मधुर स्नेह
आजकल तुम जिस दौर से गुजर रही हो उसका मुझे
अहसास है ।उम्र के इस उफान पर जिस प्रकार हमें अपनी पढाई और कैरियर के प्रति सजग
रहना आवश्यक है उसी प्रकार प्यार के रिश्तों संबंधों से निर्मित अपने पारिवारिक और
सामाजिक परिवेश के प्रति भी बहुत सजगता जरूरी है ।दोनों ही स्थितिओं में हमें बड़ों
के अनुभवों का लाभ उठाना आना चाहिए। आज तुम्हारी जो भावनात्मक और पारिवारिक स्थिति है वैसी स्थिति
कमोवेश हर लड़की की होती है ।
आज तुम अपने पैरों पर खड़ी हो और विवाह के प्रसंग पर स्व-चयनित
वर से ही करने की जिद घर वालों के सामने रखी है ।एक ऐसा वर जिसकी पृष्ठभूमि अपने
धर्म संस्कृति से बिलकुल जुदा है और तुम्हारी हर जिद और इच्छा की पूर्ती में तत्पर
तुम्हारे माता पिता सहित सभी अभिभावक आज तुम्हारी इस जिद को नहीं मान रहे हैं तो
तुम्हें वे बहुत बुरे लग रहे हैं ।
प्यार करना बुरी बात नहीं है ।जब नयी जवानी का सावन आता है
और घटायें घुमड़ घुमड़ कर बरसती हैं तो बारिस सब कुछ भिगो देती है तब ऐसे मौसम में बारिश
में भीगना कोई जुर्म नहीं है ।मैं इस निश्छल प्रेम को अपराध न मानकर मानवीय स्वभाव
मानता हूँ ।किन्तु कभी कभी यह असहज भावनात्मक आवेश सैक्स और वासना के रूप में
हमारे जीवन में कुछ अजीब तरह के नाटकीय ढंग से सामने आता है कि हम उसे ही सच्चा
प्यार समझने लगते हैं । उसका प्रभाव हमारे दिल और दिमाग पर इस कदर छाने लगता है कि
हमें उसके सिवा पूरी दुनिया दुश्मन नज़र आने लगती है ।यहाँ तक कि वे भी जो हमसे
प्रेम करते हैं और सिर्फ हमारा हित चाहते हैं ।सुना है वो तुम्हें इतना चाहता है
कि घर का इकलौता होते हुए भी तुम्हारे लिए अपने माता पिता ,भाई,बहन ,धर्म आदि सब
कुछ ठुकराने को तैयार है |किसी दूसरे शहर में अपनी नयी दुनिया बसाएगा |मुझे
आश्चर्य है और तरस आता है तुम्हारी इस समझ पर कि तुम इसे उसका स्वयं के प्रति
सच्चा समर्पण और प्यार समझ रही हो ?क्या हो गया है तुम्हें ?इतनी उच्च शिक्षा के
बाद भी क्या तुम्हें इतना समझ नहीं आया कि यह प्रेम नहीं स्वार्थ है |अरे ! जो
अपनों का न हो सका वो तुम्हारा क्या होगा |तुम्हारा उसका परिचय तो कुछ वर्षों का
ही हो सकता है लेकिन अपने माँ बाप के अनंत उपकार और प्यार को वो तुम्हारे मोह में
एक क्षण में भूल गया ? ये प्रेम नहीं नशा है जो कभी भी उतर सकता है और यकीन मानो
इस प्रकार का नशा विवाह के बाद उतरता ही है |लेकिन तब तक बहुत देर भी हो जाती है |
मैं
प्रेम का प्रबल समर्थक होते हुए भी हमेशा यही कहता हूँ कि पारिवारिक दायित्वों और
मूल्यों की बलि चढ़ा कर प्रेम विवाह कभी नहीं करना चाहिए ।सच्चा प्रेम भी होता है लेकिन
इसकी परिणति या सार्थकता विवाह में ही पूर्ण होती है यह किसने समझा दिया ?
