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जैन योग : भारत की मूल परंपरा

जैन योग विद्या  :  भारत की मूल परंपरा प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन भारत की दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा  का मूल लक्ष्य है - दुःख से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति ।  इसीलिए लगभग सभी भारतीय धर्म तथा दर्शन योग साधना  को  मुक्ति के उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं भले ही उनके बाह्य रूप कुछ अलग-अलग हों । भारत के परम तपस्वी ऋषि-मुनियों ने अपनी आत्मानुभूति के लिए सम्यग्ज्ञान तथा अन्तर्दृष्टि के विकास के लिए इसी योग-साधना का आश्रय लिया था । वास्तव में योग भारतीय परंपरा की एक समृद्ध देन है । भारत में प्राचीन काल से ही जैन परंपरा ने योग एवं ध्यान विषयक महत्वपूर्ण अवदान दिया है किन्तु कई प्रयासों के बाद भी आज तक जैन योग की समृद्ध परंपरा को विश्व के समक्ष प्रभावक तरीके से इस प्रकार नहीं रखा गया कि २१ जून को विश्वयोग दिवस पर व्यापक स्तर पर जैन योग की भी चर्चा हो । यह दुःख का विषय है कि पूरा विश्व योग दिवस मना रहा है और कभी कभी तो उसमें योग ध्यान को महत्वपूर्ण योगदान देने वाली प्राचीन जैन योग परंपरा का उल्लेख तक नहीं किया जाता है  । यूनेस्को ने २१ जून को विश्व योग दिवस की घोषणा करके

ऑनलाइन शिक्षण : वैसाखी को पैर न समझें

*वैसाखी को पैर न समझें* *डॉ अनेकान्त जैन*,नई दिल्ली एक बड़े विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर जो कि स्वयं जैन हैं और बुंदेलखंड से हैं , बुंदेलखंड की जैन सामाजिक धार्मिक स्थिति पर डाटा एकत्रित करके एक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने लिखा है कि 75℅ बुंदेलखंड के जैन युवा धर्म में कोई रुचि नहीं रखते ।  पता नहीं आप इन आंकड़ों से कितने सहमत हैं ?  यदि धर्म का गढ़ समझे जाने वाले इस क्षेत्र की यह स्थिति है तो अन्य प्रदेश की क्या हालत होगी विचारणीय है ।   कल श्रुत पंचमी पर ऑनलाइन और ऑफ लाइन हज़ारों कार्यक्रम हुए , मैंने कुछ परिचित उन जैन इंजीनियर,डॉक्टर और अन्य विद्यार्थियों से जो दिनभर इंटरनेट पर मशगूल रहते हैं , शाम को यूं ही पूछ लिया कि आज जैन परंपरा का कौन सा उत्सव है तो वे अवाक रह गए ।  एक दो ने तो यह कह दिया कि आज महावीर जयंती है ।  इससे यह पता लगा कि समाज में पढ़े लिखे मूर्ख युवाओं की कमी नहीं है जिन्हें निज संस्कृति धर्म और सभ्यता का बोध तो दूर लगाव तक नहीं है । यदि सच्चे आंकड़े एकत्रित किये जायें तो हमें पता लगेगा कि हमारा धुंआधार प्रचार भी मात्र 10% जैनों पर ही असर डालता है ,वो भी सिर

श्रुत पंचमी प्राकृत भाषा दिवस एक नई शुरुआत

*श्रुत पञ्चमी प्राकृत भाषा दिवस : एक नयी शुरुआत* *✍️प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली*                           *णमो धरसेणाणं य भूयबलीपुप्फदंताणं सयय ।*  *सुयपंयमीदियसे य लिहीअ सुयछक्खंडागमो ।।* श्रुत पंचमी के दिन भगवान महावीर की मूल वाणी द्वादशांग के बारहवें अंग दृष्टिवाद के  अंश रूप श्रुत अर्थात् षटखंडागम को लिखने वाले आचार्य पुष्पदंत और भूतबली तथा उन्हें श्रुत का ज्ञान देने वाले उनके गुरु आचार्य धरसेन को मेरा सतत नमस्कार है । वास्तव में यह एक आश्चर्य जनक घटना थी,अन्यथा आज हमारे पास मूल वाणी के नाम पर कुछ नहीं होता | आचार्य धरसेन यदि श्रुत रक्षा के लिए आचार्य पुष्पदंत और भूतबली को अपने पास न बुलाते , उन्हें भगवान् की मूल वाणी न सौंपते और वे षटखंडागम ग्रन्थ को लिपि बद्ध न करते तो अन्य ग्यारह अंगों की भांति यह भी लुप्त हो जाता | प्राकृत भाषा में रचित षटखंडागम की रचना करके उन्होंने न सिर्फ श्रुत ज्ञान की रक्षा की बल्कि जैन आगमों की भाषा ‘प्राकृत’ की भी रक्षा की | यही कारण है कि श्रुत पञ्चमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है |

