दर्शन एवं जैनागम के गूढवेत्ता थे प्रो सागरमल जी
प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली
दिनांक 2 दिसंबर को दर्शन एवं जैनागम के गूढवेत्ता 90 वर्षीय प्रो सागरमल जैन जी ने संथारा पूर्वक लोकोत्तर प्रयाण कर लिया ।
इनके साथ इस लोक से जैन आगमों विशेषकर अर्धमागधी आगमों के एक कर्मठ और गूढ़ दार्शनिक वरिष्ठ मनीषी का एक विशाल युग समाप्त हो गया ।
मुझे उनका सान्निध्य बाल्यकाल से ही प्राप्त रहा जब वे बनारस में पार्श्वनाथ विद्याश्रम के निदेशक के रूप में थे । मुझे उनकी गोदी में खेलने का सौभाग्य प्राप्त है ।
1980 से आज तक जब से मैंने उन्हें देखा जाना उनका एक सा व्यक्तित्त्व मेरे दिलो दिमाग में बसा रहा ।
आकर्षक व्यक्तित्त्व, मुस्कुराता चेहरा,गौर वर्ण,
श्वेत कुर्ता पैजामा और पैरों में हवाई चप्पल । मैंने आज तक इसके अलावा उन्हें किन्हीं अन्य परिधान में देखा ही नहीं ।
मेरे पिताजी (प्रो डॉ फूलचंद जैन जी ) तथा मां (डॉ मुन्नीपुष्पा जैन ) से अत्यधिक वात्सल्य भाव होने से वे अक्सर अपनी धर्म पत्नी के साथ बनारस में रवींद्रपुरी स्थित हमारे आवास पर आते थे और पिताजी के साथ घंटों दार्शनिक चर्चाएं करते थे । उनके पास एक अलग रंग का प्राइवेट रिक्शा था जिस पर वे आते थे । उन दिनों व्यक्तिगत रिक्शा और रिक्शेवाला होना बहुत बड़ी बात माना जाता था।
उन्होंने मुझे जीवन भर प्रेरणा ,मार्गदर्शन और आशीर्वाद दिया ।साक्षात उनसे प्राकृत आगमों को पढ़ने का भी मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ । सन 2014 में जब मैंने प्राकृत भाषा की प्रथम पत्रिका *पागद-भासा* प्रकाशित की तो उसे पढ़कर वे बहुत खुश हुए और इसी तरह आगे भी करते रहने को प्रोत्साहित किया ।
वे स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन समाज के लिए भीष्मपितामह की तरह रहे और सैकड़ों साधु साध्वियों को आगमों का अध्यापन शोध आदि कार्य अंत समय तक करवाते रहे । आप भारतीय दर्शनों के सिद्ध हस्त मनीषी थे । तुलनात्मक दर्शन में आपने जैन बौद्ध और गीता पर जो अनुसंधान किया वह बहुत प्रसिद्ध हुआ ।आप अच्छे सुप्रसिद्ध दार्शनिक,इतिहासकार,प्रशासक, लेखक,संपादक,वक्त्ता तथा प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ थे ।
मेरे पिताजी ने मूलाचार पर शोध कार्य किया था । यह दिगम्बर परंपरा का मूल ग्रंथ है । प्रो सागरमल जी ने इस शोध ग्रंथ को बिना किसी भेदभाव के पार्श्वनाथ विद्याश्रम से बहुत उत्साह के साथ प्रकाशित किया था । इससे उनकी उदार दृष्टि का सहज ही बोध हो जाता है ।
हम पार्श्वनाथ विद्याश्रम और प्रो सागरमल जी को पर्यायवाची समझते थे ।
वाराणसी के बाद वे अपने गृह नगर शाजापुर चले गए और वहां रहकर भी एक विशाल शोध संस्थान की स्थापना की ।
उनकी महत्ता का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि अनेक साधु साध्वियां शाजापुर स्थित इस शोध संस्थान में चातुर्मास ही इसलिए करते थे ताकि उनसे अध्ययन कर सकें ।
