सादर प्रकाशनार्थ -
संस्कृत भाषा को धर्म से जोड़कर देखना गलत है -डॉ अनेकांत कुमार जैन
संस्कृत को किसी धर्म ,जाति,क्षेत्र के रूप में देखना अज्ञानता है |इसे किसी भी राजनैतिक दल से भी जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए |संस्कृत भाषा में गैर धार्मिक साहित्य भी अत्यधिक मात्रा में है|पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह जी ने भी विश्व संस्कृत सम्मलेन में मेरे सामने विज्ञान भवन में स्पष्ट कहा था "संस्कृत भारत की आत्मा है' |नेहरूजी ने भी संस्कृत का महत्त्व 'भारत एक खोज'में बताया है |
दिक्कत तब होती है जब लोग संस्कृत को मात्र वेद और वैदिक संस्कृति से ही जोड़ कर देखते हैं |संस्कृत कभी सांप्रदायिक भाषा नहीं रही |जैन एवं बौद्ध धर्म दर्शन के हजारों ग्रन्थ मात्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं | आज मोदी सरकार ने राष्ट्र भाषा हिंदी को तवज्जो दी है उसी प्रकार वो संस्कृत प्राकृत तथा पालि भाषा को भी भारतीय शिक्षा पद्धति का अंग बनाना चाहते हैं तो हमें उनका साथ देना चाहिए |
आश्चर्य तो ये है कि जब संस्कृत को हटाया जा रहा था तो किसी ने आवाज बुलंद नहीं की आज जब संस्कृत के अच्छे दिन आ रहें हैं तो तकलीफ हो रही है |इसके साथ साथ संस्कृत के विद्वानों को यह भी समझना होगा कि वैदिक संस्कृति भारत का एक महत्वपूर्ण पक्ष है सम्पूर्ण भारत नहीं |श्रमण संस्कृति के आचार्यों के द्वारा रचित संस्कृत साहित्य की उपेक्षा करके भारतीय संस्कृति की बातें करना बेमानी होगी |आज अधिकांश संस्कृत विभागों तथा विश्वविद्यालयों में जैनाचार्यों द्वारा रचित काव्य,नाटक,व्याकरण,पुराण आदि ग्रन्थ कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता |परोक्ष रूप से उनकी यह उपेक्षा कहीं न कहीं इसलिए भी है क्यों कि उनके प्रतिपाद्य विषय वैदिक संस्कृति की विचारधारा से कई मामलों में स्वर से स्वर नहीं मिलाते हैं |उन्हें भी विचार तो करना ही पड़ेगा कि वे वास्तव में भाषा का विकास चाहते हैं कि इस बहाने अपनी विचारधारा का प्रभुत्व |ठीक वैसे ही जैसे कि उर्दू या फारसी के बहाने लोग इस्लाम को आगे बढाने का प्रयास करते हैं |इस प्रवृत्ति से सबसे बड़ा नुकसान भाषा को अपने वजूद के साथ उठाना पड़ता है |उसे अपने धार्मिक साहित्य के कारण किसी का अति प्रेम झेलना पड़ता है तो किसी की अति नफरत |भाषा के मामले में हमें सम्प्रदायवादी सोच से ऊपर उठ कर सोचना ही होगा |यदि किसी भाषा ने किसी धार्मिक साहित्य को संवर्धित किया है तो यह उसका उपकार है अपराध नहीं |इसी प्रकार जर्मन या अन्य कोई भाषा के साथ भी उपेक्षा का वर्ताव नहीं होना चाहिए |लेकिन मुख्यता और गौणता तो होती ही है न |जर्मनी से कहो कि तुम जर्मनी हटा कर संस्कृत लगा दो ,तो क्या यह संभव है ?