संस्कृति दशक

*संस्कृति* *दशक* ✍️कुमार अनेकान्त           1. बोलना है प्रकृति  मधुर बोलना है संस्कृति ।           2. खाना है प्रकृति दूसरे को खिलाकर शुद्ध खाना है संस्कृति ।           3. रिश्ता है प्रकृति सादर निभाना है संस्कृति ।             4. फूल है प्रकृति उसकी माला बनाना है संस्कृति ।             5. वृक्ष हैं प्रकृति  उन्हें बचाये रखना हैं संस्कृति ।         6. ज्ञान है प्रकृति सम्यग्ज्ञान है संस्कृति ।          7. श्रद्धान है प्रकृति सम्यक श्रद्धान है  संस्कृति ।            8. प्यार है प्रकृति  सभी जीवों से हो  यह संस्कृति ।           9. अपना भला चाहना प्रकृति, सबका भला चाहना  संस्कृति ।           10. तुम हो प्रकृति  साथ हो यह  संस्कृति ।

संकल्प शक्ति

लघुकथा  *संकल्प शक्ति*  ©कुमार अनेकान्त मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ ,क्या मेरे भाग्य में ऐसा कुछ लिखा है ? ज्योतिषी  जी को अपनी कुंडली दिखाते हुए एक युवक ने पूछा ।  बन सकते हो मगर एक अड़चन है । क्या ? युवक ने अचरज भरे शब्दों में पूछा । ज्योतिषी जी ने कहा - संकल्प शक्ति का अभाव है ,आत्म विश्वास की कमी दिखाई दे रही है ,नहीं तो राज योग तो बड़ा प्रबल है । युवक बोला - लेकिन महाराज मेरे हिसाब से अंदर इन दोनों की कमी बिल्कुल भी नहीं है और फिर भी कोई कमी हो तो आप बताएं । *अगर तुम्हारे अंदर ये दोनों होते तो इस तरह कुंडली लेकर अपना भाग्य नहीं पूछते फिरते*- ज्योतिषी जी ने युवक को तर्क देते हुए समझाया ।

महामारी ,महामंत्र और आत्मशांति

                            महामारी , महामंत्र और  आत्मशांति                                                                  ✍️ प्रो.डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली#                                                                               drakjain2016@gmail.com                     बहुत धैर्य पूर्वक भी पढ़ा जाय तो कुल 15 मिनट लगते हैं108 बार भावपूर्वक णमोकार मंत्र का जाप करने में ,किन्तु हम वो हैं जो घंटों न्यूज चैनल देखते रहेंगें,वीडियो गेम खेलते रहेंगे,सोशल मीडिया पर बसे रहेंगे ,व्यर्थ की गप्प शप करते रहेंगे लेकिन प्रेरणा देने पर भी यह अवश्य कहेंगे कि 108 बार हमसे नहीं होता ,आप कहते हैं तो 9 बार पढ़े लेते हैं बस और वह 9 बार भी मंदिर बन्द होने से घर पर कितनी ही बार जागते सोते भी नहीं पढ़ते हैं ,जब कि आचार्य शुभचंद्र तो यहाँ तक कहते हैं कि इसका पाठ बिना गिने अनगिनत बार करना चाहिए | हमारे पास सामायिक का समय नहीं है । लॉक डाउन में दिन रात घर पर ही हैं फिर भी समय नहीं है । हम वो हैं जिनके पास पाप बांधने के लिए 24 घंटे समय है किंतु पाप धोने और शुभकार्य  के लिए 15 मिनट भी नहीं हैं और हम क

