सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भगवान् महावीर की उदार दृष्टि - डॉ अनेकांत कुमार जैन

भगवान् महावीर की उदार दृष्टि
(c)डॉ अनेकांत कुमार जैन
भगवान् महावीर के उपदेशों में सभी जीवों के प्रति करुणाभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है |आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकांत,वाणी में स्याद्वाद और जीवन में अपरिग्रह –इस प्रकार का चिंतन ही एक स्वस्थ्य व्यक्ति और शांतिपूर्ण समाज के लक्ष्य को पूरा कर सकता है | जैन धर्म दर्शन संस्कृति साहित्य और समाज इसी उदारवादी विचारधारा के कारण अनंतकाल पूर्व से आज तक समृद्ध रूप से विद्यमान है |
भगवान् महावीर ने जो ज्ञान समाज के कल्याण के लिए दिया उसका एक विशाल साहित्य प्राकृत आगमों के रूप में हमें उपलब्ध होता है जिसे द्वादशांग कहते हैं | जैन आचार्य परंपरा ने उनकी वाणी के हार्द को प्राकृत,संस्कृत,अपभ्रंश,हिंदी,कन्नड़,तमिल आदि अनेक भाषाओँ में , अनेक विधाओं में तथा अनेक विषयों पर लाखों की संख्या में साहित्य की सर्जना करके प्रत्येक भाषा के साहित्य को तो समृद्ध किया ही साथ ही तत्वज्ञान और समाज कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त किया | साहित्य को कभी सीमा में नहीं बाँधा जा सकता यही कारण है कि जैन साहित्य में उदार तथा समन्वयवादी स्वर भी मुखरित हुआ | ह्रदय की उदारता के बिना लेखनी में उदारता संभव नहीं है अतः यहाँ हम देखेंगे कि वह कौन से तत्त्व हैं जो जैन परंपरा के हृदय की उदारता को बयाँ करते हैं |
हम समाज में रहते हैं और उस समाज में रहते हैं जहां जरूरी नहीं कि हमारे धर्म,दर्शन या मान्यता वाले ही हमारे साथ रहते हों | भिन्न तथा विपरीत मत वालों के बीच भी हम अपने धर्म,मर्यादा और सिद्धांतों से समझौता किये बिना किस सहिष्णुता ,सौहार्द ,समन्वय और सह-अस्तित्व की भावना के साथ रहें-इसकी कला भगवान् महावीर और उनकी आचार्य परंपरा ने हमें सिखलाई है |
विरोधी विचारों और मान्यताओं के अस्तित्व को स्वीकारते हुए हमें उनसे व्यर्थ का वाद-विवाद नहीं करना चाहिए | आचार्य कुन्दकुन्द अपने नियमसार ग्रन्थ में कहते हैं -
णाणा जीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी |
तम्हा वयण-विवादं , सग-पर-समएहि वज्जेज्जो ||[1]
अर्थात् जीव नाना प्रकार के हैं ,कर्म नाना प्रकार के हैं ,और लाब्धियाँ भी नाना प्रकार की हैं |इसलिए साधार्मियों और पर धर्मियों के साथ वचन विवाद छोड़ देना चाहिए |
परमात्मा कौन है ? कैसा है ,इस विषय पर बहुत मतभेद रहते हैं | आचार्य कुन्दकुन्द भाव पाहुड में एक ही गाथा में सभी का समन्वय एक ज्ञानी के अंतर्गत करके बहुत सुन्दर कहते हैं –
णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो ।
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ।।[2]
अर्थात् परमात्मा ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चर्तुमुखब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कर्मरहित है, यह स्पष्ट जानो ।
