मध्यकालीन कवियों ने भी छेड़ा था मीट विरोधी आन्दोलन
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
भारत
में हिन्दी के संत कवियों ने अपनी सरल किन्तु सारगर्भित तथा मर्मस्पर्शी वाणी के
द्वारा भारतीय समाज को पाखण्डों, व्यर्थ के क्रियाकाण्डों तथा रूढि़यों
से निजात दिलाने का बहुत बड़ा काम किया था। सिर्फ हिन्दी साहित्य के इतिहास में ही
नहीं, वरन् आज भी भारतीय जनमानस में कबीर, गुरु रविदास,
दादू,
मीरा,
रज्जब,
मलूकदास,
तुकाराम
आदि अनेक संत कवियों के नाम सिर्फ बुद्धि में नहीं अवचेतनात्मक स्तर पर भी अंकित
हैं। इनकी विषेशता थी कि ये किसी सम्प्रदाय से बंधे हुए नहीं थे। जीवन के
छोटे-छोटे अनुभवों से जुड़कर काव्य का सर्जन करते थे और जनमानस को समझाते थे। उनके
इन्हीं अनुभवों का संकलन एक नये जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि बन गया। हिन्दू हो या
मुसलमान, सभी धर्मों में व्याप्त बुराइयों की जमकर आलोचना करते थे। इनके दोहे,
छंद
आज भी भारत के कण-कण में व्याप्त हैं और मनुष्य तथा समाज को जीवन की सच्ची राह
बताते रहते हैं।
इनके साहित्य में एक महत्वपूर्ण बात और देखने
को आयी और वह है मांसाहार का विरोध। इन संतों ने निष्छलता पूर्वक विचार किया कि
समाज में धर्म के नाम पर मांसाहार को प्रश्रय मिला हुआ है जो कि सबसे बड़ा
अधार्मिक कृत्य है और नरक का द्वार है। कबीर ने तो मुसलमानों और वैदिक
कर्मकाण्डियों दोनों को ही फटकार लगायी-
दिन को रोजा रहत है,
रात
हनत है गाय।
येह खून वह बन्दगी,
कहु
क्यों सुखी खुदाय।।
अजामेध, गोमेध
जग्य, अस्वमेध नरमेध।
कहहि कबीर अधरम को,
धरम
बतावे बेद।।1
भगवान महावीर ने ईसा की छठी शताब्दी पूर्व से ही
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए अहिंसा की सूक्ष्म
व्याख्यायें की और जीव हिंसा ही सबसे बड़ा अधर्म है इस बात की घोषणा की थी। चाहे
कितना भी बड़ा धर्म क्यों न हो, अच्छाइयां और बुराइयां हर धर्म में
उपस्थित हो जाती हैं। धर्म अपने आप में एक पवित्र तीर्थ है किन्तु उसको धारण करने
वाले अनुयायी व्यक्तिगत कमजोरियों को धर्म का जामा पहना कर उसे व्याख्यायित करते
हैं और स्वयं के दोषों का आरोप धर्म या सम्प्रदाय पर आ जाता है। धर्म से इन्हीं
कमियों को दूर करने के लिए अनेक महात्माओं ने आलोचनायें की हैं और यही कारण है कि
धर्म उन दलदलों से थोड़ा-बहुत तो बच पाया। भगवान महावीर ने जो अहिंसा,शाकाहार
का क्रान्तिकारी सन्देश दिया उसका जबरजस्त प्रभाव पूरे भारतीय जनमानस पर पड़ा।
उसके स्वर जैन परम्परा में तो गूंजे ही, अन्य परम्पराओं ने भी इस शाश्वत मूल्य
की सहर्ष स्वीकृति दी और उसे अपनाया।
संत रविदास जी कहते हैं कि जीव की
हत्या करके कोई परमात्मा को कैसे पा सकता है? क्या महात्मा,
पैगम्बर
या फकीर कोई भी यह बात हत्यारों को समझाता नहीं है?
‘रविदास’ जीव कूं मारि कर, कैसो मिलंहि
खुदाय।
पीर पैगम्बर औलिया,
कोउ
न कहहू समुझाय।।2
वे आगे कहते हैं-
‘रविदास’ मूंडह काटि करि,
मूरख
कहत हलाल।
गला कटावहु आपना, तउ का होइहि
हाल।।3
रविदास जी कहते हैं कि प्राणियों
का सिर काटकर मूर्ख लोग उसे ‘हलाल’ अर्थात्
धर्मानुकूल हिंसा कहते हैं। जरा अपना सिर कटाकर देखो कि इस तरह सिर कटाने से
तुम्हारा क्या हाल होता है?
