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जून, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जगत की निंदा प्रशंसा से कुछ नहीं होता

*जगत की निंदा प्रशंसा से कुछ नहीं होता* प्रो.अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली  हममें से अधिकांश लोग लोक की सारहीन निंदा या प्रशंसा के चक्कर में आकर अपना बहुमूल्य मन,जीवन और समय व्यर्थ गवां दिया करते हैं ।  संसार ओछे लोगों का साम्राज्य है । यहाँ चप्पे चप्पे पर ऐसे लोग मिल जाते हैं जो निंदा के द्वारा आपके मनोबल को तोड़ने का प्रयास करते हैं या फिर व्यर्थ की प्रशंसा करके आपके मजबूत मन को गुब्बारे की तरह हद से ज्यादा फुला कर फोड़ने  की कोशिश में रहते हैं ।  यदि हम जगत की इन दोनों प्रतिक्रियाओं से प्रभावहीन होकर ऊपर उठने की कला नहीं सीख पाए तो कभी भी अपना कल्याण नहीं कर सकते हैं ।  भेद विज्ञान एक ऐसी कला है जो हमें इन छुद्र चीजों से प्रभावित होने से बचाये रखती है ।  वर्तमान में इस कला की आवश्यकता इसलिए ज्यादा है कि सोशल मीडिया पर बुलिंग और मीम की शिकार नई पीढ़ी उम्र की उठान पर ही घनघोर हताशा और निराशा की शिकार है । आत्ममुग्धता के इस भयानक दौर में न तो निंदा सहने की क्षमता बची है और न ही प्रशंसा को पचाने की पाचन शक्ति । अब तो हमने अपने मन के महल की सारी चाबि...

चातुर्मास के चार आयाम

चातुर्मास के चार आयाम प्रो.अनेकांत कुमार जैन*  चातुर्मास वह है जब चार महीने चार आराधना का महान अवसर हमें प्रकृति स्वयं प्रदान करती है ।अतः इस बहुमूल्य समय को मात्र प्रचार में खोना समझदारी नहीं है । चातुर्मास के चार मुख्य आयाम हैं - सम्यक् दर्शन ,ज्ञान ,चारित्र और तप ।  इन चार आराधनाओं के लिए ये चार माह सर्वाधिक अनुकूल रहते हैं , आत्मकल्याण के सच्चे पथिक इन चार माह को महान अवसर जानकर मन-वचन और काय से इसकी आराधना में समर्पित हो जाते हैं । आगम में भी कहा गया है -      उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं।     दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहणा भणिया।  (भगवती आराधना / गाथा 2) अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, उसके मंद पड़ जाने पर पुनः पुनः जागृत करना, उनका आमरण पालन करना आराधना कहलाती है। आधुनिकता और आत्ममुग्धता के इस दौर में जब चातुर्मास के मायने मात्र मंच,माला,माइक और मीडिया तक ही सीमित करने की नाकाम कोशिशें हो रहीं हों तब ऐसे समय में हम...

तत्त्वार्थसूत्र - आधुनिक व्याख्याएं

तत्त्वार्थसूत्र - आधुनिक व्याख्याएं  प्रस्तुति - प्रो अनेकान्त कुमार जैन  1.मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) - विमल प्रश्नोत्तरी टीका - गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माता जी ,भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद , 1996 ,प्रथम संस्करण  2.मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र), हिंदी टीका - पंडित पन्नालाल जैन साहित्याचार्य,सागर ,संपादक - प्रतिष्ठाचार्य पंडित विमल कुमार जैन सोंरया,प्रकाशक - वीतराग वाणी ट्रस्ट ,टीकमगढ़ ,2000,तृतीय संस्करण  3.तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र)-संपादन - ब्र.प्रदीप शास्त्री पीयूष,प्रकाशन- श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन समिति,बरेला,जबलपुर,2016,पंद्रहवां संस्करण  4.तत्त्वार्थसूत्र सरलार्थ - हिंदी टीका - पंडित भागचंद जैन 'इंदु' ,छत्तरपुर,मुद्रक - आकृति ऑफसेट ,छत्तरपुर,द्वितीय संस्करण ,1999 5.तत्त्वार्थसूत्र निकष (सर्वोदय विद्वत्सङ्गोष्ठी-2004,सतना शोध पत्र संग्रह) ,संपादक - डी.राकेश जैन ,पंडित निहाल चंद जैन,प्रकाशक- सकल दिगम्बर जैन समाज,सतना ,प्रथम संस्करण 2005 6.तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र)- हिंदी टीका -ब्र.प्रद्युम्न कुमार ईसरी,संपादक - प्राचार्य निहालचंद ज...

