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महावीर निर्वाण और गौतम के ज्ञान से रोशन दीवाली

महावीर निर्वाण और गौतम के ज्ञान से रोशन दीवाली डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली        दीपावली भारत का एक ऐसा पवित्र पर्व है जिसका सम्बन्ध भारतीय संस्कृति की सभी परम्पराओं से है |भारतीय संस्कृति के प्राचीन जैन धर्म में इस पर्व को मनाने के अपने मौलिक कारण हैं |आइये आज हम इस अवसर पर दीपावली के जैन महत्त्व को समझें | ईसा से लगभग ५२७  वर्ष पूर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के समापन होते ही अमावस्या के प्रारम्भ में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का वर्तमान में बिहार प्रान्त में स्थित पावापुरी से निर्वाण हुआ था। भारत की जनता  ने  प्रातः काल जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढा कर पावन दिवस को उत्साह पूर्वक मनाया । यह उत्सव आज भी अत्यंत आध्यात्मिकता के साथ देश विदेश में मनाया जाता है |इसी दिन रात्रि को शुभ-बेला में भगवान महावीर के प्रमुख प्रथम शिष्य गणधर गौतम स्वामी को केवल ज्ञान रुपी  लक्ष्मी की प्राप्ति हुई  | मूल रूप से ब्राह्मण कुल में जन्में इंद्रभूति गौतम गणधर भगवान ही महावीर के मुख्य ग्यारह गणधरों में सबसे प्रथम स्थान पर थे | जब महावीर भगवान को क

संस्कृतं नास्ति साम्प्रदायिकम्

संस्कृतं नास्ति साम्प्रदायिकम् आचार्य: अनेकान्त:, नवदेहली drakjain2016@gmail.com            संस्कृतं कस्यचित् धर्मविशेषस्य, जातेः, क्षेत्रस्य वा भाषा इत्यज्ञानमेव, नान्यत्। भाषेयं कस्यचित् राजनीतिकदलस्य अपि न वर्तते। अस्यां भाषायां धार्मिकसाहित्यम् अतिरिच्य अपि विपुलं साहित्यं विद्यमानमस्ति। पूर्वप्रधानमन्त्रिणा मनमोहनसिंहेन अपि विश्वसंस्कृतसम्मेलने मम पुरतः विज्ञानभवने स्पष्टम् उक्तम् – ‘संस्कृतं भारतस्य आत्मा अस्ति’ इति।  नेहरूमहोदयेन अपि संस्कृतस्य महत्त्वम् ‘Discovery of India’ इत्यस्मिन् स्वकीयपुस्तके आख्यातम्।            समस्या तदा भवति यदा जनाः संस्कृतं वेदेन वैदिकसंस्कृत्या च सहैव योजयन्ति। संस्कृतं कदापि साम्प्रदायिका भाषा न आसीत् । जैनबौद्धधर्मदर्शनयोः सहस्राधिका: ग्रन्थाः संस्कृतभाषायां निबद्धाः सन्ति। अद्य मोदीसर्वकारेण राष्ट्रभाषायै हिन्द्यै महत्त्वं प्रदत्तम् एवमेव च तेन संस्कृत-प्राकृत-पालिभाषाः अपि भारतीयशिक्षापद्धत्याः अङ्गत्वेन स्वीकृता:। तस्मात् अस्माभिः अपि तस्य सहयोगः करणीयः। आश्चर्यमिदं यत् यदा केचन संस्कृतभाषां बहिष्कुर्वन्ति स्म तदा ते कैश्चिदपि न वारिताः, परन्त

प्राकृत भाषा को पहचानने के पांच स्वर्णिम नियम

*प्राकृत भाषा को पहचानने के पांच स्वर्णिम नियम *                  १. प्राकृत भाषा में हलंत (  ्‌ ) का प्रयोग कभी नहीं होता । जैसे *मंगलम्* कभी भी और कहीं भी नहीं लिखा जाता है । हमेशा *मंगलं* लिखा जाता है । २.  कभी भी विसर्ग ( : ) का प्रयोग नहीं होता है जैसे *रामः* कभी नहीं लिखा जाता हमेशा *रामो* लिखा जाता है । ३. हमेशा एकवचन और  बहुवचन का प्रयोग होता है कभी द्विवचन का प्रयोग नहीं होता । ४. स्वरों में *ऐ,औ,अ:,लृ,ॡ और ऋ, ॠ* का प्रयोग कभी नहीं होता । ५. व्यंजन में  *ञ् ,ङ् , क्ष ,त्र , ष* का प्रयोग नहीं होता । मागधी प्राकृत को छोड़कर कहीं भी *श* का प्रयोग भी नहीं होता । डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली

दिगम्बर जैन मुनियों के मूलसंघ का इतिहास : एक झलक

*दिगम्बर मुनियों के मूलसंघ का इतिहास : एक झलक* 1.भगवान् महावीर के निर्वाण के 162 वर्ष बाद अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु ( प्रथम )  के समय ( 527+162 ) अर्थात् 364 BC को दिगंबर श्वेतांबर का भेद हुआ । 2. उसके बाद दिगंबर परंपरा में 10 देशपूर्व धारी मुनि हुए - विशाख,क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन,विजय, बुद्धिल,गंगदेव और सुधर्म । भद्रबाहु ( प्रथम ) के बाद इन सभी का कुल समय 183 वर्ष रहा । 3. सुधर्म के बाद पांच मुनि 11अंग के धारी हुए - नक्षत्र,जयपाल,पांडु,ध्रुवसेन,कंस । इनका कुल समय 220वर्ष तक रहा । 4. कंस के बाद चार मुनि एक अंगधारी ( आचरांगधारी ) हुए - सुभद्र,यशोभद्र,भद्रबाहु ( द्वितीय ) ,लोहाचार्य ( लोहोर्य ) । इनका कुल समय 118 वर्ष का रहा । यहां तक अर्थात् 162+183+220-118=683 वर्ष , अर्थात्  महावीर निर्वाण ( 527BC ) से 683 वर्ष  अर्थात् 156 AD  तक दिगंबर मुनि संघ एक रहा , उनके कोई भेद नहीं हुए थे । अर्थात् लोहाचार्य तक दिगंबर परंपरा में गण,कुल,संघ की स्थापना नहीं हुई थी । भगवान् महावीर का मूल संघ एक ही था । आचार्य शिवगुप्त और आचार्य अर्हद्वली के समय नवीन संघ और गण की स्थाप

आचार्य विद्यानंद मुनिराज से हमने क्या सीखा ?

*आचार्य श्री से हमने क्या सीखा ?* -  डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com आज सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद मुनिराज हम सभी के बीच नहीं हैं । दिनांक २२/०९/२०१९ को ब्रह्म मुहूर्त में यम सल्लेखना पूर्वक साम्य भाव से उनका समाधि मरण दिल्ली स्थित कुंदकुंद भारती में हो गया । श्रमण जैन संस्कृति का एक महान् सूर्य अस्त हो गया । वैसे तो बचपन से उनके दर्शन कई बार किए और अपने पिताजी प्रो डॉ फूलचंद जैन प्रेमी जी से उनकी महिमा का गुणगान आरंभ से ही सुनते आ रहे थे किन्तु मेरा विशेष संपर्क उन दिनों हुआ जब मैं राजस्थान में पी एच डी  का विद्यार्थी था । हम यूजीसी की नेट परीक्षा देते थे और सन् १९९८-९९  के लगभग यूजीसी ने प्राकृत एवं जैनागम विषय में से प्राकृत को समाप्त कर दिया था । उन दिनों इस विषयक मैंने कई आंदोलन किए और सभी बड़े अधिकारियों और विद्वानों को कई पत्र लिखे किन्तु कोई हल नहीं निकला । इसी बीच मैंने पता नहीं क्यों आचार्य श्री के नाम एक पोस्टकार्ड लिखकर कुंदकुंद भारती के पते पर भेज दिया और कुछ दिनों बाद साक्षात् आकर उनके दर्शन करके यह बात कही । इस बात पर उन्होंने तुरंत