इसी प्रकार अन्य कवि सन्तों ने भी जीव हत्या का
घनघोर विरोध किया है। संत दादू कहते हैं-
गल
काटै कलमा भरै, आया बिचारा दीन।
पांचो
बरवत निमाज गुजारैं, स्याबित नहीं अकीन।।4
संत कबीरदास जी कहते हैं-
मुरगी मुल्ला से कहै, जिबह करत है
मोहिं।
साहिब लेखा मांगसी, संकट परिहै
तोहिं।।5
बरबस आनिकै गाय पछारिन, गला काटि जिव आप
लिआ।
जिअत जीव मुर्दा करि डारा, तिसको
कहत हलाल हुआ।।6
संत रविदास कहते हैं-
‘रविदास’ जो आपन हेत ही,
पर
कूं मारन जाई
मलिक के दर जाइ करि, भोगहिं कड़ी
सजाई।।7
प्राणी वध का बड़ा विरोध करते हुए वे कहते हैं
कि-
प्राणी बध नहिं कीजियहि, जीवह
ब्रह्म समान।
‘रविदास’ पाप नंह छूटइ,
करोर गउन करि दान।।8
जीवों की हत्या न करो, जीव ब्रह्म के
समान है (जीव में ब्रह्म का वास है)। रविदास जी कहते हैं कि करोड़ों गौएं दान करने
पर भी जीव हत्या का पाप नहीं छूटता। गायें दान करने से भी जीव हिंसा का पाप नहीं
छूटता यह समझाते हुए कबीरदास जी ने भी कहा-
तिलभर मछरी खाइकै, कोटि
गउ दै दान।
कासी करवत लै मरै, तौ
हू नरक निदान।।9
सभी जीव समान हैं अतः किसी भी जीव का वध नहीं
करना चाहिए- यह बात कबीर रविदास तथा दादू आदि सभी संतों ने मानी है, वे
कहते हैं-
‘रविदास’ जीव मत मारहिं,
इक साहिब सभ मांहि।
सभ मांहि एकउ आत्मा,
दूसरह कोउ नांहि।।10
कबीर के शब्दों में-
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै।11
दादू कहते हैं-
काहे कौ दुख दीजिये, सांई है सब मांहि।
दादू एकै आत्मा,
दूजा कोई नांहि।।12
(दादू) कोई काहू
जीव की, करै आतमा घात। साच कहू संसा नहीं, सो
प्राणी दोजगि जात।।13
जो जीव मांस खाते हैं, उन्हें नरक में
जाना पड़ता है यह बात कबीर और रविदास दोनों मानते हैं। रविदास कहते हैं-
अपनह
गीव कटाइहिं, जौ मांस पराया खांय।
‘रविदास’
मांस जौ खात हैं, ते नर नरकहिं जांय।।14
एक और दोहा देखिए-
दयाभाव हिरदै नहीं, भरवहिं
पराया मास।
ते
नर नरक मंह जाइहिं, सत्त भाशै रविदास।।15
कई मत सिर्फ गाय का मांस त्यागने पर जोर देते
हैं, इस पर कबीरदास जी कहते हैं-
मांस मांस सब एक है, मुरगी
हिरनी गाय।
आंखि देखि नर खात हैं, ते नर नरकहिं जाय।।16
एक और दोहा देखिए-
कबीर पापी पूजा बैसि करि, भखै
मांस मद दोइ।
तिनकी देखी मुक्ति नहीं, कोटि
नरक फल होइ।।17
रविदास जी तो स्पष्ट कहते हैं कि जो अपने शरीर
के पोषण के लिए गाय, बकरी आदि का मांस खाते हैं, वे
कभी भी स्वर्ग की प्राप्ति नहीं कर सकते, चाहे वे कितनी ही बार नमाज क्यों न
पढ़ते रहें-
‘रविदास’ जउ पोषणह हेत,
गउ बकरी नित खाय।
पढईं नमाजै रात दिन,
तबहुं भिस्त न पाय।।18
उनके अन्य दोहे भी ऐसा ही कटाक्ष करते हैं-
‘रविदास’ जिभ्या स्वाद बस,
जउ मांस मछरिया खाय।
नाहक जीव मारन बदल, आपन
सीस कटाय।।19
जीवन कूं मुरदा करहिं, अरू
खाइहिं मुरदार।
मुरदा सम सभ होइहिं, कहि ‘रविदास’ विचार।।20
अर्थात् जो जीवित को मुर्दा कर देता है और
मुर्दे को खाते हैं वे सभी मुर्दे जैसे ही हो जायेगे।
इसी प्रकार और भी अनेक दोहे हैं जिनमें शाकाहार
का सन्देष कवियों ने जनता जनार्दन को दिया। जैन तीर्थंकरों और जैनाचार्यों की वाणी
का प्रभाव इन कवियों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। यह बात भी सही है कि शाकाहार के विषय
में जितनी दृढ़ता जैनधर्म ने दिखलायी उतनी अन्य धर्मों ने नहीं दिखलायी। मानवीय
मूल्यों की रक्षा करने में जैनधर्म और उसकी आचार पद्धति का अप्रतिम योगदान मानव
जाति के ऊपर रहा है यह बात कवियों के इन दोहों में भी प्रतिबिम्बित होती है।
Note- If you want to publish this article in your magazine or news paper please send a request mail to - anekant76@gmail.com - for author permission.
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