बच्चे योगी और बड़े प्रतियोगी

विश्व योग दिवस -  *बच्चे योगी होते हैं और बड़े प्रतियोगी* (*जो पीछे छूट गए हैं उन्हें साथ जोड़ना योग है*) प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली  योग शब्द का मूल अर्थ है जोड़ना । जहाँ बुद्धि पूर्वक जोड़ा जाय वह योग है और जो स्वयं ही जुड़ जाए वह संयोग है ।  हम जीवन में आगे बढ़ते चले जाते हैं । कभी कभी आगे बढ़ने की होड़ में इतने आगे निकल जाते हैं कि जिनके साथ चलना शुरू किया था ,उनका भी ध्यान नहीं रखते कि वे अभी भी साथ हैं या नहीं ।  मुझे स्मरण है जब मेरा बेटा नर्सरी में पढ़ता था,विद्यालय में खेल कूद प्रतियोगिता में एक रेस का आयोजन हुआ । नन्हें मुन्हें बच्चों को समझाया गया कि तुम्हें अपने दोस्तों से आगे निकल कर प्रथम आना है । ये भागने की प्रतियोगिता है ,जो जितना आगे रहेगा वही सफल होगा । दौड़ शुरू हुई , सीटी बजी तो अधिकांश ने दौड़ना ही शुरू नहीं किया । कुछ भागे तो उन्हें वापस लाया गया । फिर समझाया गया । फिर सीटी बजी ,उन्हें ढकेला गया तब वे दौड़े । मेरा बेटा थोड़ा आगे आ गया ,मैंने देखा वह अचानक रुक भी गया । हम चिल्लाए ,रुक क्यों गए ? भागो ! उसने हमारी नहीं सुनी ,वह वापस आने लग...

मंदिर में विद्वान् की आवश्यकता है

एक विज्ञापन पढ़ा कि मंदिर में विद्वान् कई आवश्यकता है ,संपर्क करें और वेतन योग्यतानुसार  ज्यातर जगह पुजारी चाहिए उसे ही विद्वान् या पंडित जी कहते हैं । वास्तव में प्रवचनकार ज्ञानी विद्वान् की आवश्यकता बहुत कम जगह होती है । आम दिगम्बर जैन समाज में विधानाचार्य,प्रतिष्ठाचार्य,अभिषेकाचार्य ,वास्तुविद्,आदि को ही दशलक्षण आदि पर्वों में पंडिज्जी के रूप में आमंत्रित करने का चलन है । इन्हें प्रचुर सम्मान राशि भी देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता । प्रवचन आनुषांगिक कार्य है जिन्हें ये ही बखूबी निपटा देते हैं और कभी कभी उसकी भी आवश्यकता नहीं होती ।  यही कारण है कि कई बड़े और स्वयं को आध्यात्मिक घोषित करने वाले विद्वान् भी मिथ्या वास्तु आदि हथकंडे समाज को आकर्षित और भयभीत करने के लिए अपनाने में संकोच नहीं कर रहे हैं । उनके अपने तर्क हैं लेकिन निहितार्थ गुप्तार्थ भिन्न ही हैं ।  आदरणीय दादा जी ने प्रवचनकार विद्वानों  को प्रतिष्ठित करने का जो कार्य किया वह अभूतपूर्व है । शादी - विवाह कराना,गृहप्रवेश अनुष्ठान आदि कार्यों से यथासंभव बचने की प्रेरणा देकर वास्तविक ज्ञान संरक्षण का उद्...

