चैत्र शुक्ल त्रयोदशी ९ अप्रैल २०१७ को महावीर जयंती पर विशेष
भगवान् महावीर का स्वच्छता और शुद्धता अभियान
डॉ अनेकांत कुमार जैन*
वर्तमान में स्वच्छ भारत अभियान आन्दोलन से स्वच्छता ने हमारी भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनः स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है | भारतीय समाज में इसी तरह का स्वच्छता अभियान भगवान् महावीर ने ईसा की छठी शताब्दी पूर्व चलाया था | उस अभियान को हम शुद्धता का अभियान कह सकते हैं | भगवान् महावीर ने दो तरह की शुद्धता की बात कही -1. अन्तरंग शुद्धता 2. बहिरंग शुद्धता | क्रोध, मान, माया,लोभ ये चार कषाये हैं | ये आत्मा का मल-कचड़ा है | भगवान् महावीर ने मनुष्य में सबसे पहली आवश्यकता इस आंतरिक कचड़े को दूर करने की बतायी | उनका स्पष्ट मानना था की यदि क्रोध, मान, माया, लोभ और इसी तरह की अन्य हिंसा का भाव आत्मा में हैं तो वह अशुद्ध है और ऐसी अवस्था में बाहर से चाहे कितना भी नहाया-धोया जाय, साफ़ कपडे पहने जायें वे सब व्यर्थ हैं, क्यों कि किसी पशु की बलि देने से पहले उसे भी नहलाया-धुलाया जाता है, पुजारी भी नहाता है और उस पशु की पूजा करता है |
भगवान् माहावीर का मानना था की उस निर्दोष प्राणी के जीवन को समाप्त करने का और प्रसाद में उसके रक्त और मांस सेवन का अभिप्राय तुम्हारे मन में है तो ऐसे पापी का नहाना-धोना,स्वच्छता आदि सब पाखण्ड हैं, अधर्म है | समाज में हिंसा हर जगह होती है | उसके अहिंसक समाधान भी धैर्य पूर्वक खोजे जा सकते हैं किन्तु जब धर्म के नाम पर ही हिंसा होने लगे तो इससे बड़ी सामाजिक गन्दगी कुछ नहीं हो सकती |उन्होंने समाज से इस प्रकार की गन्दगी को हटाने का संसार का सबसे बड़ा ‘स्वच्छता-अभियान’ प्रारंभ किया |
भारत में पवित्र वैदिक संस्कृति को यज्ञादि में पशु बलि प्रथा ने विकृत कर रखा था | भगवान् महावीर से पूर्व तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने राजकुमार अवस्था में एक तापस ऋषि को यज्ञ के लिए लकड़ी जलने से यह कहकर मना किया कि इसके भीतर एक सर्पयुगल रहता है | मना करने के बाद भी ऋषि ने क्रोध में वह लकड़ी जलाई और काफी अनुरोध पर जब लकड़ी चीरकर देखी गयी तो उसमें झुलसे हुए सर्प युगल निकले और उनका प्राणांत हो गया | उसके बाद भगवान् महावीर ने भारतीय समाज में फैली तमाम बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया | भगवान् महावीर के अभियान का यदि हम अभिप्राय समझें तो यह अभिव्यक्त होता है कि ‘शुद्धता’ एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसका एक अंग है ‘स्वच्छता’ |
अगर आपके भीतर जीवों के प्रति मैत्री, करुणा, दया या अहिंसा का भाव नहीं है और आप बाहरी साफ़-सफाई सिर्फ इसलिए करते हैं कि स्वयं आपको रोग न हो जाये तो यह ‘स्वच्छता’ है किन्तु इस क्रिया में आप साफ़-सफाई इसलिए भी करते हैं कि दूसरे जीवों को भी कष्ट न हो, सभी स्वस्थ रहें, जीवित रहें तो अहिंसा का अभिप्राय मुख्य होने से वह ‘शुद्धता’ की कोटि में आता है |
जैन साधु हमेशा मयूर पंख की एक पिच्छी साथ में रखते हैं | किसलिए? जब वे चलते हैं, बैठते हैं, या कोई ग्रन्थ आदि कहीं पर रखते हैं तो पहले मयूर पिच्छी से उस स्थान को एक बार बुहार लेते हैं | जगह की सफाई करके ही वहां बैठते हैं | सामान्य जन को एक बार लगेगा कि यह मयूर पिच्छी, साफ़-सफाई का उपकरण (झाडू) है; लेकिन जैन आगमों में इसे ‘संयम का उपकरण’ कहा है | कार्य सफाई का है लेकिन उद्देश्य यह है कि यदि बिना साफ किए वहाँ बैठ जायेंगे तो वहाँ दृश्य-अदृश्य, स्थूल, सूक्ष्म