ये तो पुराण में लिखा है , धवला आदि सिद्धांत ग्रंथों में भी है ।
आगम प्रमाण होने से यह मिथ्यात्व तो नहीं है । हाँ ,सावद्य जरूर है । यहाँ प्रमाण से ज्यादा विवेक की आवश्यकता है । चीजें बदलती भी हैं । पहले भी ये क्रियाएं नियमित नहीं होती थीं , आवश्यकता के अनुसार वर्ष या मास में करने का विधान था ।
दक्षिण में काष्ठ की प्रतिमाएं होती थीं ,उन्हें मजबूत रखने के लिए स्निग्धता के लिए शुद्ध दूध ,दही ,घी आदि से कभी कभी अभिषेक की आवश्यकता पड़ती थी ।
वर्तमान में जल भी शुद्ध मिलना कठिन है तो फिर ये पदार्थ तो और भी दुर्लभ हैं ।
फिर इनका अतिरेक होने लगा और शुद्धता भी सुनिश्चित नहीं होने से तेरापंथ ने इनका कड़ाई से निषेध किया ।
अतः धर्म की किसी भी क्रिया में सावद्य लेश और बहु पुण्य राशि का विधान है , छूट है
न कि सावद्य बहु और लघु पुण्य राशि का
अतः जो विवेक पूर्वक धर्म क्रिया करते हैं वे विचार करते हैं कि हम पुण्य के लिए कर रहे हैं और पाप बांध रहे हैं अतः यह उचित नहीं इसलिए वे सचित्त फूल आदि का प्रयोग नहीं करते । पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी यह उचित प्रतीत होता है ।अन्यथा अन्य अजैन परंपरा में भी पूजा पाठ में फूलों का प्राचुर्य होने से वह नदी आदि को प्रदूषित करने में कोई कमी नहीं कर पा रहे हैं ।
दूसरी तरफ जो जिनेन्द्र भगवान् की पूजा अभिषेक सचित्त द्रव्यों से करते भी हैं ,उन्हें पूरी तरह गलत इसलिए नहीं कह सकते क्यों कि वे मूल आगम में वर्णित क्रियाएं ही कर रहे हैं । उसमें भले ही हिंसा की अधिकता है किंतु भक्ति भावों में कोई कमी नहीं है । इधर तेरापंथ भी आज मूलतः जैसा शुद्ध था वैसा कहाँ रहा ?
एक बात और विचारणीय है कि समाज का मनोविज्ञान सदा एक जैसा नहीं रहता और क्षेत्र आदि की मान्यताओं का प्रभाव भी उस पर पड़ता ही है ।
बाकी बिना भाव शुद्धि के जलाभिषेक भी व्यर्थ है और शुद्ध भावपूर्ण होकर अन्य अभिषेक भी फलदायी होते ही हैं ।
इन दोनों ही बातों में दुराग्रह हमें जिन धर्म की मूल भावना और मूल संस्कृति से कोसों दूर ले जाता है ।
जब भी कोई नई विचार धारा आती है और सब तरफ छाती है तो वह शुद्धिकरण का प्रयास ही होता है , विकृतियों का उपचार होता है - तेरापंथ भी इसी की उद्भावना है ।
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