जैन आचार्यों ने यह माना है कि धर्म की शुरुआत आत्म प्रतीति रूप सम्यग्दर्शन से होती है | लेकिन क्या वह सम्यग्दर्शन सभी लोगों को हो सकता है ?  इस धर्म की अधिकारी कोई जाति विशेष तो नहीं है ? आचार्य समन्तभद्र स्वामी (२-३ शती )इस श्लोक के माध्यम से यह बतलाना चाह रहे हैं कि धर्म के अधिकारी सभी लोग होते हैं -
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपिमातङ्‍गदेहजम्।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्‍गारान्तरौजसम् ॥[3]
अर्थात्गणधरादिक देव, चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुए भी सम्यग्दर्शन से युक्त जीव को भस्म से आच्छादित अंगारे के भीतरी भाग के समान तेज से युक्त आदरणीय जानते हैं।
आचार्य प्रभाचंद्र (११ शती )इस श्लोक की संस्कृत टीका करते हुए कहते हैं कि चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई पुरुष सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है तो वह आदर सत्कार के योग्य है, ऐसा गणधरादिक देव कहते हैं। क्योंकि जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं, ऐसा कहा गया है। अतएव ऐसे व्यक्ति का तेज भस्म से प्रच्छादित अंगारे के भीतरी तेज के समान निर्मलता से युक्त है।[4]
हम धर्म की आराधना करें यह ठीक है किन्तु दुरभिमान में कभी कभी अन्य सधर्मियों का अपमान भी कर देते हैं |आचार्य समन्तभद्र इसका कड़ा निषेध करते हैं और उनका मानना है कि जो धर्म की आरधना करने वाले अन्य अनुयायियों का अपमान करता है वह दरअसल धर्म का अपमान करता है -
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः ।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ [5]
अर्थात् मद से गर्वित चित्त होता हुआ जो पुरुष धर्म में स्थित अन्य जीवों को तिरस्कृत करता है, वह अपने धर्म को तिरस्कृत करता है, क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं होता।
आजकल धर्म दर्शन के क्षेत्र में एक बिडम्बना यह चल पड़ी है कि चूँकि हमारे अतिरिक्त अन्य धर्म मिथ्या होते हैं अतः अन्य धर्म दर्शनों के ग्रंथों का अध्ययन तो दूर उसे छूना भी नहीं चाहिए |प्राचीन परंपरा को भी देखें तो इस प्रकार का कट्टरवाद जैनाचार्यों ने कभी पल्लवित नहीं होने दिया |अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र में उन्हें कट्टरता बिलकुल पसंद नहीं थी | प्रायः सभी जैनाचार्यों ने अन्य धर्म दर्शनों का अध्ययन भी किया और ईमानदारी पूर्वक पूर्वपक्ष के रूप में उनके सिद्धांतों को भी प्रस्तुत किया | आचार्य सिद्धसेन(३-४शती)ने स्पष्ट कहा -
ज्ञेयः पर सिद्धान्तः , स्वपक्षबलनिश्चयोपलब्ध्यर्थम् | [6]
अर्थात् यदि अपने पक्ष या सिद्धांत की मजबूती का निर्णय भी करना हो तो भी दूसरे के सिद्धांत को जानना आवश्यक है |
पूज्यपाद (६शती )तो जिनेन्द्र देव को वे सभी नाम दे देते हैं जो अन्य धर्म दर्शनों के आराध्य हैं -
“शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे,जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः |”[7]
अर्थात् जिनेन्द्र को मेरी वंदना है जिसे शिव, धाता,सुगत,(बुद्ध),विष्णु,या सर्वभूतस्थ कहा जाता है |
आचार्य अकलंक(७ शती ) भी उस एक शुद्ध परमात्मा की ही वंदना करते हैं जिन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता है –
तं वन्दे साधुवन्द्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तम् |
बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ||[8]
अर्थात् मैं समस्त गुणों के निधि ,सभी दोषरूपी शत्रुओं को ध्वस्त करने वाले तथा सज्जनों के वन्दनीय परमात्मा की वंदना करता हूँ ,जिसे बुद्ध ,महावीर,कमलासन(ब्रह्मा),विष्णु या शिव कहा जाता है |
आचार्य हरिभद्र (८ शती) ने भी जैनदर्शन को पक्षपात रहित तथा तर्कसंगत स्वीकार करते हुए कहा है –
पक्षपातो न मे वीरे , न द्वेषः कपिलादिषु |
युक्तिमद्वचनं यस्य ,तस्य कार्यपरिग्रहः ||[9]
अर्थात् मेरा महावीर से कोइ पक्षपात नहींहै ,न ही कपिल आदि दार्शनिकों से कोई द्वेष है | युक्तियुक्त वचन जिसका भी हो उसे अपना लेना चाहिए |
जैनधर्मदर्शन का पालन करने के लिए दुनिया भर के लौकिक क्रियाकलापों के त्याग की या उन पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध लगाने की भी जैन आचार्यों ने कोई शर्त नहीं बतायी है। आचार्य सोमदेवसूरि(९-१०शती)ने बस इतना कहा है कि
‘‘सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि:।
यत्र सम्यक्त्सवहानिर्न न चापि व्रतदूषण्।।[10]
अर्थात् जैनों को वे सभी लौकिक क्रिया कलाप ,नियम,विधि या अन्य लोकाचार स्वीकार हैं जिससे सम्यक्त्व की हानि नहीं हो और व्रतों को भी दोष नहीं लगे। दरअसल, जैनाचार्य बड़ी ही उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण वाले थे। वे जानते कि क्षेत्रकाल के अनुसार लोकाचार में बहुत सारे परिवर्तन आते ही हैं सभी क्षेत्र कालों में हमारा बाहरी क्रियाकलाप एकसानहीं हो सकता। अत: उन्होंने उस सबका कोई हठाग्रह प्रस्तुत नहीं किया और इसलिए हमें भी उस सब पर कोई हठा ग्रह नहीं रखना चाहिए तथा और अन्य बातें छोड़कर सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रूप मूलभूत मोक्षमार्ग की साधना पर ही विशेष ध्यान देना चाहिए।
 उपाध्याय यशोविजय जी (१८ शती )ने तो अध्यात्मसार में जैन दर्शन के नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजुसूत्र,शब्द,समभिरूढ़ इन सात नयों में अन्य भारतीय दर्शनों को गुम्फित करके जैनदर्शन की विशालता का परिचय बहुत सुन्दर तरीके से दिया है -
बौद्धानामृजुसूत्रतोमतंभूद् वेदान्तिनां संग्रहात् |
साङ्ख्यानां तत एव नैगमनयाद् यौगश्च वैशेषिका ||
शब्दाद्वैतविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैनयैर्गुम्फिता |
जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते ||
