मौन और तटस्थ रहना भी अपराध है
- प्रो डॉ अनेकान्त कुमार
जैन,नई दिल्ली
निःसंदेह
आध्यात्मिक दृष्टि से,स्वास्थ्य की दृष्टि से ,शिष्टाचार
,सम्मान और शांति आदि कई मायनों में मौन रहना एक अच्छे
व्यक्तित्व की निशानी है । वह एक साधना भी है । मौन रहने के जितने भी लाभ गिनाए
जायें उतने कम हैं ।कहा गया है –
‘मौनं
सर्वार्थसाधकम्’
किन्तु हर समय
मौन रहना भी हानिकारक है । खासकर तब जब सब कुछ लुट रहा हो ।
कहा भी है –
'अति का भला न बोलना ,अति की भली न चूप'
कुछ प्रसंग
ऐसे भी होते हैं जब सज्जनों को बिल्कुल चुप नहीं रहना चाहिये ।
ग्यारहवीं
शताब्दी के आचार्य शुभचंद्र लिखते हैं -
धर्मनाशे
क्रियाध्वंसे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे ।
अपृष्टैरपि
वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ।।
(ज्ञानार्णव/545)
अर्थात् जब
धर्म का नाश हो रहा हो , आगम सम्मत क्रिया नष्ट हो रही हो , आगम या सिद्धांत का गलत अर्थ लगाया जा रहा हो तब विद्वानों को
बिना पूछे भी यथार्थ स्वरूप को बतलाने वाला व्याख्यान / कथन जरूर
करना चाहिए ।
ऐसे
वक्त पर उन्हें मौन बिल्कुल नहीं रहना चाहिए । इस समय का मौन एक किस्म का अपराध ही
है । हमारा मौन उस अनर्थ का समर्थन बन जाता है । उक्ति प्रसिद्ध है -
'मौनं स्वीकृतिलक्षणम् ' या ‘मौनं सम्मतिदर्शनम्’
अर्थात् मौन
सहमति का सूचक होता है ।
वर्तमान
में हम एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जहां असत्य और अनाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले
के साथ ऐसा वर्ताव होता है मानों वो कोई अपराधी हो । आज व्यक्तिवाद इतना अधिक हावी है कि असत्य का विरोध करो तो व्यक्ति अपना
विरोध समझता है । ग़लत को ग़लत कहना भी अपराध बना दिया गया है । विपक्ष को स्थायी
रूप से विरोधी मान लिया गया है । दूसरी तरफ अधिकांश
बुद्धिजीवी भी स्वार्थी ,अवसरवादी, लोभी
और चाटुकार किस्म के हो गए हैं ।
हम
अपनी सुरक्षा के प्रति ज़्यादा चिंतित हैं , इसलिए
स्व सुरक्षित लेखन,स्व सुरक्षित भाषण,स्व
सुरक्षित मौन में ज्यादा यकीन रखने लगे है । हम अक्सर बहुत चतुराई से ऐसे मौकों पर
भी तटस्थ हो जाते हैं जब हमें सत्य के साथ किसी भी कीमत पर खड़े होना चाहिए । खुद
को सबकी नज़र में भले बने रहने की आदत हम इस आधार पर विकसित करते हैं कि क्या पता
कब किस सज्जन या दुर्जन से अपना काम पड़ जाए । कुछ बोलकर या किसी एक का पक्ष लेकर
हम किसी के भी बुरे क्यों बनें ?
हम
अक्सर सभाओं में ऐसे वक्त पर भी मौन रहना ठीक मानते हैं जब मिथ्या सिद्धियां हो
रहीं हों, स्वार्थी प्रस्ताव पारित हो रहे हों आदि आदि ,वो भी सिर्फ इस भय से कि कुछ बोलेंगे या विरोध करेंगे तो मुझे ही
आमंत्रण मिलना बंद हो जाएंगे । पद मिलना बंद हो जायेंगे या इनाम
मिलने की संभावना खत्म हो जाएगी आदि । पर यह कब तक चलेगा ?
*रोशनी भी गर अंधरों से डरने लगेगी,तो बोलो ये दुनिया
कैसे चलेगी* ?
एक कवि ने
लिखा है -
'जब चारों ओर मचा हो शोर
सत्य
के विरुद्ध,
तब
हमें बोलना ही चाहिए,
सर
कटाना पड़े या न पड़े
तैयारी
तो उसकी
होनी
ही चाहिए ।'
दिनकर जी की
यह पंक्तियां उनके ऊपर लिखी गयी है जो ऐसे वक्त में भी तटस्थ या चुप रहने में
समझदारी समझते हैं -
'समर शेष है , नहीं पाप का भागी केवल व्याध ।
जो
तटस्थ हैं ,समय लिखेगा उनके भी अपराध ।।'
नए वर्ष की
शुभकामनाओं के साथ -
नए
वर्ष में हम नया संकल्प लेंगे ।
हो
सत्य का हनन तो जरूर बोलेंगे ।।
-
Dr ANEKANT KUMAR JAIN ,NEW DELHI
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