*तत्वज्ञानी को शोक नहीं होता*
*डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली*
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वर्तमान का समय ऐसा समय है जब ऐसा कोई दिन नहीं जा रहा जब अपने परिजन,मित्र,साधर्मी के वियोग की सूचना न मिल रही हो ।
उन सूचनाओं से वे लोग तो अत्यधिक शोक को प्राप्त हो ही रहे हैं जो दिवंगत से साक्षात् जुड़े रहे,किन्तु वे लोग भी शोकाकुल हो रहे हैं जो उनसे मात्र परिचित थे ।
सात्विक,ज्ञानी,त्यागी व्रती, धार्मिक, साधु संतों,विद्वानों,श्रावकों के वियोग तो शोक के साथ साथ आश्चर्य में भी डाल रहे हैं ।
ऐसे विषम क्षण में जिससे जो बन पड़ रहा है उतनी एक दूसरे की सहायता भी कर रहे हैं ,जीवन रक्षा के सारे प्रयास भी कर रहे हैं किंतु इन सबके बाद भी ऐसा लग रहा है कि कितने ही क्षण ऐसे आते हैं जब लगता है अब किसी के हाथ में कुछ भी नहीं सिवाय चिंता ,दुःख और शोक करने के ।
जैन आगमों में ऐसे शोक के समय में भी शोक करने को उचित नहीं माना गया है । यद्यपि भूमिका अनुसार वह होता है किंतु उचित तो बिल्कुल भी नहीं है ।
वास्तव में देखा जाय तो ये वैराग्य के प्रसंग हैं । चंद बाह्य क्रियाओं के आधार पर हम स्वयं को बहुत ज्ञानी और धर्मात्मा समझने वाले प्रतिदिन के प्रलय दृश्य देखकर भी विचलित तो हो रहे हैं किंतु वैरागी नहीं ।
शब्दज्ञान के आधार पर हम वैराग्य के उपदेश गीत भजन सुनते और सुनाते तो बहुत हैं किंतु दिल फिर भी संसार से उचटता नहीं है ।
वैराग्य तो दूर ,कषायें भी पूर्ववत ही विद्यमान हैं , वे तक कम नहीं होतीं ।
एक मित्र ने तो फ़ोन पर यह तक कह डाला कि यह संक्रमण सिर्फ अच्छे लोगों को हो रहा है , बुरे तो अभी तक बचे हुए हैं ।
जरा विचार कीजिये ! और कुछ हो न हो हमारी कषायें कितनी मजबूत हैं । जिनसे राग था आज भी है ,जिनसे द्वेष था आज भी है । इन घटनाओं से क्या फर्क पड़ रहा है ?
तत्त्वज्ञान का अभ्यास ही हमें इस वियोग के दलदल से निकालकर समता भाव में स्थित करता है ।
*तत्त्वज्ञान जलेनाथ शोकाग्निं निरवापयत्*।
(क्षत्रचूड़ामणि 2/60)
कभी कभी हम व्यर्थ की असत् कल्पनाएं करते हुए अनागत दुःख को लेकर वर्तमान में इतने भयभीत और दुःखी रहते हैं जितने साक्षात् दुख भोगने वाले भी नहीं रहते जबकि सभी को पता है कि विपत्ति कभी सूचना देकर नहीं आती और उसकी वास्तविक सूचना देने में कोई भी समर्थ नहीं है ।
*न हि वेद्यो विपत्क्षण:*
(क्षत्रचूड़ामणि
3/13)
अर्थात् विपत्ति का समय जाना नहीं जा सकता ।
शोक करने से कभी विपत्तियां दूर नहीं होती हैं बल्कि उल्टे बढ़ जाती हैं अतः ऐसे समय में धर्म की शरण ग्रहण करना चाहिये -
विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम्।
पावके न हि पातः स्यादातपक्लेशशान्तये।।
ततो व्यापत्प्रतीकारं धर्ममेव विनिश्चिनु।
प्रदीपैर्दीपिते देशे न ह्यस्ति तमसो गतिः।।
-(1/30-31क्षत्रचूडामणि)
अर्थात्
विपत्ति को दूर करने के लिए शोक करना उचित है क्या? गर्मी का दुःख दूर करने के लिए आग में तो नहीं गिरा जाता! इसलिए तुम यह निश्चित मानो कि विपत्ति को दूर करने का उपाय धर्म ही है, क्योंकि दीपकों से प्रकाशित स्थान पर अन्धकार के लिए जगह नहीं होती।
इसलिए तत्त्वज्ञान ही एक मात्र ऐसी औषधि है जो वर्तमान के शोक से हमें उबार सकती है -
*विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्वं न शोकिता ।*
*तच्च तत्त्वविदामेव तत्त्वज्ञा:.स्यात् तद्बुधा:।।* (3/17क्षत्रचूड़ामणि)
अर्थात्
विपत्ति का प्रतिकार निर्भयपना ही है ,शोक करना विपत्ति का प्रतीकार नहीं है और निर्भयपना तत्त्वज्ञानी पुरुषों को ही होता है । इसलिए हे ! पंडितों तुम लोग तत्त्वज्ञानी बनो ।
सार यह है कि हमें स्वयं के साथ साथ शोकाकुल परिवार को भी वैराग्य के इन प्रसंगों में तत्त्वज्ञान का संबल और संयम ग्रहण करने की प्रेरणा देना चाहिए ।शमसानी वैराग्य की सूक्ति भी पुरानी हो चली है ,अब तो वैराग्य शमसान में भी नहीं होता है ।
अतः
ऐसे समय में क्षणभंगुरता के एहसास के बादल कुछ देर तो टिक सकें ऐसा वातावरण बनना चाहिए और शाश्वत शुद्धात्म का चिंतन हो सके - ऐसा प्रयास होना चाहिए ।
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