वैचारिक  उदारता  तो जैनाचार्यों की दिखलाई दे ही रही है ,किन्तु अक्सर यह कहा जाता है कि जैन आचार्य  आचारण में शुरू से ही बहुत कट्टर रहे हैं |जैनों की व्रतचर्या ,नियम ,संयम आदि बहुत कठोर होते हैं और शिथिलता उन्हें कथमपि स्वीकार्य नहीं | कहा तो अक्सर यह भी जाता है जैन आचार संहिता की कठोरता के कारण ही इनके पालने वालों की संख्या भी कम होती जा रही है और यही कारण है कि बौद्धों की तरह जैन पूरे विश्व में अपना प्रचार प्रसार नहीं कर पाए |मैं यहाँ विनम्रता पूर्वक  यह कहना चाहता हूँ कि जैनाचार्यों ने वस्तु का सच्चा स्वरुप और मोक्षमार्ग हमें समझाया है | संसार के दुखों का अभाव करने के लिए जो सही मार्ग है उन्होंने वह ही हमें बतलाया है |मात्र अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए उस मार्ग को विकृत करके बताने का छल वीतरागी दिगम्बर जैन संत कथमपि नहीं कर सकते थे और न ही कभी किया | आचारगत दृढ़ता को कट्टरता इसलिए भी नहीं कहा जा सकता कि व्रत आदि का सम्बन्ध पूर्णतः व्यक्तिगत होता है |अतः दृढ़ता एक प्रकार का आत्म-अनुशासन है और कट्टरता एक विकृत अनुशासन है ,जो बलात् करवाया जाता है | इस विषय में यदि हम खोज करें तो आचारगत उदारता भी जैन आचार मीमांसा में विद्यमान है | 
संयम तपत्याग आदि की बात को  सर्वत्र यथाशक्तिया शक्तित:शब्द लगाकर ही बतलाया गया है|मूल सूत्रों में ही ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जैसे शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तपइत्यादि।आचार मीमांसा में यह शर्त भी रही कि अपनी शक्ति को छिपाए न ताकि स्वच्छंदता न पनपने लगे और इस बात का भी निर्देश दिया गया कि अपनी शक्ति य सामर्थ्य से बाहर जाकर भी आचरण न करे ताकि अतिवाद न पनपे | सभी जैनाचार्योंने एक स्वर से यह उद्धोष किया है कि
जं सक्कदि तं कीरइ जं च ण सक्कदि तहेव सद्दणं।
सद्दहमाणो जीवो पावदि अजरामरं ठाणं।।[11]
अर्थात् जितना शक्य हो उतना करो और यदि शक्य न हो तो उसकी श्रद्धा अवश्य करो। श्रद्धावान् जीव अजरअमर पद को प्राप्त कर लेता है।
कई बार लोग ज्ञान को लेकर भी बहुत चिंतित होने लगते हैं और निर्णय ही नहीं कर पाते हैं कि कौन से शास्त्र पढ़ें और कौन से नहीं , और कितने शास्त्र पढ़ डालें ? शास्त्रों की संख्या भी बहुत है , भिन्न भिन्न मतों के भिन्न भिन्न शास्त्र हैं और वे भिन्न भिन्न बातें कहते हैं तो हम क्या करें और क्या न करें ? स्वाध्याय के माध्यम से सुलझने की बजाय अपनी कमी के कारण उल्टे उलझ कर रह जाते हैं | इस समस्या से निपटने के लिए भी जैनाचार्यों ने मार्ग सुझाया और सार रूप में कहा -
जीवोऽन्य: पुद्गलश्चान्य: इत्यसौ तत्त्वसंग्रह:।
यदन्यदुच्यते किंचिस्तोऽस्तु तस्यैव विस्तर:।।[12]
अर्थात् जीव भिन्न है ,अजीव भिन्न है –सम्पूर्ण तत्वज्ञान का बस इतना सा ही सार है ,और इसके अलावा अनेक शास्त्रों में जो कथन आया है वह इसका ही विस्तार है | कहने का तात्पर्य यह है कि यदि भेद विज्ञान हो गया तो अनेक शास्त्रों से क्या प्रयोजन ? और यदि भेद ज्ञान नहीं हुआ तो अनेक शास्त्रों के ज्ञान का भी क्या लाभ ?