तुम्हें मैं कैसे समझाऊं कि सिर्फ प्यार
का नाम जिन्दगी नहीं है ।प्यार सिर्फ उसका एक अनिवार्य अंग है ।जो जरूरी तो है पर
वह अकेला जिन्दगी के सफर का संवाहक नहीं है ।जिन्दगी में अपने लोगों के प्रेम और
विश्वास को भी तबज्जो देनी पड़ती है ।धन;पैसा;समाज ;जाति;कुल;गोत्र;धर्म संस्कृति परिवार रिश्ते - ये सब अर्थहीन नहीं हैं ।
इनकी समग्रता से ही एक जीवन का निर्माण होता है । एक जिम्मेदार और समझदार युवा
सिर्फ क्षणिक भावुकता के लिए इन सभी को छद्म आधुनिकता की आड़ में तिलांजलि नहीं दे
सकता ।
प्रेम विवाह के उपरांत भी तुम्हें संसार में इन सभी की आवश्यकता तो पड़ेगी ही | यथार्थ रूप से इनके बिना जीवन संभव ही नहीं दिखाई देगा । लिव-इन की संस्कृति भी कोई बाहर से आयातित नहीं है ।भारतीय संस्कृति के असामाजिक कृत्यों में यह परंपरा ‘रखैल’ के रूप में पाई जाती है ।कुछ स्वार्थी लोग बस नाम बदलकर इस दुराचार को आधुनिकता के नाम पर अपनी वासना पूर्ती का साधन बना रहे हैं ।आश्चर्य यह है कि इसकी सामाजिक स्वीकृति भी चाहते हैं ।‘पहले इस्तेमाल करें ,फिर विश्वास करें’-यह पाश्चात्य जीवन दर्शन हो सकता है,भारतीय जीवन दर्शन तो कतई नहीं है | हम पहले विश्वास करते हैं,फिर कर्तव्य का पालन करते हैं,समर्पण करते हैं ,जिसे अपना माना है उसके लिए अपने सुख का भी त्याग करते हैं और इसे ही प्यार कहते हैं |सार्वजानिक स्थलों पर गले में हाथ डाल कर घूमना ,गले मिलना और चुम्बन लेने को प्यार की संज्ञा देने वाली अन्दर से हताश और निराश पीढ़ी शायद ही यह समझ पाए कि त्याग और समर्पण की क्या कीमत होती है और प्रेम की अतुल गहराइयाँ कैसे नापी जाती हैं |
प्रेम विवाह के उपरांत भी तुम्हें संसार में इन सभी की आवश्यकता तो पड़ेगी ही | यथार्थ रूप से इनके बिना जीवन संभव ही नहीं दिखाई देगा । लिव-इन की संस्कृति भी कोई बाहर से आयातित नहीं है ।भारतीय संस्कृति के असामाजिक कृत्यों में यह परंपरा ‘रखैल’ के रूप में पाई जाती है ।कुछ स्वार्थी लोग बस नाम बदलकर इस दुराचार को आधुनिकता के नाम पर अपनी वासना पूर्ती का साधन बना रहे हैं ।आश्चर्य यह है कि इसकी सामाजिक स्वीकृति भी चाहते हैं ।‘पहले इस्तेमाल करें ,फिर विश्वास करें’-यह पाश्चात्य जीवन दर्शन हो सकता है,भारतीय जीवन दर्शन तो कतई नहीं है | हम पहले विश्वास करते हैं,फिर कर्तव्य का पालन करते हैं,समर्पण करते हैं ,जिसे अपना माना है उसके लिए अपने सुख का भी त्याग करते हैं और इसे ही प्यार कहते हैं |सार्वजानिक स्थलों पर गले में हाथ डाल कर घूमना ,गले मिलना और चुम्बन लेने को प्यार की संज्ञा देने वाली अन्दर से हताश और निराश पीढ़ी शायद ही यह समझ पाए कि त्याग और समर्पण की क्या कीमत होती है और प्रेम की अतुल गहराइयाँ कैसे नापी जाती हैं |
प्रेम विवाह
भी उचित हो सकता है किन्तु उसकी सफलता भी उसमें निहित मूल्यों पर आधारित होती है
उसके अभाव में औसतन इसके पुराने परिणाम बहुत अच्छे नहीं पाए गए हैं। सामाजिक विवाह
भी सारे सफल ही होते हों ऐसा भी नहीं है किन्तु उसकी जिम्मेवारी सभी की बनती है और
औसतन वे किन्हीं अज्ञात कारणों से ज्यादा सफल पाए गए हैं।तुम्हें शायद कभी कोई
