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आधुनिक युग में  प्राकृत भाषा के विकास की संभावनाएं

आधुनिक युग में  प्राकृत भाषा के विकास की संभावनाएं प्रो अनेकांत कुमार जैन अध्यक्ष – जैन दर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली -११००१६ ,drakjain2016@gmail.com प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम भाषा है जिसने भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओँ को समृद्धि प्रदान की है | भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि में जो ज्ञान प्रकट हुआ वह मूल रूप से प्राकृत भाषा में संकलित हैं जिन्हें प्राकृत जैन आगम कहते हैं |सिर्फ जैन आगम ही नहीं बल्कि प्राकृत भाषा में लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में रचा गया क्यों कि यह प्राचीन भारत की जन भाषा थी | आश्चर्य होता है कि भारत वर्ष की प्राचीन मूल मातृभाषा होने के बाद भी आज इस भाषा का परिचय भी भारत के लोगों को नहीं है | प्राकृत परिवर्तन प्रिय भाषा थी अतः वह ही काल प्रवाह में बहती हुई अपभ्रंश के रूप में हमारे सामने आई तथा कालांतर में वही परिवर्तित रूप में  राष्ट्र भाषा हिंदी के रूप में ,हिंदी के विविध रूपों में हमें प्राप्त होती है | प्राकृत भाषा ने लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओँ को समृद्ध किया है |  आज भाषा के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा ह

संस्कृत बुरी क्यों है ?

संस्कृत बुरी क्यों है ? प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com हम चाहे संस्कृत को देव वाणी कहें पर आज संस्कृत इतनी व्यापक और उपादेय होने के बाद भी बुरी क्यों लगती है ? इसका एक वाकया सामने आया | अभी कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक नामी स्कूल में पढ़ने वाले मेरे बेटे ने एक फॉर्म लाकर मुझे दिया | यह क्या है ? पूछने पर उसने मुझसे कहा कि अब मुझे अगली कक्षा में फ्रेंच या संस्कृत में से एक भाषा का चुनाव करना है अतः अभिभावक के हस्ताक्षर सहित , भाषा चुनकर यह फॉर्म मुझे जमा करना है | मैंने बिना किसी पूर्वाग्रह के उससे पूछा तुम कौन सी भाषा पढ़ना चाहते हो ? ‘फ्रेंच’- उसका भोला सा उत्तर था | संस्कृत क्यों नहीं ? मैंने आश्चर्य से पूछा | उस अबोध बालक ने जो मुझे उत्तर दिया उसने हमारे द्वारा चलाये जा रहे सभी आन्दोलनों पर पानी फेर दिया | उसने कहा - फ्रेंच बहुत अच्छी है और संस्कृत बहुत बुरी | मैंने उसे समझाते हुए पूछा- बेटा, फ्रेंच का तो तुमने नाम भी अभी सुना है ,और अभी पढ़ी भी नहीं है ,फिर वह अच्छी है ऐसा कैसे निर्णय किया ? और संस्कृत तो तुमने पढ़ी है उसके कई श्लोक भी तुम्हें याद

जैन तीर्थ संरक्षण : एक उपाय यह भी

*जैन तीर्थ संरक्षण : एक उपाय यह भी * प्रायः कई प्राचीन जैन तीर्थ हमारी कम जनसंख्या के चलते हमारे हाथ से छूटते जा रहे हैं । अन्य लोग उस पर कब्जा जमा रहे हैं । समाज और संस्थाएं उन्हें बचाने का पूरा प्रयास भी करती हैं ...लेकिन फिर भी कब तक खींच पाएंगे यह पता नहीं ... ज्यादा से ज्यादा २००-३०० साल । नित नए तीर्थ , धाम, आयतन भी अरबों की लागत से हम बना ही रहे हैं । जहां कालांतर में अन्य मत के बाहुबलियों को सिर्फ तीर्थंकर की मूर्ति बदलने का पुरुषार्थ करना होगा ... बाकी देवी देवता , उनका श्रृंगार , कला , शिखर , मंदिर , बेदी  सब उनके अनुकूल बना बनाया मिल ही जाएगा । फिर उसके बाद जब जैन जनसंख्या महज २+३ लाख ही रह जाएगी तब कितना क्या हम बचा पाएंगे  ? यह तो समय ही बताएगा । मेरा एक विनम्र सुझाव यह है कि अभी जो कुछ भी हमारे अधिकार क्षेत्र में है वहां उस तीर्थ से संबंधित वास्तविक इतिहास , वर्तमान स्थिति ,अन्य मत के बाहुबलियों के अतिक्रमण,कब्जे आदि उल्लेखों से संबंधित दो चार शिलालेख,ताम्रलेख  संस्कृत प्राकृत भाषाओं में खुदवाकर स्मृति स्वरूप वहां जमीन में गड़वा दें , पत्थर की दीवालों पर , पहाड़ आदि