नहीं |हर राष्ट्र को अपनी भाषाओँ का ही विकास पहले करना चाहिए |अन्य भाषाओँ का सम्मान करें और उन्हें जो सीखना चाहे उसके लिए पूरी अनुकूलता होनी चाहिए |
मेरा तो पूरा विश्वास है कि जो भी संस्कृत और प्राकृत भाषा को जानता है वह विश्व की कोई भी भाषा पर जल्दी अधिकार प्राप्त कर सकता है |
स्कूलों में संस्कृत भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने का जो अभूतपूर्व निर्णय माननीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी जी ने लिया है वह अभिनंदनीय है |भारतीय संस्कृति और मूल्यों को समझाने के लिए संस्कृत पूरे भारत की भाषा रही है |संस्कृत भाषा में भारत की वैदिक और श्रमण संस्कृति के सभी आचार्यों ने दर्शन ज्ञान और विज्ञान के अद्वितीय ग्रंथों की रचना की है और आज भी लगातार इस भाषा में ग्रंथों की रचना हो रही है | भारत में संस्कृत के साथ साथ लोकभाषा के रूप में प्राकृत भाषा भी समानांतर रूप से रही है |इस भाषा में भी हजारों साहित्य,आगमों और ग्रंथों का प्रणयन हुआ है |भारतीय जीवन मूल्य ,दर्शन ,ज्ञान, विज्ञान की अद्वितीय संपदा इस साहित्य में है |लोग संस्कृत को तो जानते भी हैं लेकिन प्राकृत भाषा का नाम भी नहीं जानते |वह प्राकृत भाषा जिसने लगभग सभी भारतीय भाषाओँ और बोलियों को जन्म दिया है |सम्राट अशोक आदि ने अनेक शिलालेख इसी भाषा में खुदवाए हैं और कालिदास –शूद्रक जैसे संस्कृत नाटककारों ने अपने साहित्य में इस भाषा का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है |प्रथम शताब्दी में रची गई रचनाएँ गाहासप्तसती,समयसार,आचारांग आदि बेजोड़ हैं |इस भाषा में भूगोल,खगोल,भौतिकविज्ञान,रसायन विज्ञान,चिकित्सा विज्ञान,गणित शास्त्र,व्याकरण,ज्योतिष आदि के चमत्कृत कर देने वाले अनेक ग्रन्थ हैं | इसी के साथ मेरा एक विनम्र निवेदन यह है कि स्कूलों में जब संस्कृत अनिवार्य रूप से पढाई जाय तब उसमें एक एक अध्याय प्राकृत भाषा,व्याकरण और साहित्य के परिचय के रूप में अवश्य पढ़ाया जाय |इससे बच्चे भारतीय संस्कृति और विज्ञान के एक गौरवमयी इतिहास से परिचित हो सकेंगे |
संस्कृत भाषा को धर्म से जोड़कर देखना गलत है -डॉ अनेकांत कुमार जैन
संस्कृत को किसी धर्म ,जाति,क्षेत्र के रूप में देखना अज्ञानता है |इसे किसी भी राजनैतिक दल से भी जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए |संस्कृत भाषा में गैर धार्मिक साहित्य भी अत्यधिक मात्रा में है|पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह जी ने भी विश्व संस्कृत सम्मलेन में मेरे सामने विज्ञान भवन में स्पष्ट कहा था "संस्कृत भारत की आत्मा है' |नेहरूजी ने भी संस्कृत का महत्त्व 'भारत एक खोज'में बताया है |
दिक्कत तब होती है जब लोग संस्कृत को मात्र वेद और वैदिक संस्कृति से ही जोड़ कर देखते हैं |संस्कृत कभी सांप्रदायिक भाषा नहीं रही |जैन एवं बौद्ध धर्म दर्शन के हजारों ग्रन्थ मात्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं | आज मोदी सरकार ने राष्ट्र भाषा हिंदी को तवज्जो दी है उसी प्रकार वो संस्कृत प्राकृत तथा पालि भाषा को भी भारतीय शिक्षा पद्धति का अंग बनाना चाहते हैं तो हमें उनका साथ देना चाहिए |
