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‘गो रक्षा और जैन धर्म’

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सादर प्रकाशनार्थ-

‘गो रक्षा और जैन धर्म’
-डॉ अनेकांत कुमार जैन 
anekant76@gmail.com 

जैन धर्म का मूल अहिंसा है अतः जैन धर्म सभी जीवों की हत्या और उनके मांस सेवन का कड़ा निषेध करता है | वे सिर्फ गाय ही नहीं बल्कि किसी भी पशु-पक्षी को कष्ट नहीं पहुँचाते ।यह सही है कि चूँकि जैन धर्म में मात्र वीतरागता की ही पूजा की जाती है अतः वे गाय की अर्घ चढ़ा कर पूजा अर्चना नहीं करते हैं और न ही इस बात पर विश्वास करते हैं कि उसमें ३३ करोड़ देवी देवताओं का वास है और न ही यह मानते हैं कि परलोक में वैतरणी नदी उसकी पूँछ पकड़ कर ही पार की जाती है |इस विषय में जैन धर्म बहुत यथार्थवादी है,वह इसे जरूरी नहीं मानता कि किसी को सम्मान देने के लिए उसमें किसी भी प्रकार की धार्मिक आस्था या देवत्व की स्थापना की ही जाय |

जैन उसे एक पवित्र पशु अवश्य मानते हैं तथा उसका माता के समान सम्मान भी करते हैं | उसकी बहुविध उपयोगिता के कारण अन्य पशुओं की अपेक्षा उसके प्रति जैनों में बहुमान भी अधिक है |जैन मुनियों की पवित्र एवं कठिन आहारचर्या में भी तुरंत दुहा हुआ और मर्यादित समय में उष्ण किया हुआ गो दुग्ध श्रेयस्कर माना गया है |

तीर्थंकर ऋषभदेव के काल से ही जैन गो रक्षा में सक्रिय हैं । उन्होंने कृषि करो और ऋषि बनो का सन्देश दिया था |उस काल में विशाल गोशालाएँ निर्मित हुईं और गो पालन को जीवन शैली बनाया गया । सभी पशुओं सहित गायों पर भी क्रूरता, उन्हें भूखा रखना, बोझ से लादना, अंग भंग, सभी पर कानूनी प्रतिबंध था ।

अर्धमागधी प्राकृत भाषा में रचित जैन आगमों के अनुसार महावीर के काल में गायों की संख्या से किसी के धन का आकलन होता था । एक व्रज गौकुल में दस हज़ार( १०,०००) गायें होती थीं । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ के वैशाली गणराज्य में सर्वाधिक गायों के १० स्वामियों को ‘राजगृह महाशतक’ एवं ‘काशिय -चुलनिपिता’ कहा जाता था ।महावीर ने अपने प्रत्येक अनुयायियों को ६०,००० गायों के पालन का उपदेश दिया था ।भगवान् महावीर के प्रमुख  भक्त आनंद श्रावक ने  आठ गोकुल संचालित करने का संकल्प लिया था ।

आज भी पूरे देश में जैन समाज द्वारा लगभग पांच हज़ार से अधिक गो शालाएं संचालित हैं | जैन समाज गो रक्षा के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए खर्च करती है |

जैन आगमों में हजारों प्रसंगों में गो वत्स सम प्रीति का उदाहरण दिया गया है ,जैन महापुराण में अच्छे श्रोता के लक्षण में यह बताया गया है कि जिस प्रकार गाय तृण खाकर दूध देती है उसी प्रकार जो थोडा उपदेश सुन कर बहुत लाभ लिया करते हैं वे श्रोता गाय के समान होते हैं |(महापुराण १/१३९ ) इस प्रकार के हजारों प्रमाण जैन साहित्य में मौजूद हैं जहाँ गाय को बहुत उत्कृष्ट दर्जा दिया गया है | अहिंसा के अनेक प्रतीक चिन्हों में यह दर्शाया गया है कि महावीर की अहिंसा के प्रभाव से शेर और गाय एक ही घाट में एक साथ पानी पीने लगे थे |

अनेक जैन श्रावक डेरी का दूध इसलिए नहीं पीते हैं क्यूँ कि वहां गाय के थन मशीन लगा कर जबरन दूध निकाला जाता है | जब बछड़ा पहले अपना पेट भर ले उसके बाद जो दूध प्रीती पूर्वक गाय हमें निकालने दे जैन धर्म में वही गो दुग्ध ग्रहण करने योग्य माना गया है| जैन परंपरा में मांसाहारी पशु पक्षियों को पालना दोषपूर्ण तथा कर्मबंध का कारण माना गया है किन्तु गो पालन की अनुमति है | 

वर्तमान के महान जैनाचार्य पूज्य विद्यासागर महाराज  जी की पावन प्रेरणा से उनके अनुयायी पिछले  दो-तीन दशकों से मांस निर्यात विरोधी आन्दोलन कर रहे हैं |उन्हीं की प्रेरणा से अनेक गो शालाएं संचालित हो रही हैं | आज भी उनके प्रवचन के पूर्व अनेक श्रावकों द्वारा गोदान की घोषणा और संकल्प करने की परंपरा प्रचलित है ।उन्हीं ने वर्तमान सरकार से मांग की है कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाय तथा रुपयों पर गाय का चित्र प्रकाशित किया जाय | वर्तमान में लगभग ६००० दिगंबर एवं श्वेताम्बर जैन संत नगर नगर गाँव गाँव में पैदल नंगे पैर भ्रमण कर भारतीय समाज को शाकाहार ,गौ पालन का सन्देश लगातार दे रहे हैं |

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