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क्षमा का जीवन दर्शन

सादर प्रकाशनार्थ – क्षमावाणी पर्व  क्षमा का जीवन दर्शन प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली         जैन परंपरा में पर्युषण दशलक्षण महापर्व के ठीक एक दिन बाद एक महत्वपूर्ण पर्व मनाया जाता है वह है- क्षमा पर्व |इस दिन श्रावक(गृहस्थ)और साधू दोनों ही  वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं |पूरे वर्ष में उन्होंने  जाने या अनजाने यदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव के प्रति यदि कोई भी अपराध किया हो तो उसके लिए वह उनसे क्षमा याचना करता है |अपने दोषों की निंदा करता है और कहता है-    ‘ मिच्छा मे दुक्क डं '  अर्थात् मेरे सभी दुष्कृत्य मिथ्या हो जाएँ | वह प्रायश्चित भी  करते  हैं |इस प्रकार वह क्षमा के माध्यम से अपनी आत्मा से सभी पापों को दूर करके ,उनका प्रक्षालन करके सुख और शांति का अनुभव करते हैं   |  श्रावक प्रतिक्रमण में  प्राकृत भाषा में एक गाथा है- ' खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूदेसु ,  वेरं मज्झं ण केण वि । ' अर्थात मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं सभी जीव मुझे क्षमा करें। मेरा प्रत्येक वाणी के प्रति मैत्री भाव है ,  किसी के प्रत

हमारे अध्यात्म की हकीकत

हमारे अध्यात्म की हकीकत प्रायः दर्शन और अध्यात्म में अत्यंत डूबने वाले श्रावकों को सामान्य पूजा पाठ, जाप, अभिषेक ,विधि विधान ,क्रियाएं आदि हल्की लगने लगती हैं । इस विचार का प्रभाव उनकी क्रियाओं पर भी पड़ता है । या तो वे बहुत औपचारिक हो जाती हैं या वे इनसे कुछ नहीं होता ,कोई आनंद नहीं आता फिर भी समाज परिवार के दिखाने को करना पड़ता है .. ऐसा भाव विकसित होने लगता है । जब तक मनोबल मजबूत रहता है , लौकिक अनुकूलता रहती है तब तक यह सब ठीक भी बैठ जाता है । लेकिन कभी कभी वास्तविकता यह रहती है कि हम जितना ऊंचा बोलते हैं या पढ़ते हैं उतनी गहराई में रहते नहीं हैं । कभी कभी विकट उतार चढ़ाव मनोबल भी कमजोर कर देते हैं , उस समय मानसिक स्थिति ही ठीक नहीं रहती तो तत्त्व चिंतन भी नहीं कर पाता है । समय ,ग्रह, नक्षत्र , कर्मोदय आदि अनेक निमित्त भारी पड़ने लगते हैं , ऐसे समय में पंच परमेष्ठि की शरण , उनकी भक्ति पूजा अभिषेक जाप आदि उसके उपयोग को अन्यत्र भ्रमण करने से रोकती है । उसके जीवन में प्रतिकूलता की बारिश में छतरी का कार्य करती हैं । उसका मनोबल मजबूत करने में निमित्त बनती है । यह उसी प

मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो

समयसार पताका ३ मेरी अनुभूति परम विशुद्ध हो परपरिणतिहेतोमोहनाम्नो‌ऽनुभावा- दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषिताया: । मम परमविशुद्धि: शुद्धचिन्मात्रमूर्ते र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते:।। सरलार्थ - मेरी आत्मा वर्तमान में पर परिणति के कारणभूत मोह कर्म के उदय से निरंतर रागादि से व्याप्त होकर मलिन हो रही है, किन्तु वास्तव में मेरी अनुभूति परम शुद्ध ज्ञायक भाव से युक्त शुद्ध चैतन्य मूर्ति है । समयसार रूप शुद्ध जीव तत्त्व की इस व्याख्या से मेरी उस अनुभूति की स्वभाव जन्य परम विशुद्धता प्रगट हो - यही कामना है । अनेकांत पताका टीका - आचार्य अमृतचंद्र ग्रंथ का उद्देश्य और उसकी व्याख्या का फल बतलाते हुए कहते हैं कि समयसार की व्याख्या से मेरी शुद्ध चैतन्य अनुभूति की स्वाभाविक परम विशुद्धता प्रगट हो जाए , और सिर्फ मेरी ही नहीं बल्कि इसे जो भी पढ़े या सुने उसकी भी विशुद्ध अनुभूति प्रगट हो जाय , वह भी अपने ज्ञायक स्वभाव को प्राप्त हो जाए । क्यों कि वर्तमान में वह विशुद्ध परिणति विद्यमान तो है कि पर परिणति के कारण , जिसमें मोह कर्म सबसे बड़ा निमित्त बना हुआ है ,उसके उदय से मेरी आत्मा निरंतर र