इस प्रकार और भी अनेक उद्धरण जैन साहित्य में हमें पग पग पर मिलते हैं |सार रूप में  हम देखते हैं कि आचार्यों ने अपनी उदारता से सहज सरल धर्माचरण को कभी बोझिल नहीं होने दिया और अन्य धर्मों दर्शनों  और उनके अनुयायियों के प्रति भी खुला ह्रदय रखा |किसी भी जाति , क्षेत्र , धर्म, भाषा या अन्य किसी भी चीज को  धर्माचरण में बाधक नहीं बनने दिया |



[1]नियमसार , गाथा -१५६
[2]भावपाहुड, गाथा -१५१
[3]रत्नकरंडश्रावकाचार ,श्लोक-२८
[4]देवम्आराध्यम्। विदुर्मन्यन्ते। के ते?‘देवादेवा वि तस्स पणमन्‍ति जस्स धम्मे सया मणोइत्यभिधानात्। कमपि?‘मातङ्गदेहजमपिचाण्डालमपि। कथम्भूतम्? ‘सम्यग्दर्शनसम्पन्नंसम्यग्दर्शनेन सम्पन्नं युक्तम्। अतएव भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसंभस्मना गूढ: प्रच्छादित: स चासावङ्गारश्च तस्य अन्तरं मध्यं तत्रैव ओज: प्रकाशो निर्मलता यस्य॥ -आचार्य प्रभाचंद्र कृत संस्कृत टीका 

[5]रत्नकरंडश्रावकाचार ,श्लोक-२६
[6]द्वात्रिन्शिका ८/१९
[7]समाधि शतक -२
[8]अकलंक स्तोत्र /९
[9]लोकतत्वनिर्णय -३८
[10]यशस्तिलचम्पू , ८/३४
[11]दर्शनपाहुड,२२, आचार्य कुन्दकुन्द
[12]इष्टोपदेश, ५० आचार्य पूज्यपाद
Note- If you want to publish this article in your magazine or news paper please send a request mail to -  anekant76@gmail.com -  for author permission.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्राचीन अयोध्या नगरी का अज्ञात इतिहास

ये सोने की लंका नहीं सोने की अयोध्या है  प्राचीन अयोध्या नगरी का अज्ञात इतिहास  (This article is for public domain. Any news paper ,Magazine, journal website can publish this article as it is means without any change. pls mention the correct name of the author - Prof Anekant Kumar Jain,New Delhi ) प्राचीन जैन साहित्य में धर्म नगरी अयोध्या का उल्लेख कई बार हुआ है ।जैन महाकवि विमलसूरी(दूसरी शती )प्राकृत भाषा में पउमचरियं लिखकर रामायण के अनसुलझे रहस्य का उद्घाटन करके भगवान् राम के वीतरागी उदात्त और आदर्श चरित का और अयोध्या का वर्णन करते हैं तो   प्रथम शती के आचार्य यतिवृषभ अपने तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में अयोध्या को कई नामों से संबोधित करते हैं ।   जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई अन्य ग्रंथ लिखे गये , जैसे   रविषेण कृत ' पद्मपुराण ' ( संस्कृत) , महाकवि स्वयंभू कृत ' पउमचरिउ ' ( अपभ्रंश) तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् राम का मूल नाम ' पद्म ' भी था। हम सभी को प्राकृत में रचित पउमचरिय...

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - ...

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन- डॉ अनेकांत कुमार जैन

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन डॉ अनेकांत कुमार जैन जीवन की परिभाषा ‘ धर्म और कर्म ’ पर आधारित है |इसमें धर्म मनुष्य की मुक्ति का प्रतीक है और कर्म बंधन का । मनुष्य प्रवृत्ति करता है , कर्म में प्रवृत्त होता है , सुख-दुख का अनुभव करता है , और फिर कर्म से मुक्त होने के लिए धर्म का आचरण करता है , मुक्ति का मार्ग अपनाता है।सांसारिक जीवों का पुद्गलों के कर्म परमाणुओं से अनादिकाल से संबंध रहा है। पुद्गल के परमाणु शुभ-अशुभ रूप में उदयमें आकर जीव को सुख-दुख का अनुभव कराने में सहायक होते हैं। जिन राग द्वेषादि भावों से पुद्गल के परमाणु कर्म रूप बन आत्मा से संबद्ध होते हैं उन्हें भावकर्म और बंधने वाले परमाणुओं को द्रव्य कर्म कहा जाता है। कर्म शब्दके अनेक अर्थ             अंग्रेजी में प्रारब्ध अथवा भाग्य के लिए लक ( luck) और फैट शब्द प्रचलित है। शुभ अथवा सुखकारी भाग्य को गुडलक ( Goodluck) अथवा गुडफैट Good fate कहा जाता है , तथा ऐसे व्यक्ति को fateful या लकी ( luckey) और अशुभ अथवा दुखी व्यक्ति को अनलकी ( Unluckey) कहा जाता...