संस्कृत में छुपे हैं पर्यावरण संरक्षण के सूत्र

सादर प्रकाशनार्थ *संस्कृत में छुपे हैं  पर्यावरण संरक्षण के सूत्र* डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com आज पूरे विश्व के समक्ष उठने वाली तमाम बड़ी समस्याओं में से भी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम पीने के लिए साफ पानी , सांस लेने के लिए साफ हवा और जीने के लिए स्वच्छ जलवायु की व्यवस्था यदि नहीं कर पा रहे हैं तो हमारा सारा विकास बेमानी है । हम विकास के जो भी तर्क देंगें वे जीवन से बड़े इसलिए नहीं हो सकते क्यों कि जीवन ही न होगा तो विकास किसके लिए काम आएगा ? आज पूरी दुनिया संस्कृत भाषा एवं उसमें रचित प्राचीन साहित्य की तरफ बहुत आशा भरी नजरों से इसलिए देख रही है क्यों कि उसे विश्वास है कि प्राचीन ऋषि मुनि ऐसा एक शास्त्र नहीं रचते थे ,या ऐसा एक भी सूत्र नहीं बताते थे जो प्रकृति और जीवन के साथ खिलवाड़ कर सके । बल्कि ऐसे समाधान बताते थे जिससे पर्यावरण संबंधी समस्या ही खड़ी न हो । भारत में संस्कृत भाषा में वैदिक ,जैन एवं बौद्ध आचार्यों ने लाखों की संख्या में ग्रंथ लिखे जिसमें ज्ञान विज्ञान की शायद ही कोई शाखा हो जिस पर साहित्य उपलब्ध न हो । संस्कृत साहित्य की सबसे बड़ी

प्राकृत भाषा के मसीहा आचार्य विद्यानंद

प्राकृत भाषा के मसीहा आचार्य विद्यानंद प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली , drakjain2016@gmail.com जब किसी प्राचीन भाषा और संस्कृति की उपेक्षा सरकार और समाज दोनों करने लग जाएं तो उसके उद्धार के लिए किसी न किसी मसीहा को जन्म लेना पड़ता है ।  भगवान् महावीर के उपदेशों की भाषा जिसमें सम्पूर्ण मूल जिनागम रचा गया ऐसी भारत की सर्व प्राचीन और सर्व भाषाओं की जननी प्राकृत भाषा जब अपने ही भारत में ही इतनी  उपेक्षित होने लगी कि लोग यह भी भूल गए कि   नमस्कार मंत्र किस भाषा में रचित है तब उस जननी जन भाषा प्राकृत के उद्धार के लिए सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद ने मसीहा का कार्य किया और आज ऐसा दिन आ गया है कि लोग प्राकृत भाषा का महत्व समझने लगे हैं ,उसे पढ़ना लिखना सीख रहे हैं , कई मुनि और विद्वान् इस भाषा में रचनाएं कर रहे हैं । प्राकृत भाषा को एक सामान्य झोपड़ी से निकाल कर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचाने का कार्य यदि किसी ने किया तो वो हैं आचार्य विद्यानंद मुनिराज । प्राकृत भाषा के संरक्षण और संवर्धन में उनकी प्रेरणा से संपन्न कुछ अद्वितीय कार्यों का यहां बिंदुवार विवरण प्रस्तुत है - १. प्राक

दशधर्मो का सार : क्षमावाणी

दशलक्षण धर्म : एक झलक *दशधर्मो का सार  क्षमावाणी * दश धर्मों की आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आराधना करने के अनंतर आत्मा समस्त बुराइयों को दूर करके परम पवित्र और शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेती है तब मनुष्य अंदर से इतना भीग जाता है कि उसे अपने पूर्व कृत अपराधों का बोध होने लगता है । अपनी भूलें एक एक कर याद आने लगती हैं । लेकिन अब वह कर क्या सकता है ? काल के पूर्व में जाकर उनका संशोधन करना तो अब उसके वश में नहीं है । अब इन अपराधों का बोझ लेकर वह जी भी तो नहीं सकता । जो हुआ सो हुआ - लेकिन अब क्या करें ? कैसे अपने अपराधों की पुरानी स्मृतियां मिटा सकूं जो मेरी वर्तमान शांति में खलल डालती हैं । ऐसी स्थिति में तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक सुंदर आध्यात्मिक समाधान बतलाया - "पडिक्कमणं " (प्रतिक्रमण)  अर्थात् जो पूर्व में तुमने अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया था उसकी स्वयं आलोचना करो और वापस अपने स्वभाव में आ जाओ । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो , कोई दूसरा नहीं । प्रतिक्रमण करके तुम अपनी ही अदालत में स्वयं बरी हो सकते हो  तुम उन अपराधों को दुबारा नहीं करोगे ऐसा नियम लोगे