तत्त्वज्ञानी को शोक नहीं होता

*तत्वज्ञानी को शोक नहीं होता* *डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली* drakjain2016@gmail.com वर्तमान का समय ऐसा समय है जब ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा जब अपने परिजन,मित्र,साधर्मी के वियोग की सूचना न मिल रही हो । उन सूचनाओं से वे लोग तो अत्यधिक शोक को प्राप्त हो ही रहे हैं जो दिवंगत से साक्षात् जुड़े रहे,किन्तु वे लोग भी शोकाकुल हो रहे हैं जो उनसे मात्र परिचित थे ।   सात्विक,ज्ञानी,त्यागी व्रती, धार्मिक, साधु संतों,विद्वानों,श्रावकों के वियोग तो शोक के साथ साथ आश्चर्य में भी डाल रहे हैं । ऐसे विषम क्षण में   जिससे जो बन पड़ रहा है उतनी एक दूसरे की सहायता भी कर रहे हैं ,जीवन रक्षा के सारे प्रयास भी कर रहे हैं किंतु इन सबके बाद भी ऐसा लग रहा है कि कितने ही क्षण ऐसे आते हैं जब लगता है अब किसी के हाथ में  कुछ भी नहीं सिवाय चिंता ,दुःख और शोक करने के । जैन आगमों में ऐसे शोक के समय में भी शोक करने को उचित नहीं माना गया है । यद्यपि भूमिका अनुसार वह होता है किंतु उचित तो बिल्कुल भी नहीं है । वास्तव में देखा जाय तो ये वैराग्य के प्रसंग हैं । चंद बाह्य क्रियाओं के आधार पर  हम स्वयं को बहुत ज्ञानी और धर्मात्मा

अयोध्या के दार्शनिक राजा ऋषभदेव

अयोध्या के दार्शनिक राजा ऋषभदेव प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन आचार्य - जैन दर्शन विभाग ,दर्शन संकाय, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली -११००१६ drakjain2016@gmail.com देश में ऐसे दार्शनिक राजाओ की लंबी परम्परा रही है जिन्होंने राजपाट के बाद दीक्षा ली और आत्मकल्याण किया परंतु ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो।अयोध्या में जन्में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। वैदिक परंपरा के भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। उनके अनुसार वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं। ऋषभदेव को जन्म से ही विलक्षण सामुद्रिक चिह्न थे। शैशवकाल से ही वे योग विद्या में प्रवीण होने लगे थे। जैन पुराणों के साथ साथ ही वैदिक पुराणों के अनुसार भी ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत पडा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है के जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव की दार्शनिक,

लाडनूं के जैन मंदिर का कला वैभव

एक प्राचीन महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ पुस्तक अब ऑनलाइन निःशुल्क उपलब्ध *लाडनूं के जैन मंदिर का कला वैभव*  लेखक - डॉ फूलचंद जैन प्रेमी,वाराणसी  https://epustakalay.com/book/256957-ladnoon-ke-jain-mandir-ka-kala-vaibhav/

लघुकथा - गुरुकुल बनाम गुरूमन्दिर

*लघुकथा* *गुरुकुल बनाम गुरूमन्दिर* प्रो अनेकान्त जैन drakjain2016@gmail.com 22/02/2021 प्रातः7बजे एक गुरु जी ने एक आध्यात्मिक गुरुकुल खोला । वे बहुत समर्पण के साथ अध्यापन कार्य करते थे । उनके शिष्य बहुत ज्ञानी होने लगे जिससे उनकी ख्याति भी देश विदेश में फैलने लगी । सैकड़ों शिष्य रोजाना अध्ययन करते । गुरु जी दो समय प्रवचन भी करते जिसमें हजारों आम  श्रोता भी आते और ज्ञान प्राप्त करते । एक दिन गुरु जी की आयु पूर्ण हो गयी । अपने एक शिष्य को गुरुकुल सौंप कर स्वर्ग सिधार गए ।  वह प्रधान शिष्य गुरु जी द्वारा सीखे गए ज्ञान को वितरित करने लगा ।  पर अब वैसा महौल नहीं रह गया । शिष्य भी गुरु जी को बहुत याद करते । एक दिन सभी ने निर्णय लिया कि गुरुकुल में गुरु जी की एक प्रतिमा स्थापित की जाए ताकि हम सभी साक्षात् उन्हें देखकर उनकी याद कर सकें और प्रेरित हो सकें । ऐसा ही हुआ ।  कक्षाएं पूर्ववत् चलती रहीं । प्रतिमा बनी तो लोग उनपर अर्घ समर्पित करने लगे । एक शिष्य ने भक्ति पूर्ण पूजन लिख दी तो सभी प्रतिदिन प्रतिमा के समक्ष उस पूजन को पढ़ने लगे ।  एक ने गुरु जी की याद में एक बहुत भावुक भजन और आ