैं। लड़कियों के अभाव में भी विवाह नहीं हो पा रहे हैं। आज गाँव गाँव में और शहरों में भी ऐसे अनेक सुयोग्य युवक हैं जिनके समय बीतने पर भी विवाह नहीं हो पा रहे हैं, यह समस्या विशेष रूप से मध्यम वर्ग या छोटे व्यापारियों में ज्यादा है |
बुन्देलखण्ड तथा कई अन्य क्षेत्रों में अनेक जैन परिवारों में पैसे खर्च करके ऐजेन्टों के माध्यम से उड़ीसा आदि प्रदेशों से कन्याओं को ब्याह कर लाया जा रहा है । सामान्य आय वाले लड़कों को जैन लड़कियाँ मिलना मुश्किल हो गया है। इन विषयों पर हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे समय में कन्या वृद्धि के लिए समाज की संस्थाओं को विशाल स्तर पर एक 'ब्राह्मी-सुन्दरी' योजना प्रारम्भ करनी चाहिए जिसमें कन्या के जन्म के साथ ही उसके माता पिता को सम्मानित किया जाय तथा यदि आवश्यकता हो तो उसकी शिक्षा,लालन पालन,चिकित्सा आदि को संस्थान द्वारा पूरा किया जाए।
६. सहिष्णुता का विकास करना होगा-
समाज के प्रत्येक व्यक्ति
को अपने जैन भाई के प्रति सहिष्णुता, सौहार्द्य और सहयोग की
भावना का विकास करना ही होगा ताकि लोग जैन धर्म और समाज का अंग बनने में सुरक्षित
और गौरव का अनुभव करें |सामाजिक बहिष्कार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा | अलग पंथ, जाति आदि के प्रति
सह-अस्तित्व का भाव बनाये रखना होगा | एक दूसरे को मिथ्या-दृष्टि
कहने की प्रवृत्ति पर लगाम कसनी होगी |
हम चाहे परंपरा, धार्मिकता, दार्शनिकता, सांस्कृतिकता, जातीयता के आधार पर कितने
ही मतभेद रख लें किन्तु मन-भेद कदापि न रखें, प्रत्येक के प्रति
लोकतंत्रात्मक दृष्टिकोण ऐसा अवश्य रखें कि भले ही वह अन्य गुरु या सम्प्रदाय का
भक्त है पर है तो जैन ही अतः जैनत्व के नाते भी आस्था और विश्वास के उसके कुछ अपने
कुछ स्वतंत्र अधिकार हैं उसे इस अधिकार से वंचित करने वाले हम कौन होते हैं ?हमें तीसरी शती के आचार्य
समंतभद्र विरचित रत्नकरंड श्रावकाचार का यह श्लोक हमेशा याद रखना चाहिए –
स्मयेन यो$न्यानत्येति धर्मस्थानम्
गर्विताशयः|
सो$त्येति धर्ममात्मीयं
न धर्मो धार्मिकैर्विना ||श्लोक-२६
७. धर्म के नए सदस्य बनाने होंगे -
हमने आज तक विशाल स्तर पर कभी ऐसे प्रयास नहीं किये जिससे अन्य लोग भी जैन बनें | कभी अपनी सेवा आदि के माध्यम से ऐसे उपाय करने होंगे कि अन्य धर्म के लोग जैन धर्म के प्रति आकर्षित हों तथा इस धर्म का पालन करें |
ऐसे अनाथालय , स्कूल आदि विकसित करने होंगे जहाँ रहने, खाने, चिकित्सा आदि की पूर्ण निःशुल्क व्यवस्था हो और जहाँ सभी जाति और समुदाय के हजारों ,लाखों बच्चे पढ़ें | वहां उन्हें जैन संस्कार जन्म से दिए जाएँ और उन्हें आचरण ,पूजन पाठ आदि के प्रति निष्ठावान बनाया जाय | उन्हें जैन संज्ञा देकर उनके तथा उनके परिवार को हम संस्कारित कर सकते हैं | हमारे यहाँ ऐसे मिशन का अकाल है |
आर्य समाज में गुरुकुल में
बच्चों को पढ़ाते हैं और बाद में उनके नाम के आगे ‘आर्य’ यह टाईटिल लिखा जाने लगता
है |आज जब जैन समाज में कई ऐसे विद्यालय तथा छात्रावास भी अर्थाभाव में
बंद होने के कगार पर हैं जहाँ सिर्फ जैन बच्चे पढ़ते हैं और जैनदर्शन पढ़ाया जाता है
वहां यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि अन्य समाज के गरीब बच्चों के लिए वे ये