ऐसी जिनवाणी सदा ही हृदय में बसे

समयसार पताका २   "ऐसी जिनवाणी सदा ही हृदय में बसे" अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मन‌‌:। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।। समयसार कलश - २ सरलार्थ - जिनेन्द्र भगवान् की वाणी अनेकान्तमयी है । क्यों कि‌ वह पर से भिन्न अपने स्वरूप में स्थित आत्मा के अनंतधर्मों को प्रकाशित करने वाली है । ऐसी जिनवाणी सदा काल प्रकाशित होती रहे । अनेकांत पताका टीका - द्वितीय कलश में आचार्य अमृतचंद्र  आशीर्वादात्मक मंगलाचरण करते हुए भावना भा रहे हैं कि जिनेन्द्र भगवान् की वाणी सदा काल सभी जीवों के हृदय में प्रकाशित होती रहे क्यों कि वर्तमान में एक मात्र वह ही है जो अनेकांत स्वरूप होने से आत्मा के विशुद्ध अनंत धर्मात्मक रहस्य को समझाने में समर्थ है। 

शुद्धात्मा को नमन (समयसार पताका १)

शुद्धात्मा को नमन समयसार पताका १ नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। समयसार कलश - १ सरलार्थ - मैं (आचार्य अमृतचंद्र ) उस शुद्ध आत्मा को नमन करता हूं जो स्वानुभूति से प्रकाशित होता है , शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाला होने से अन्य समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न पदार्थ है । अनेकांत पताका टीका - आचार्य कुंदकुंद द्वारा रचित समयसार ग्रंथ पर आत्मख्याति टीका लिखते हुए आचार्य अमृतचंद्र प्रथम कलश में मंगलाचरण के रूप में शुद्धात्मा को नमन कर रहे हैं । यहां समयसार का अर्थ समस्त जड़ पदार्थों से भिन्न चैतन्य स्वरूप शुद्धात्मा है । आचार्य कहते हैं कि मैं उस शुद्धात्मा को नमन कर रहा हूं जो वास्तव में स्वानुभूति से ही प्रकाशित हो पाता है अर्थात् अनुभव में आता है । अरिहंत और सिद्ध शुद्धात्म स्वरूप हैं ,तीर्थंकर शुद्धात्म स्वरूप हैं उन्हें तो नमन है ही किन्तु जो स्वयं अपनी अनुभूति से प्रकाशित होगा ऐसा समस्त जड़ कर्मों से भी निरपेक्ष अपने शुद्धात्मा को नमन है । यहां कर्मों से बद्ध आत्म तत्व स्वयं के कर्मों को विभाव रूप देखता हुआ, उन जड़ कर्मों के पा

*जब मोह अपने आप नष्ट हो जाएगा* ( समयसार पताका -४)

*जब मोह अपने आप नष्ट हो जाएगा*                         ( समयसार पताका -४) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के , जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहा: । सपदि समयसारं ते परं ज्योति रूच्चै - रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।। (समयसार कलश -04) सरलार्थ - मुख्यत दो आध्यात्मिक नय हैं - निश्चय और व्यवहार । इन दोनों नयों में उभय रूप से जो विरोध प्रतिभासित होता है ,उस प्रतिभास का शमन करने वाली तथा स्यात् पद से विभूषित अर्थात् सापेक्ष कथन करने वाले तीर्थंकर जिनेन्द्र  के वचनों की गंगा में जो रमण करता है , अर्थात् उनकी वाणी में जिस तत्व का वर्णन हुआ है सच्ची श्रद्धा पूर्वक उसे सुनता , पढ़ता है, उसमें डूब जाता है उसका मोह स्वयं छूूट जाता है । फिर ऐसा जीव शीघ्र ही उस उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति स्वरूप अपने शुद्ध आत्म तत्व रूपी समयसार का अनुभव कर लेता है जो वास्तव में अनादि से  सभी नयों के पक्षपात से परे है और अनंतकाल तक रहेगा। अनेकांत पताका टीका - कहने का तात्पर्य यह है कि मोह को छोड़ने के लिए अनेक प्रकार के बाहरी यत्न तो करते हैं और उसके लिए घर,परिवार, परिग्रह भी छोड़ देते हैं लेकिन सापेक्ष कथ