धर्म,दर्शन और इतिहास पर उनके मौलिक विचार थे ।उसके अनेक बिंदुओं के साथ मेरे पिताजी का वैमत्य रहता था ,और संगोष्ठियों आदि में खुलकर प्रश्नोत्तर भी होता था किंतु इन वैमत्यों का असर उनके आपसी प्रेम पर कतई नहीं पड़ता था तथा मनोविनोद भी जमकर होता था ।
वे अक्सर बहुत अधिकार से मुझसे कहते थे कि ' *तेरे पिताजी तो मुझसे सहमत नहीं हैं , तू तो होगा ?' तू मेरे पक्ष में रहा कर* ।
मेरे प्रकाशित लेखों को पढ़कर बहुत प्रभावित होते थे और अनेक सुझाव देते थे तथा प्रेरणा देते थे ।
*तुम दिगम्बर आगमों को तो अच्छे से जानते हो लेकिन मेरी इच्छा है तुम श्वेताम्बर आगमों के भी वैसे ही अध्येता बनो ताकि सामंजस्य बना रहे* - ऐसा संबोधन उन्होंने मुझे आरम्भ में दर्जनों बार दिया ।
मुझे स्मरण है जब मैं सीख ही रहा था तब 1997 में उन्होंने 'सर्वज्ञता' विषय पर मेरा एक व्याख्यान पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में करवाया था जिसमें वहां के सभी अध्यापक तथा शोधार्थी बैठे थे । उन्होंने स्वयं मेरा परिचय दिया और अध्यक्षता की । बाद में प्रश्नोत्तर काल में उन्होंने मुझसे कई प्रश्न पूछे और तर्क वितर्क किया ,मैंने भी उनसे काफी बहस की ,उस समय मैं यह भूल गया कि ये इतने बड़े वरिष्ठ विद्वान हैं और मैं उनकी बात न मानकर बहस कर रहा हूँ । बाद में इसके लिए मुझे पिताजी से डांट सुन नी पड़ी कि तुम्हें थोड़ी देर चुप रहना चाहिए था ,वे बड़े हैं ,यदि तुम उनसे सहमत न भी हो तो भी ऐसे समय शांत रह जाना चाहिए । किन्तु वे अपेक्षाकृत अधिक प्रसन्न हुए और आशीर्वाद भी दिया । इस तरह की उदार दृष्टि और स्नेह ही उन्हें बड़ा बनाता था ।
हम बड़े तो कहलाने लगते हैं लेकिन खुद के भीतर वैसा बडप्पन विकसित नहीं कर पाते हैं ।
उन्होंने मेरी माँ को प्रेरणा देकर लगभग एक वर्ष तक पांडुलिपि संपादन की कला सिखलाई और मेरी माँ ने उस अल्पअवधि में 10 पांडुलिपियों का सम्पादन किया जिसमें से कई वहां की शोध पत्रिका श्रमण में निरंतर प्रकाशित हुईं ।
उन्होंने अनेक लोगों को शिक्षा दी और जैन धर्म दर्शन आगमों के अध्ययन हेतु प्रेरित किया ,मेरा यह सौभाग्य रहा कि मैं भी उनमें से एक हूँ । अपनी पारिवारिक परंपरा में उन्होंने अपनी पोती डॉ तृप्ति जैन को जैन विद्या की सेवा के क्षेत्र में कार्य करने हेतु प्रशिक्षित किया है तो वह भी उत्साह पूर्वक तन मन धन से जैन विद्या की सेवा कर रही है ।
मैं मानता हूं कि जैन विद्या के क्षेत्र में बहुत कम लोग समर्पित भाव से कार्य करते हैं ,दिगम्बर परंपरा में थोड़ी ही सही आगम निष्ठ विद्वानों की एक परंपरा चल भी रही है किन्तु श्वेताम्बर परंपरा में गृहस्थ विद्वान बहुत ज्यादा नहीं हैं । प्रो सागरमल जी के जाने से एक बहुत बड़ी रिक्तता समाज को झेलनी पड़ेगी ,उस रिक्तता की पूर्ति के लिए श्रावकों को आगे आना चाहिए ।यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
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