सुविधाएँ दे पाएंगे और यह विशाल मिशन अपने धर्म की वृद्धि के लिए शुरू कर पाएंगे |
बंगाल और उसके आसपास के इलाकों में सराक जाति के लोग जैन
श्रावक थे,उन्हीं की तरह और भी जातियों का अध्ययन करके उन्हें वापस जैन समाज में
गर्भित करने की विशाल योजनाएं भी बनानी होंगीं।घर वापसी आन्दोलन चलाना होगा तब
जाकर हम जैन समाज का अस्तित्व सुरक्षित कर पाएंगे |
८. न्यूनतम आचार संहिता बनानी होगी -
जैन कहलाने के भी कुछ
न्यूनतम सामान्य मापदंड बनाये जाएँ जैसे जो णमोकार मंत्र जानता है ,मद्य/मांस का त्यागी है और
वीतरागी देव शास्त्र गुरु को ही मानता है वह जैन है |हमें कर्मणा जैन की अवधारणा
को अधिक विकसित करना होगा | यहाँ हम जाति आदि के चक्कर में न फसें तो बेहतर होगा |आचार्य सोमदेव सूरी ने अपने
नीतिवाक्यामृतम् ग्रन्थ में कहा है कि मांस मदिरा आदि
के त्याग से जिसका आचरण पवित्र हो ,नित्य स्नान आदि से जिसका
शरीर पवित्र हो ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणों आदि के समान श्रावक (जैन) धर्म का पालन करने के योग्य है –
‘आचारानवद्यत्वं
शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु
योग्यान्’ |(7/12)
अगर हम विकसित सोच वाले बने
तो जैन धर्म की ध्वजा को पूरे विश्व में फहरा सकते हैं |इस सन्दर्भ में मेरा यह
परिवर्तित नया दोहा हमारा मार्गदर्शक हो सकता है –
‘जात पात पूछे नहीं कोई ,अरिहंत भजे सो जैनी होई’
९. स्वास्थ्य के प्रति सजगता -
जैन धर्म के अनुयायियों को
अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना होगा ,भोजन समृद्धि के अनुसार
नहीं बल्कि स्वास्थ्य के अनुसार लेने की प्रवृत्ति इस दिशा में सुधार ला सकती है | इससे आयु अधिक होगी और
मृत्यु दर कम होगी | जैन योग और ध्यान की अवधारणा का प्रायोगिक विकास करना होगा जो हमें
स्वस्थ्य रखेगा और दीर्घ आयु बनाएगा |
१०. जैन टाइटल का विस्तार और गोत्र दान की परंपरा -
अपने नाम के आगे “जैन” लगाने की प्रवृत्ति को और
अधिक विकसित करना होगा |आज भी अनेक जैन अपने नाम के आगे जैन न लगाकर गोत्र आदि ही लिखते हैं जिससे जैनों की गिनती करने में बहुत परेशानी होती है और वास्तविक आंकड़े सामने नहीं आ पाते । इसके साथ ही जैन धर्म का साधारणीकरण भी करना होगा और उसे जन धर्म बनाना होगा | जो लोग जैन धर्म स्वीकार कर लें उन्हें संस्कार शिविरों,प्रतिष्ठा महोत्सवों में बड़े स्तर पर श्रावक दीक्षा दी जाय , उन्हें भविष्य में जैन समाज में मिलने का अवसर दिया जाय ,इसके लिए कोई प्रतिष्ठित जैन श्रावक उन्हें गोद लेकर उन्हें सार्वजनिक रूप से गोत्र दान करे ।
यदि हम इसी प्रकार कुछ और अन्य उपाय भी विकसित
करें तो हम अपने एक प्रतिशत के लक्ष्य तक तो पहुँच ही सकते हैं, शेष और अधिक के लिए बाद में
अन्य रणनीतियाँ भी बनानी होंगी |
(Written on 2015 and published in various reputed magazines )
….............updated news on 21/09/2021...##@
*रिपोर्ट पढ़ो और जैन समाज के भविष्य के लिए चिंतन करें...*
भारत में बढ़ती जनसंख्या को लेकर अमेरिकी थिंक टैंक ने अपनी शोध रिपोर्ट में बताया गया है भारत में अन्य धर्मों की तुलना में मुस्लिम धर्म के लोग ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं।
मुस्लिम धर्म के बाद हिंदू धर्म दूसरे स्थान पर है।