TATTVARTH SUTRA AUDIO 21 Minutes only

TATTVARTH SUTRA AUDIO 21 Minutes only https://www.whatstools.com/d/ daecw_agihvvxhwt 41.76 MB, mp3

हमारे अधूरे जिनालय

*हमारे अधूरे जिनालय * प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com अभी कुछ दिन पहले  किसी निमित्त दिल्ली में वैदवाडा स्थित जैन मंदिर के दर्शनों का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ । बहुत समय बाद इतने भव्य , मनोरम और प्राचीन जिनालय के दर्शन करके धन्य हो गए । दिल्ली के प्राचीन मंदिरों में जाओ तो लगता है हम फिर वही शताब्दियों पूर्व उसी वातावरण में पहुंच गए जब पंडित दौलतराम जी जैसे जिनवाणी के उपासक अपनी तत्वज्ञान की वाणी से श्रावकों का मोक्षमार्ग प्रशस्त करते थे । वैदवाडा के उस मंदिर में एक माली सामग्री एकत्रित कर रहा था । हमने सहज ही उससे पूछा - भाई , यहां नियमित शास्त्र स्वाध्याय होता है ? नहीं... कभी नहीं होता - उसका स्पष्ट उत्तर था । मुझे आश्चर्य हुआ । मैने कहा- ऐसा क्यों कहते हो भाई , दशलक्षण पर्व में तो होता होगा ? बोला - हां ,उसी समय होता है - बस । मैंने उसे समझाते हुए कहा - तो ऐसा क्यों कहते हो कि कभी नहीं होता ? कोई भी पूछे तो बोला करो होता है , मगर कभी कभी विशेष अवसरों पर होता है । मैंने उसे तो समझा दिया , लेकिन मेरा मन आंदोलित हो उठा ? ये क्या हो रहा है ? बात सि

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्य जैन विद्या एवं प्राकृत से संबंधित शोध पत्रिकाएं

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्य जैन विद्या एवं प्राकृत से संबंधित शोध पत्रिकाएं प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली वर्तमान में जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा से संबंधित बहुत कम शोध पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं । शोधकार्य करने वालों को पी एच डी के लिए तथा कॉलेज या विश्वविद्यालय में  पदोन्नति प्राप्त करने वालों को अपना शोध पत्र उन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित करना चाहिए जो यू जी सी की सूची में सम्मिलित हों । अन्यथा वे मान्य नहीं होते हैं । यू जी सी की वेबसाइट पर प्राकृत या जैन विद्या का अलग से सेक्शन नहीं है । अतः ये पत्रिकाएं अलग अलग दर्ज हैं जिन्हें खोजने में शोधार्थियों को बहुत समस्या होती है । इस समस्या के निदान के लिए मैंने यूजीसी की वेबसाइट पर कुछ समय पहले बहुत खोजकर निम्नलिखित जैन दर्शन एवं प्राकृत की शोध पत्रिकाओं के नाम निकाले हैं वे निम्नलिखित है - Section- Philosophy 1. Anekant - SL. No. 436 , Journal No. 41337 2. Tulsi pragya 470/ 42139 3. Arhat Vachan 437 / 41376 4. Jain sprit 450 / 41733 5. Jin Manjari 452. / 41741 6. Vaishali Institute research bulletin 471/ 42