प्राकृत साहित्य में जीवन
डॉ अनेकांत कुमार जैन
प्राकृत साहित्य अपने रूप एवं विषय की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है तथा भारतीय संस्कृति और जीवन के सर्वांग परिशीलन के लिये उसका स्थान अद्वितीय है। उसमें उन लोकभाषाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है जिन्होंने वैदिक काल एवं संभवत: उससे भी पूर्वकाल से लेकर देश के नाना भागों को गंगा यमुना आदि महानदियों को प्लावित किया है और उसकी साहित्यभूमि को उर्वरा बनाया हैं। प्राकृत साहित्य अथाह सागर है | संसार की अन्य प्राचीन भाषाओँ के साहित्य और सम्पूर्ण प्राकृत साहित्य की तुलना की जाय तो संख्या,गुणवत्ता और प्रभाव की दृष्टि से प्राकृत साहित्य अधिक ही दिखाई देगा कम नहीं |प्राकृत साहित्य को हम मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं –
१. आगम-दार्शनिक-साहित्य
२. काव्य-कथा-तथा लैकिक साहित्य
इसी प्रकार जीवन की अवधारणा को भी हम इन दो तरह के साहित्य में भिन्न भिन्न रूपों में देख सकते हैं |आगम-दार्शनिक साहित्य में भगवान् महावीर की वाणी ,आचार्यों द्वारा रचित जैन धर्म दर्शन सिद्धांत को निरूपित करने वाला साहित्य है जहाँ जीवन की परिभाषा करते हुए कहा है कि -
‘आउपमाणं जीविदं णाम’ अर्थात् आयु के प्रमाण का नाम जीवन (जीवित) है।[2] जीवन के पर्यायवाची बताते हुए कहा है कि जीवन पर्याय के ही स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ऐसे नाम हैं।[3]
इसी प्रकार काव्य-कथा-तथा लौकिक साहित्य में मनुष्य के जीवन, जीवन मूल्य उसके सौंदर्य तथा विसंगतियों का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है | गाथासप्तशती जैसे ग्रन्थ में ग्राम्य जीवन की सहजता और विवशता का जो चित्रण है उससे बड़े बड़े काव्यशास्त्री भी मोहित हो उठे |
एक साहित्यकार समाज की वास्तविक तस्वीर को सदैव अपने साहित्य में उतारता रहा है । मानव जीवन समाज का ही एक अंग है । मनुष्य परस्पर मिलकर समाज की रचना करते हैं । इस प्रकार समाज और मानव जीवन का संबंध भी अभिन्न है । समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । साहित्य और जीवन का संबंध तो हमेशा से रहा है और जब तक जीवन है, तभी तक साहित्य है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने साहित्य और समाज के संबंध को इन शब्दों में व्यक्त किया है- “साहित्य और जीवन का क्या संबंध है,यह प्रश्न आज एक विशेष प्रयोजन से पूछा जाता है। वर्तमान भारतीय समाज एक ऐसी अवस्था में पहुँच गया है जिसके आगे अज्ञात संभावनाएं छिपी हुई हैं। विशेषतः हमारे शिक्षित नवयुवकों के लिए यह क्रांति की घड़ी है।”[4]
इस सम्भावना और क्रांति की खोज हम प्राकृत के विशाल साहित्य में कर सकते है | विवाह से पूर्व और विवाह के अनंतर पुत्र का जीवन कैसा हो गया इस पर एक पिता के कथन के माध्यम से जो कटाक्ष प्राकृत की इस गाथा में किया गया है उससे आपको प्राकृत की अद्भुत साहित्य संपदा का अंदाजा सहज ही हो जायेगा –
करिणीवेहव्व अरो मह पुत्तो एक्ककाण्डविणिवाई |
हअ सो हाए तह कहो जह कण्डकरण्डअं वरहई || (ध्वन्यालोक ३,४)
अर्थात् केवल एक वाण से हथिनियों को विधवा बना देने वाले मेरे पुत्र को उस अभागिनी पुत्रवधू ने ऐसा कमजोर बना दिया है कि अब वह केवल वाणों का तरकस लिए घूमता है |
इस प्रकार जीवन और साहित्य का अटूट संबंध है । साहित्यकार अपने जीवन में जो दु:ख, अवसाद, कटुता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, दया आदि का अनुभव करता है उन्हीं अनुभवों को वह साहित्य में उतारता है ।इसके जीवंत उदाहरण प्राकृत साहित्य में पग पग पर देखने को मिलता है |
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