*इसके अलावा जैन धर्म मानने वाले सबसे कम बच्चे पैदा करते हैं।*
अमेरिका के थिंक टैंक रिसर्च की ताजा शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि हालांकि सभी धर्मों में बच्चों की जन्मदर में बीते वर्षों की तुलना में गिरावट दर्ज की गई है। अमेरिका के Pew Research की यह रिपोर्ट मंगलवार को जारी की गई है।
https://www.naidunia.com/national-muslims-giving-birth-to-more-children-in-india-revealed-in-the-report-of-american-think-tank-7051243
* Prof.Dr ANEKANT
KUMAR JAIN
टिप्पणियाँ
Vese ant me aapne sahi kaha hai
"जात पात पूछे नहि कोइ, अरिहंत भजे सो जैनी होइ।"
Isi baat ko aap barabar samje to aap santaan peda karne k prerna shayad nai karte...ye bilkul अशास्त्रीय tarika hai..
Jain dharma santano ki utpatti se nahi felta..kintu jo santaan hue he unhe jainatva k sanskaar dene se felta hai...aur aur kya aap apne santaan ko santaan utpatti ka dharma batayenge? Ya fir sarvashreshtha sanyam dharma - charutra dharma batayenge??
Jain kul me janma naa liya ho fir bhi jainatva ko jo apanata hai wo jain hi hai..aur aaj to jain kul me janma lene vaale bhi jainatva ka vinash kar rahe hai...unke jeevan me prayah koi jainatva k aachar dikhte nahi..bas khali naam se ve apne aap ko jain kehlate hai...kya aap aise jaino se jaino k sankhya me badhauti karna chahte hai??
Jainatva ko khud apnao aur dusro ko prerna karo..yahi jaino ki sankhya me vruddhi ka sahi upay hai..
आपका लेख हर जैन के लिये विचारणीय हैं, सन्यकदर्शन मे प्रभावना भी एक अंग है, जिसका आशय प्रत्येक जैनी का कर्तव्य है कि वह अपने आचरण से अधिक से अधिक जन मानस को जैनत्व की ओर अग्रसर करे |
The article is very nice..and As usual language is very easy to understand. Various examples and solutions suggested are suitable and guide our society n followers in a right direction...
Bahut Bahut Sadhuwad Apko...
Sudhesh Jain
In today's situation your topic is valuable but here we should not to blame on Jainism means to Jain religion.
We should make one organisation find members and make seminars on different places.
Some of the points we should discuss with our Dharmavharya in personal.
As you wrote today we all go behind money , highest showing our position, because of society.
Your question how to increase Jain population is most important.
I think some our awareness and little guidance from Dharmavharya can give better solution and it makes effect on our thoughts.
For example
If you say any good thing but I will cut your words because of my ego. Instead of this if same thing will provide by DHAACHARYA no comments
Easily most of people welcome there view , even those who oppose.
For current topic we all JAIN no PANTH , GACCH OR anyothany.
Hopefully it may givg powerto we all
JAI JINENDRA
JAI MAHAVEER
PRAKASH BHANSALI
https://youtu.be/YAljR9_qpBo