जीवों को वेदना हो सकती है, उनका प्राणांत हो सकता है अतः मयूर पंख की पिच्छी से विनम्रता पूर्वक उन्हें वहाँ से अलग कर दें तो हिंसा नहीं होगी |अब इस कार्य के लिए झाडू भी रखी जा सकती थी; किन्तु मयूर पंख की अत्यंत कोमलता के कारण ही पिच्छी को चुना गया | मयूर पिच्छी से जब सूक्ष्म जीवों को भी वहाँ से हटाया जाता है तो उसकी कोमलता से उन्हें बहुत अल्प कष्ट ही होता है |भगवान् की अत्यंत करुणा से युक्त ऐसा अभियान ‘शुद्धता’ का था जिसमें स्वच्छता तो स्वभाव से गर्भित रहती ही है |वे सच्चे साधु के लिए मठ-आश्रम बनाने के भी खिलाफ थे | उनका मानना था कि जब-जब साधुओं ने मठ व आश्रम बनाये हैं, तब तब वे संसार में फंसे हैं | मठों-आश्रमों को अनाचार का केंद्र बनते देर नहीं लगती |
भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गणधर ने हर बात पर अहिंसा-अहिंसा सुनकर एक बार उनसे पूछा हे भगवन्-
‘कहं चरे कहं चिट्ठे कहमासे कहं सए |
कहं भुंजतो मासंतो पावं कम्मं न बंधई | |’
कहं भुंजतो मासंतो पावं कम्मं न बंधई | |’
अर्थात् कैसे चलें? कैसे खड़े हों? कैसे बैठे? कैसे सोएं? कैसे खाएं? कैसे बोलें? जिससे पापकर्म का बंधन न हो | तब इस प्रश्न का समाधान करते हुए एक बार भगवान् महावीर ने कहा-
‘जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए |
जयं भुंजन्तो भाजन्तो पावकम्मं न बंधई | |’
जयं भुंजन्तो भाजन्तो पावकम्मं न बंधई | |’
अर्थात् सावधानीपूर्वक चलो, सावधानीपूर्वक खड़े हो, सावधानीपूर्वक बैठो, सावधानीपूर्वक सोओ, सावधानीपूर्वक खाओ और सावधानी से वाणी बोलो तो पाप कर्म बंधन नहीं होता |कहने का तात्पर्य क्रिया का निषेध नहीं है बल्कि हर किया के साथ यात्नाचार सम्मिलित हो- यह अपेक्षा है | आप अपनी हर क्रिया में इतनी सावधानी रखें कि दूसरे जीवों की विराधना न हो, कष्ट न हो तो उस क्रिया में पाप बंध नहीं होगा |
आज भी जैन मुनि यत्र-तत्र कहीं भी आहार नहीं लेते | गृहस्थ लोग अपने चौके (रसोई) को पहले पूर्णतः शुद्ध करते हैं, उस दिन वे शास्त्रीय पद्धति से शुद्ध आहार का निर्माण करते हैं तथा स्वयं ग्रहण करने से पहले पूर्व किन्हीं मुनिराज को आहार हेतु निमंत्रित करते हैं, मुनिराज भी पहले उससे संकल्प करवाते हैं कि ‘मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि आहार जल शुद्ध है,’ तभी वे उसके यहाँ मात्र एक समय पाणी-पात्र में खड़े होकर थोड़ा सा आहार ग्रहण करते हैं |इसी बीच यदि कहीं भी कोई साफ़-सफाई में अशुद्धाता उन्हें दिखाई दे जाये तो उसे वे अंतराय (विघ्न) जानकार आहार त्याग कर देते हैं |
जैनधर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है; किन्तु गृहस्थ जीवन में कुछ हिंसाएं न चाहते हुए भी हो जाती हैं अतः कहा गया है कि गृहस्थ व्यक्ति ‘आरंभी हिंसा’ का पूर्ण त्यागी नहीं होता | यह आरंभी हिंसा वही है जो घर-मोहल्ले की साफ़-सफाई, झाडू, बुहारी इत्यादि कार्यों में हो जाती हैं, एक गृहस्थ व्यक्ति को साफ़-सफाई रखना ही चाहिए यह उसका परम कर्तव्य है, धर्म है, बस इतना जरूर कहा गया है कि वह इस साफ-सफाई में भी हिंसा की अल्पता रखे और प्रयास करे कि जीवों को कम से कम कष्ट हो | पहले वह अहिंसक उपायों से ही स्वच्छता रखने का अधिक प्रयास करे | अहिंसा का विवेक साथ में रहेगा तो ‘स्वच्छता’ ‘शुद्धता’ द्वारा अलंकृत हो जायेगी |
*अध्यक्ष –जैनदर्शन,दर्शन संकाय
श्री लालबहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली-११००१६
०९७११३९७७१६
(यह आलेख ४ /४/२०१७ को दैनिक जागरण में प्रकाशित है )
टिप्पणियाँ