जब विवाह समारोह में किये कुछ अनुकरणीय प्रयोग*

*जब विवाह समारोह में किये कुछ अनुकरणीय प्रयोग* *प्रो अनेकांत कुमार जैन*, नई दिल्ली आज मेरे लघु भ्राता डॉ.अरिहंत जैन एवं श्रीमती नेहा जैन के विवाह की प्रथम वर्ष गांठ है । विगत वर्ष  विवाह को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातें लिखना चाहता था किन्तु विवाह की तैयारी को लेकर तमाम व्यस्तता के कारण में चाह कर भी लिख न सका । यद्यपि मध्यम वर्ग के वैवाहिक कार्यक्रम में तमाम चीजें आपके हाथ में नहीं होती हैं और नए पुराने रिश्तेदार और रिश्तेदारी के मायाजाल और रहस्यमय रीति रिवाजों , नैंग चारों औेर तमाम मतभेदों के बीच आप चाहकर भी क्या कुछ कर पाते हैं और क्या नहीं कर पाते हैं ये अलग बात है । किन्तु इन सभी स्थितियों के बीच भी हम प्यार से चाहें तो इन रीति रिवाजों के मध्य कुछ नए प्रयोग अवश्य कर सकते हैं । आज मैं कुछ उन प्रयोगों को प्रेरणा के लिए इस लिए यहां लिख रहा हूं क्यों कि यही एक माध्यम है जिससे विचारों में परिवर्तन किया जा सकता है । विवाह गृहस्थ धर्म का एक मंगल अनुष्ठान माना जाता है । उसे अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा के अनुरूप करने में लोग झंझट समझने लगते हैं किंतु अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत परि

Jainism and Prakrit studies in Indian Universities and Institutions

Jainism and Prakrit studies in Indian Universities and Institutions * (Running regular MA , Acharya and PhD courses )    - *Prof Anekant Kumar Jain , New Delhi* 1. Deptt. Of Jain Philosophy , Shraman Vidya Sankaaya, Sampurnanad Sanskrit University , Varanasi 2.Deptt. Of Prakrit and Jainagam , Shraman Vidya Sankaaya, Sampurnanad Sanskrit University , Varanasi 3.Deptt. Of Jain Philosophy , Sanskrit Dharm Vigyan Sakaaya, Banaras Hindu University , Varanasi 3.Deptt. Of Jainology, University of Maysore, Maysore , Karnataka 4. Deptt. Of Jainology, University of Madras, Chennai , Tamil Nadu 5.Deptt. Of Jainology and Prakrit,M.S. University,Udaipur,Rajasthan 6.Chair for Jain Studies, J. R.Sanskrit. University,Jaipur 7.Deptt. Of Jain Philosophy, Rashtriya Sanskrit Sansthan(DU)Jaipur Campus,Jaipur 8.Deptt. Of Jain Philosophy, Rashtriya Sanskrit Sansthan(DU)Bhopal Campus,Bhopal 9.Deptt. Of Jainology Comparative religion and Philosophy, Jain Vishva Bharti University, Ladn

प्राकृत समाहिमरणभावणा

आयरिय-अणेयंतकुमारजइणेण विरइदं      समाहिमरणभावणा    ( समाधि मरण भावना   )           (उग्गाहा छंद) उवसग्गे दुरभिक्खे , असज्झरोगे च विमोयणकसाय । अब्भंतरबाहिरा च सल्लेहणपुव्वगं मरणसमाहि ।।1   ।। असाध्य उपसर्ग   , दुर्भिक्ष या रोग आदि आने पर अभ्यांतर और बाह्य कषाय के विमोचन के लिए सल्लेखना पूर्वक मरण समाधि कहलाती है ।।   ।। वित्तेण     वि   खलु    मरिज्जदि , अवित्तेण    वि    खलु   अवस्स   मरिज्जदि   ।   जदि   दोहिं     वि    मरिस्सदि  , वरं हि   सु दाण ेण खलु    मरिदव्वं ।।2 ।।   धन के होने पर भी निश्चित मरता (मरिज्जदि) है ,  धन के न होने पर भी अवश्य मरता (मरिज्जदि) है। यदि दोनों परिस्थिति होने पर भी मरण होगा ,  तो उत्तम है (व्यक्ति को) सम्यक् दानपूर्वक ही मरण करना चाहिए। परिग्गहेण   मरिज्जदि , अपरिग्गहेण वि अवस्स   मरिज्जदि   । जदि   दोहिं वि   मरिस्सदि , वरं   हि   अपरिग्ग हे ण मरिदव्वं ।।3 ।।   परिग्रह   के होने पर भी निश्चित मरता (मरिज्जदि) है ,  परिग्रह  के न होने पर भी अवश्य मरता (मरिज्जदि) है। यदि दोनों परिस्थिति होने पर भी मरण होगा