सादर प्रकाशनार्थ
'गोमटेश दर्शन से हो जाती है सारे तनावों से मुक्ति'
-डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
कर्णाटक के हासन जिले में चेनरैपाटन के पास श्रवणबेलगोला एक ऐसा तीर्थ स्थान है जहाँ जाने मात्र से मनुष्य अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्त हो सकता है |मानसिक सुख और शांति के लिए द्रव्य,क्षेत्र, काल, भाव सभी की शुद्धि और मंगल आवश्यक है | ऐतिहासिक दृष्टि से यह महज एक संयोग मात्र नहीं है कि हजारों सालों से यह स्थान साधना और सल्लेखना का मुख्य केंद्र रहा है,बल्कि यह इस क्षेत्र की आध्यात्मिक और भौगोलिक पवित्रता का प्रभाव रहा कि साधना के अनुकूल मानसिक और आत्मिक सुख और शांति के लिए यह स्थान समस्त मुनि परंपरा के लिए आकर्षण का केंद्र रहा |
समाधिमरण के यहाँ के शिलालेखीय दस्तावेज इस बात के सबसे बड़े प्रमाण हैं कि जीवन के अंत में मानसिक शांति पूर्वक संयम और साधना के साथ देह विसर्जित करने के लिए इस स्थान को सर्वश्रेष्ठ माना गया |
यहाँ दो पर्वत हैं – १.विन्ध्यगिरी पर्वत २. चंद्रगिरी पर्वत | विन्ध्यगिरी पर्वत की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि नंगे पैर वंदना करने से मनुष्य के भीतर के सभी आज्ञाचक्र स्वतः क्रिया शील हो उठते हैं | मनुष्य न अधिक थकता है और न अधिक भार महसूस करता है | श्वास की गति तीव्र होने से अन्दर की धमनियों में रक्त प्रवाह तीव्र हो उठता है जिससे शरीर के सभी अंगों ,प्रत्यंगों में क्रिया शीलता स्वतः बढ़ जाती है |यहाँ की आरंभिक सीढियाँ पर्वत के पत्थर को ही काट कर निर्मित की गयीं हैं अतः वे न तो ज्यादा बड़ी हैं न ज्यादा छोटी अतः उच्च रक्त चाप तथा ह्रदय के रोगियों के लिए धीरे धीरे मध्यम गति से वंदना करने से उनके स्वास्थ्य के लिए ये वरदान है |
श्वासोच्छ्वास स्वतः ही कभी तीव्र कभी मंद हो जाता है उसे करना नहीं पड़ता अतः यह स्वाभाविक प्राणायाम मस्तिष्क के तंतुओं को जागृत कर देता है जिससे सर दर्द तनाव आदि में लाभ होता है |
मध्य में जो जिनालय आते हैं उनमें झुक कर जाना तथा तीन आवर्त पूर्वक वंदना मुद्रा में बैठ कर तीन बार शिरो वंदन करना अपने आप में एक अद्भुत योग है |जिनालयों की प्राचीन विशाल प्रतिमाओं का पवित्र आभा मंडल हमारे आभा मंडल में प्रवेश कर जाता है तथा वह इतना शक्ति शाली होता है कि हमारे आभा मंडल में संग्रहीत नकारात्मक उर्जा को सकारात्मक उर्जा में परिवर्तित कर देता है |
मध्य जिनालयों तथा मार्ग स्थित शिलालेखों में प्राचीन कन्नड़ लिपि में उत्कीर्ण अक्षर विन्यास का दर्शन हमारी मानसिक उलझनों को अनायास ही खींच कर संतुलित कर देता है | उसके अनंतर सीडियां कुछ बड़ी हो जाती हैं जो हमारे उत्कर्ष और पुरुषार्थ की भावना को उठाती हैं |
हम जब उन्हें पार करते हैं तो प्रथम द्वार से ही गगन चुम्बी उत्तुंग बाहुबली की मूर्ती का वीतरागी प्रशांत मुद्रा युक्त चेहरा हमारे समस्त विकल्प जालों को ख़ारिज करता हुआ हमें निर्विकल्प दर्शन की ओर ले जाता है | पुनः एक छोटा सा द्वार हमें झुकाता है और फिर विशाल बाहुबली का दर्शन हमें इतना उठा देता है कि जन्मों जन्मों का मिथ्यात्व एक क्षण में नष्ट हो जाता है और हमें पता लगता है कि यही है – सम्यक्दर्शन | राग स्वतः नष्ट होने लगता है |
बाहुबली हमें अपने वैराग्य के बाहुपाश में मानो खींच लेते हैं | थोड़ी देर को सही पर हम भी वीतरागी हो जाते हैं | उस परिकर में मनुष्य और उसका अहंकार स्वतः ही बहुत छोटा हो जाता है | हर दर्शनार्थी को लगता है कि मैं ,मेरा मान ,मेरा वैभव,मेरा ज्ञान,मेरा कुल,मेरी परंपरा,मेरी परेशानियाँ,मेरा तनाव सब छोटे हैं ,तुच्छ हैं |
वैराग्य और वीतरागता के समुन्दर में गोते लगाता हुआ दर्शनार्थी मानसिक तनाव जैसे तुच्छ रोगों को पास भी नहीं फटकने देता | मूर्ति का विशालकायत्व और शक्तिशाली प्रभाव हमारी जनम जनम की सभी वासनाओं को तिरोहित कर के शुद्धता की प्राप्ति करने में बहुत बड़ा निमित्त बन जाता है |
चंद्रगिरी पर्वत भी अपनी बनावट और अद्भुत शिल्प सौंदर्य के साथ मनुष्यों की उस प्यास को बुझाने का काम करता है जो उसे सांस्कृतिक बोध के अभाव में तड़फा रही है | शब्द,चेतना और कला की बारीकियां जब मनुष्यों के भाव अस्तित्व से लुप्त होने लगती हैं तो इनसे रीता उसका कोरा अध्यात्म उसे त्राण नहीं दे पाता है यहाँ आकर उसे लगता है कि वह आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त से बातें कर सकता है ,ज्ञान विज्ञान का प्राचीन वैभव देखकर उसका आत्म वैभव जागृत होता है |
संसार ,शरीर और भोगों से विरक्त हजारों ज्ञानियों के चरण हजारों वर्षों से जिस पर्वत पर आचरण का इतिहास लिख रहें हों ,उस पर्वत पर जब हमारे चरण पड़ते हैं तो हम भी कब उस आचरण की गंगा में तैरने लगते हैं ,हमें स्वयं पता नहीं लगता | यहाँ के वसदियों में हजारों सालों तक मन्त्रों के उच्चारण हुए हैं ,आगमों की गाथाएं गाई गयीं हैं ,स्तुतियों के कीर्तिमान रचे गए हैं | यहाँ के एक एक परमाणुओं में वे शब्द ,वे ध्वनियाँ खचित प्रतीत होतीं हैं | जब हम उन वसदियों में प्रवेश करते हैं तो वे शब्द ,वे ध्वनियाँ हमारे कानों में गूजनें लगती हैं |
हम उन शताब्दियों में विचरण करने लगते हैं जब भद्रबाहु ,कुन्दकुन्द,समन्तभद्र ,पूज्यपाद ,नेमिचंद्र आदि महामुनि रहा करते थे | ऐसे वातावरण की अनुभूति करने वाला कभी तनाव में नहीं रह सकता और अवसाद तो आसपास भी नहीं फटक सकता |
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