अनुभवी यह समझा पाए कि प्रेमविवाह उस कल्पनाशील प्रेम की दर्दनाक समाप्ति का नाम है।
यथार्थ के धरातल पर प्रेम का वृक्ष यकायक
उत्पन्न नहीं होता वो शनैः शनैः धूप गर्मी पानी वायु के सिंचन से अंकुरित होकर
पहले पौधा बनता है फिर वर्षों में वृक्ष । तब जाकर उम्र भर छाया और फल देता है
।दुनिया बहुत बड़ी है और समय रहते बात समझ में भाग्य से ही आती है ।
आजकल के माता पिता भी बहुत असहाय होते हैं उन्हें मालूम है कि तुम्हारा प्रेम और विवाह दोनों ही तुम्हारे लिए हितकारी नहीं है फिर भी उन्हें तुम्हारा जिन्दा रहना ज्यादा प्यारा है अतः दिल पर पत्थर रखकर भी हो सकता हैं अंत में हमेशा की तरह तुम्हारी यह जिद भी पूरी कर दें किन्तु वो बात तुम्हें इसलिए समझनी होगी क्यूँ कि जीवन तुम्हारा है और अभी भी समय है।बाद में ऐसा न हो सिवा पछताने के कोई विकल्प ही बाकी न रह जाये ।
आजकल के माता पिता भी बहुत असहाय होते हैं उन्हें मालूम है कि तुम्हारा प्रेम और विवाह दोनों ही तुम्हारे लिए हितकारी नहीं है फिर भी उन्हें तुम्हारा जिन्दा रहना ज्यादा प्यारा है अतः दिल पर पत्थर रखकर भी हो सकता हैं अंत में हमेशा की तरह तुम्हारी यह जिद भी पूरी कर दें किन्तु वो बात तुम्हें इसलिए समझनी होगी क्यूँ कि जीवन तुम्हारा है और अभी भी समय है।बाद में ऐसा न हो सिवा पछताने के कोई विकल्प ही बाकी न रह जाये ।
समझना कि प्रेम का वास्तविक अर्थ प्राप्ति नहीं त्याग है
।यह अभी तुम्हारी १८-२० साल की उम्र शायद तुम्हें समझने न दे लेकिन समझना पड़ेगा ।यह
वह परीक्षा है जहाँ परीक्षार्थी भी तुम हो और परीक्षक भी तुम हो ।चाहो तो पास हो
जाओ नहीं तो विधि और नियति को जो मंजूर है होगा वह ही ।देखो अब निर्णय तुम्हारे
हाथ में है| मैंने इस विषय पर किसी जोर जबरजस्ती पर कभी यकीन नहीं किया और न
करूंगा लेकिन कुछ समझाने का भाव सिर्फ इसीलिए व्यक्त किया है कि मुझे यह मलाल न
रहे और तुम कभी यह शिकायत न करो कि पहले क्यों नहीं बताया |घर के सभी सदस्यों ने
तो यही कहा है कि तुम्हें समझाना निरर्थक है ,अब भले ही हो पर मुझे दुःख रहेगा कि
तुमने अपने जीवन पर हम किसी को कोई अधिकार नहीं दिया सिवाय खुद के और उसके |पता नहीं इतने आधुनिक ख्यालातों का
होते हुए भी मैं तुम्हारे इस निर्णय पर अपनी सहमति क्यों नहीं रख पा रहा हूँ ?मुझे आधुनिकता और प्राचीनता से कोई
आग्रह नहीं है |हमें तो मूल्यपरक,सुखी और सफल जीवन चाहिए और वो जिन नियमों से
मिलें हमें वह अपना लेने चाहिए|
इस विस्तृत प्रवचन के बाद भी मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारा आंकलन सही निकले और तुम हमेशा सुखी रहो ।
इस विस्तृत प्रवचन के बाद भी मैं तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारा आंकलन सही निकले और तुम हमेशा सुखी रहो ।
शेष शुभ
तुम्हारा
बड़ा भाई
तुम्हारा
बड़ा भाई
अनेकांत कुमार जैन
Prof ANEKANT KUMAR JAIN
JIN FOUNDATION
A93/7A, Prakrit Vidya Bhavan ,BEHIND NANDA
HOSPITAL ,
CHATTARPUR EXTENSION ,
NEW DELHI-110016
drakjain2016@gmail.com
टिप्पणियाँ
व प्यार को समझाने मे सक्षम है । दिल को छूने वाली प्रस्तुति ।
आपका उत्तम जैन ( विद्रोही)