आश्चर्य तो ये है कि जब संस्कृत को हटाया जा रहा था तो किसी ने आवाज बुलंद नहीं की आज जब संस्कृत के अच्छे दिन आ रहें हैं तो तकलीफ हो रही है |इसके साथ साथ संस्कृत के विद्वानों को यह भी समझना होगा कि वैदिक संस्कृति भारत का एक महत्वपूर्ण पक्ष है सम्पूर्ण भारत नहीं |श्रमण संस्कृति के आचार्यों के द्वारा रचित संस्कृत साहित्य की उपेक्षा करके भारतीय संस्कृति की बातें करना बेमानी होगी |आज अधिकांश संस्कृत विभागों तथा विश्वविद्यालयों में जैनाचार्यों द्वारा रचित काव्य,नाटक,व्याकरण,पुराण आदि ग्रन्थ कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता |परोक्ष रूप से उनकी यह उपेक्षा कहीं न कहीं इसलिए भी है क्यों कि उनके प्रतिपाद्य विषय वैदिक संस्कृति की विचारधारा से कई मामलों में स्वर से स्वर नहीं मिलाते हैं |उन्हें भी विचार तो करना ही पड़ेगा कि वे वास्तव में भाषा का विकास चाहते हैं कि इस बहाने अपनी विचारधारा का प्रभुत्व |ठीक वैसे ही जैसे कि उर्दू या फारसी के बहाने लोग इस्लाम को आगे बढाने का प्रयास करते हैं |इस प्रवृत्ति से सबसे बड़ा नुकसान भाषा को अपने वजूद के साथ उठाना पड़ता है |उसे अपने धार्मिक साहित्य के कारण किसी का अति प्रेम झेलना पड़ता है तो किसी की अति नफरत |भाषा के मामले में हमें सम्प्रदायवादी सोच से ऊपर उठ कर सोचना ही होगा |यदि किसी भाषा ने किसी धार्मिक साहित्य को संवर्धित किया है तो यह उसका उपकार है अपराध नहीं |इसी प्रकार जर्मन या अन्य कोई भाषा के साथ भी उपेक्षा का वर्ताव नहीं होना चाहिए |लेकिन मुख्यता और गौणता तो होती ही है न |जर्मनी से कहो कि तुम जर्मनी हटा कर संस्कृत लगा दो ,तो क्या यह संभव है ?
नहीं |हर राष्ट्र को अपनी भाषाओँ का ही विकास पहले करना चाहिए |अन्य भाषाओँ का सम्मान करें और उन्हें जो सीखना चाहे उसके लिए पूरी अनुकूलता होनी चाहिए |
मेरा तो पूरा विश्वास है कि जो भी संस्कृत और प्राकृत भाषा को जानता है वह विश्व की कोई भी भाषा पर जल्दी अधिकार प्राप्त कर सकता है |
स्कूलों में संस्कृत भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने का जो अभूतपूर्व निर्णय माननीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी जी ने लिया है वह अभिनंदनीय है |भारतीय संस्कृति और मूल्यों को समझाने के लिए संस्कृत पूरे भारत की भाषा रही है |संस्कृत भाषा में भारत की वैदिक और श्रमण संस्कृति के सभी आचार्यों ने दर्शन ज्ञान और विज्ञान के अद्वितीय ग्रंथों की रचना की है और आज भी लगातार इस भाषा में ग्रंथों की रचना हो रही है | भारत में संस्कृत के साथ साथ लोकभाषा के रूप में प्राकृत भाषा भी समानांतर रूप से रही है |इस भाषा में भी हजारों साहित्य,आगमों और ग्रंथों का प्रणयन हुआ है |भारतीय जीवन मूल्य ,दर्शन ,ज्ञान, विज्ञान की अद्वितीय संपदा इस साहित्य में है |लोग संस्कृत को तो जानते भी हैं लेकिन प्राकृत भाषा का नाम भी नहीं जानते |वह प्राकृत भाषा जिसने लगभग सभी भारतीय भाषाओँ और बोलियों को जन्म दिया है |सम्राट अशोक आदि ने अनेक शिलालेख इसी भाषा में खुदवाए हैं और कालिदास –शूद्रक जैसे संस्कृत नाटककारों ने अपने साहित्य में इस भाषा का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है |प्रथम शताब्दी में रची गई रचनाएँ गाहासप्तसती,समयसार,आचारांग आदि बेजोड़ हैं |इस भाषा में भूगोल,खगोल,भौतिकविज्ञान,रसायन विज्ञान,चिकित्सा विज्ञान,गणित शास्त्र,व्याकरण,ज्योतिष आदि के चमत्कृत कर देने वाले अनेक ग्रन्थ हैं | इसी के साथ मेरा एक विनम्र निवेदन यह है कि स्कूलों में जब संस्कृत अनिवार्य रूप से पढाई जाय तब उसमें एक एक अध्याय प्राकृत भाषा,व्याकरण और साहित्य के परिचय के रूप में अवश्य पढ़ाया जाय |इससे बच्चे भारतीय संस्कृति और विज्ञान के एक गौरवमयी इतिहास से परिचित हो सकेंगे |
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