*रामभक्त रिक्शेवाला*
- *प्रो अनेकांत कुमार जैन* नई दिल्ली
अभी दिसंबर-23 में बनारस जाना हुआ । दिल्ली में रहने के कारण अब बनारस में सड़कों की दूरियां मेरे लिए कोई मायने नहीं रखतीं इसलिए जैन घाट और बच्छराज घाट पर तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के जिन मंदिर दर्शन , अस्सी घाट भ्रमण , भेलूपुर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के दर्शन और पुराने सदाबहार मित्रों से मिलन आदि ये कुछ अनिवार्य कार्य अपने अल्प प्रवास पर भी पैदल घूम कर ही अवश्य करता हूँ ।
संभवतः 21 दिसंबर की शाम मैं इसी तरह भ्रमण करते हुए भेलूपुर से घर लौट रहा था । मुझे पैदल चलता देख एक अत्यंत गरीब , दुबले पतले ,सांवले हाथ रिक्शे वाले ने मेरे पीछे आकर कहा बाबू जी आपको कहाँ जाना है ?
कहीं नहीं - मेरा जबाब था । और उस मस्त मौला मात्र धन से दरिद्र और तन पर फटे मैले अविन्यासित वस्त्र पहने किन्तु दिल के राजा रिक्शे वाले ने मेरे जबाब के प्रति उत्तर में कहा बनारस में कहीं नहीं कुछ नहीं होता । मेरी सवारी मत बनिये पर झूठ तो मत बोलिये ।
उसका मनोवैज्ञानिक दबाव मेरे पैदल चलने के धैर्य को तोड़ता सा प्रतीत हो रहा था । फिर मैंने उसे भगाने के लिए कहा कि गुरुधाम पर राम मंदिर तक जाना है । उसके पीछे मेरा घर होने से उसे लैंडमार्क बतला कर पूछा कितने पैसे लोगे ?
पचास रुपये में छोड़ दूंगा - उसने अपना किराया बताया ।
- ज्यादा हैं कहकर, वो भाग जाए इस इरादे से मैंने उससे बीस रुपये की पेशकश की ।
वो तैयार नहीं हुआ और वापस चला गया । उससे पीछा छूटा जान मैं पुनः पैदल चलने लगा ।
कुछ दूरी पर पहुंचा ही था ,वह पुनः वापस आया और मुझसे कहने लगा - आपने किराया बहुत कम बताया लेकिन वापस जाकर मैंने सोचा कि ये तू क्या कर रहा है ? ये सज्जन , राम मंदिर जा रहे हैं ,और तूने चंद पैसों की खातिर उन्हें मंदिर ले जाने से मना कर दिया । राम जी क्या सोचेंगे ?
आप जितने भी पैसे दें, दे दें ,लेकिन मेरे रिक्शे पर बैठ जाएं ,नहीं तो पाप हो जाएगा । उसकी सरलता , समर्पण और भक्ति देख मैं उसके वशीभूत हो गया और रिक्शे पर बैठ गया । रास्ते भर वो बनारस की तमाम वो बातें सुनाता रहा जो कभी किसी मीडिया या प्रोफेसर के मुख से भी नहीं सुन सकते ।
ठीक राम मंदिर के सामने उसने रिक्शा रोक दिया । मेरे लिए अब वह अनुसंधान का विषय बन चुका था । अनजाने साधर्मी से भी कैसा वात्सल्य होना चाहिए , मुझे अब समझ आ रहा था । मुझे भारत में धर्म सुरक्षित दिखने लगा था ।
मैंने उसे पचास का नोट दिया ,उसने बिना किसी संकोच के मुझे तीस रुपये वापस दिए ,मैंने ले लिए ।
उसने कहा आज आपके कारण मुझे भी प्रभु के दर्शन का अवसर मिल गया । उसने रिक्शे के हैंडल से वो नोट छुआ ,फिर माथे से लगाया और जेब में रखकर रिक्शे से उतर गया ।
मैं वहीं खड़ा रहा । अपनी नजरों से उसकी हर गतिविधि देखता रहा । मंदिर में शाम की आरती चल रही थी । वह मन्दिर गया ,उसने सीढ़ियों को ढोक दी,फिर घंटा बजाया और हाथ जोड़कर दर्शन करने लगा । आरती के सुर में अपने सुर जोड़ने लगा । प्रसाद में उसे एक लड्डू मिला । उसे हाथ में लेकर बाहर आया ,मुझे खड़ा देख बोला , देखिये आपको यहाँ लाने से मेरा कितना फायदा हुआ । राम दर्शन भी मिले ,लड्डू भी मिल गया ।
वो तृप्त था ,संतुष्ट था । उसके चेहरे पर जो आनंद के भाव थे ,वो करोड़ों कमा कर जोड़ने वालों में भी नहीं दिखते ।
मैं उसके द्वारा लौटाए तीस रुपये अभी भी मुट्ठी में लिए खड़ा था । मैंने उसे पास बुलाया और कहा ये लो और तीस रुपये ,बात यहीं से शुरू हुई थी न । उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । बोला और कहीं चलना है ?
मैंने कहा नहीं , बस ऐसे ही भोले भाव हमेशा दिल में रखना और मस्त रहना ।
वो खुश होते हुए बोला - अरे ,मुझे पता था , भक्त कभी घाटे में नहीं रहते ।
मेरी शाम बहुत ही शिक्षाप्रद रही । प्रोफसर मैं था पर सिखा वह रहा था ,वो सब कुछ जो किताबें न सिखा सकीं ।
घर आकर पिताजी को पूरा वृत्तान्त सुनाया तो वे बहुत खुश हुए और बोले बेटा ,यही है असली बनारस । माँ ने कहा यह वृत्तान्त तुम्हें लिखना चाहिए । पर उन दिनों लिख न पाया ।
आज बहुत पुराने सदाबहार मित्र डॉ सूरज राव से मुलाकात हुई ,वे लोक साहित्य में राम पर एक ग्रंथ लिख रहे हैं । पुस्तक की चर्चा के दौरान मैंने उन्हें यह संस्मरण सुनाया तो वे गदगद हो गए ,और इसे लिखने को कहा तो फिर आज उनकी प्रेरणा से प्रस्तुत कर ही दिया ।
इसे कहते हैं भारत की आत्मा ।
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