सहजता ही वास्तविक योग है

विश्व योग दिवस पर विशेष .... सहजता ही वास्तविक योग है  जैन परंपरा में त्रिगुप्ति का सिद्धांत योग विद्या का प्राण है । मन गुप्ति ,वचन गुप्ति और काय गुप्ति अर्थात् मन वाणी और काया की क्रिया पर पूर्ण नियंत्रण । शास्त्रों में मन के संदर्भ में कहा गया है -  मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥ अर्थात्- मन ही मानव के बन्ध और मोक्ष का कारण है, वह विषयासक्त हो तो बन्धन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है। वर्तमान में डिप्रेशन एक ऐसी बीमारी है जिसका गहरा संबंध हमारे मन और अवचेतन मन से है । यह बीमारी एक दिन में विकसित नहीं होती ,इसमें एक लंबा समय लगता है । जब यह विकराल रूप धारण कर लेती है तब हमें थोड़ा पता चलता है और पूरा पता तब चलता है जब इसके दुष्प्रभाव झेलने में आते हैं । इसके हजारों कारण हैं । उनमें से एक कारण है असहज जीवन को ही सहज समझने की लगातार भूल ।  डिप्रेशन की अनेक वजहों में एक बड़ी वजह स्वाभाविक अभिव्यक्ति में आने वाली लगातार कमी भी है | आपको जब गुस्सा आ रहा हो और आप सिर्फ इसीलिए अभिव्यक्त न कर पायें कि कोई फ़ोन रिकॉर्ड...

पर्यावरण की सीख

पिता की सीख  पर्यावरण की सीख  उन दिनों स्कूलों में पर्यावरण का कोई पाठ कोर्स में नहीं होता था ,लेकिन पर्यावरण के प्रति जागरूकता का पाठ मेरे पिताजी मुझे अपने आचरण से देते रहते थे । वो रोज सुबह पार्क में घुमाने ले जाते,अक्सर रास्ते में कहीं कोई सार्वजनिक नल व्यर्थ चलता दिखता तो खुद उसे बंद करते या मुझसे बंद करवाते । पार्क में व्यर्थ घास पर चलने को और टहनियाँ तोड़ने को मना करते , फूल तोड़ना तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था । मैं छुपकर तोड़ लूं तो कहते कि ये पौधे में ही जीवित सुंदर और उपयोगी होता है ,तोड़ने पर मर जाता है । एक बार हम पार्क की एक बेंच पर बैठे थे ,पास में गंदगी पड़ी थी और उस पर मक्खियां बैठी थीं ,मैंने अपना क्रिकेट बैट बिना देखे वहां जोर से पटक दिया ,उन्होंने तुरंत मेरे गाल पर एक तमाचा जड़ा और बैट उठाने को कहा । मैंने जैसे ही बैट उठाया तो देखा कि करीब 20-25 मक्खियां मर गईं थीं । मैं बहुत दुखी हुआ । उन्होंने मुझे बहुत करुणा से समझाया बेटा ! देखो तुम्हारी एक लापरवाही से कितनी मक्खियों का जीवन चला गया। ये भी हमारे इको सिस्टम का हिस्सा हैं । थोड़ा बैट हिला देते तो ये खुद उड़ जातीं...

बढ़ते मंदिर मूर्तियों का औचित्य

श्रुत पंचमी पर्व प्राकृत भाषा दिवस पर DD News की विशेष प्रस्तुति

श्रुत पंचमी पर्व प्राकृत भाषा दिवस पर DD News की विशेष प्रस्तुति  https://youtu.be/rC8nf5xDaEE?si=ZAjcK13izRq9ujL-