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जिनालय ही विद्यालय है और जिन वचन परम औषधि

             जिनालय ही विद्यालय है और जिन वचन परम औषधि     प्रो अनेकांत कुमार जैन, नई दिल्ली  जगत में लौकिक शिक्षा के लिए हम विद्यालय जाते हैं | मोक्षमार्ग की शिक्षा के लिए हमारे जिनालय ही विद्यालय हैं | जिनालय एक आध्यात्मिक प्रयोगशाला है | जहाँ समस्त भव्य जीव रत्नत्रय की साधना करते हैं और अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं |जिनालय में हम अरहन्त जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन करते हैं | जिनागम में कई स्थलों पर   लिखा है कि जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहन्त को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है-   ‘अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी।                    सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। ’   (मू.आ./५०६   ) श्रावकों के छह कर्तव्य बतलाये गए हैं – देवपूजा,गुरु की उपासना,स्वाध्याय ,संयम ,तप और दान | इसमें भी रयणसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि दान और पूजा मुख्य है | जो श्रावक ...

श्रुतावतार ग्रन्थ का महत्व और षट्खण्डागम का अवतरण

श्रुतावतार ग्रन्थ का महत्व और षट्खण्डागम का अवतरण           प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी,वाराणसी श्रीमद्- आचार्य इन्द्रनन्दि विरचित "श्रुतावतार" नामक  गौरवशाली ग्रन्थ श्रमण जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है। एक सौ सत्तासी संस्कृत पद्यों वाला यह ग्रन्थ जहाँ एक श्रेष्ठ काव्य है, वहीं प्राचीन भारतीय इतिहास की लेखन परम्परा का एक आदर्श, दुर्लभ एवं बहुमूल्य ग्रन्थ भी है।  श्रुतावतार ग्रन्थ में आचार्य इन्द्रनन्दि ने जैन परम्परा का बहुत ही सुन्दर प्राचीन इतिहास संजोया है, किन्तु उन्होंने अपने नाम के अतिरिक्त स्वयं अपने विषय में अथवा अपनी परम्परा के विषय में कोई जानकारी नहीं दी। जैन साहित्य में 'इन्द्रनन्दि' नाम के लगभग पाँच आचार्यों का नामोल्लेख विभिन्न प्रसंगों, विभिन्न ग्रन्थकर्ताओं, परम्पराओं एवं विभिन्न कालों में मिलता है। किन्तु श्रुतावतार के कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दि के समय (१० वीं सदी)का निर्धारण इस ग्रन्थ से ही हम कर सकते हैं। चूँकि इन्होंने आचार्य वीरसेन ( ९वीं शती) एवं जिनसेन ( १०वीं शती) तक के ही आचार्यों और इनकी धवला, ज...

Civilization from Discord to Reconciliation (With special reference to Jain theory of Anekāntavāda)

  Civilization from Discord to Reconciliation (With special reference to Jain theory of Anekāntavāda)  Anekant Kumar Jain,New Delhi  We are inhabitants of the same planet and share a common solar system. All of us are being affected by inter-planetary radiation and all of us are in need of a proper atmosphere and ecological cover. This natural state has given birth to the feeling of coexistence. Nature dictates that we cannot but live together. There are indeed impediments to the fulfillment of this natural requirement. These impediments are less natural and geographic but more artificial and imaginary. We have accumulated in our minds several notions and beliefs which have cut off our direct contact with reality. We see distorted images through the spectacles of these false notions and beliefs. One harmful consequence is that we have raised huge artificial walls between man and man making it impossible for one man to see, know and understand another. Differences ...

Paṅcāstikāya - Ancient Book Of Reality

Paṅcāstikāya - Ancient Book Of Reality Prof  Dr. Anekant Kumar Jain Paṅcāthikāya  ( Paṅcāstikāya [30] is an ancient and important text of Jain’s which is composed in old classical Indian language named ‘Prākṛta’ and specifically in ‘Śaurseni Prākṛta’ (an important part of the Prākṛta language). This work is composed by the famous Jainācārya Kunda Kunda in 1st century A.D. The  Paṅcāstikāya [30] , as it is specified by its brief title, is one of the important works of Kunda Kunda who occupies unique position, next only to Lord  Mahāvīra [24]  and his  Gaṇadhara [12]  Gautam, in the south Indian  Jaina [15] [16]  tradition. It deals with Jain metaphysics, ontology and ethics, i.e. exposition of the path leading to liberation. The text is in Prākrit  gāthās /verses and it mentions its title in two places:  Paṅcattiya - saṅgaha  (Paṅcāstika- saṅgraha ) in  gāthā  No. 103, and elsewhere, in No. 173,  sutta...