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क्या आगम ही मात्र प्रमाण है ?

क्या आगम ही मात्र प्रमाण है ?
                                 -डॉ अनेकान्त कुमार जैन
                              anekant76@gmail.com


जैन आचार्य समन्तभद्र ने चतुर्थ शती में एक संस्कृत ग्रन्थ लिखा  " आप्तमीमांसा " । यह अद्भुत ग्रंथ  किन परिस्थितियों में लिखा गया ? यह हमें अवश्य विचार करना चाहिए । भगवान की परीक्षा करने का साहस आचार्य समन्तभद्र ने क्यों किया ? किसके लिए किया ? यह हम सभी को मिलकर अवश्य विचार करना चाहिए । हम लोग या तो पंथवाद में फँसे हैं या फिर संतवाद में ।


अनेकांतवाद की शरण में  कब  जायेंगे पता नहीं ? हमें ईमानदारी पूर्वक बिना किसी आग्रह के सत्य का अनुसन्धान करना चाहिए क्योंकि दुर्भाग्य  से यदि हम धर्म की गलत व्याख्या कर बैठे  , और वैसा ही समझ बैठे तो अपना यह मनुष्यभव व्यर्थ गवाँ देंगे ।यह भव , भव का अभाव करने के लिए मिला है किसी सम्प्रदाय या मत का पोषण करने के लिए नहीं।
वर्तमान में कुछ ज्वलंत समस्यायें ऐसी सामने आ रहीं हैं जिनपर यदि समय रहते हमने विचार नहीं किया तो वीतरागी जैन धर्म की मूल अवधारणा विलीन हो जायेगी ।


समन्तभद्राचार्य की चिन्ता को समझें -


आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में यह प्रश्न उठाया कि क्या सर्वथा हेतु अथवा सर्वथा आगम से
तत्व को सिद्ध किया जा सकता है ?


"सिद्धं चेद्धेतुत: सर्वं न प्रत्यक्षादितो गति: ।
सिद्धं चेदागमात्सर्वं विरूद्धार्थमतान्यपि ।।"
                                  -आप्तमीमांसा/७६


अर्थात् यदि सभी तत्व हेतु से सिद्ध हों तो प्रत्यक्ष प्रमाण की कोई गति नहीं रहेगी , और यदि सभी तत्व आगम से सिद्ध हो जायें तो विरूद्ध अर्थ को कहने वाले आगम भी प्रमाण हो जायेंगे ।
जैन दर्शन में मात्र आगम प्रमाण नहीं है -


जैन दर्शन में आगम प्रमाण है ,किन्तु मात्र वह ही प्रमाण नहीं है |जैन दर्शन में आगम अर्थात आप्त वचन को  परोक्ष प्रमाण में पांचवां प्रमाण कहा है |उसके पूर्व स्मृति,प्रत्याभिज्ञान,तर्क,अनुमान भी परोक्ष प्रमाण हैं |सबसे पहले प्रत्यक्ष प्रमाण और उसमें भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दो भेद कर ही दिए थे |ये सभी प्रमाण है |


आगम प्रमाण तो है ,लेकिन अनुमान और तर्क को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है |जब आगम है तो युक्ति और तर्क आदि की क्या आवश्यकता थी ?आचार्य जानते थे कि आज आगम भले ही भगवान् की वाणी हैं लेकिन कालांतर में छद्मस्थ मनुष्य ही इसे लिखेगा,बोलेगा ,और छपवाएगा |
और तब वह लिखने और बोलने में सबसे पहले मंगलाचरण में तो यही कहेगा कि जो भगवान् की वाणी में आया वह मैं कह रहा हूँ और अपने देश ,काल, वातावरण,संप्रदाय,और आग्रहों को भी भगवान् के नाम से अज्ञानता वश उसमें जोड़ देगा |कभी कभी परिस्थिति वश धर्म रक्षा के लोभ में भी वह कई तरह के मिथ्यात्व कुछ अच्छे नामों से उसमें डाल देगा |तब बाद में मूल आगम की कौन रक्षा करेगा ?कैसे पता चलेगा कि भगवान् की वाणी का मूल अभिप्राय क्या था ?


 ऐसे मुश्किल वक्त में सत्य का निर्णय करने के लिए तर्क ,अनुमान प्रमाण काम आयेंगे |मात्र किताबें अंतिम ज्ञान नहीं हैं भले ही वह भगवान् की कही विज्ञापित की गयीं हों |विवेक भी आवश्यक है | अन्यथा जैन परंपरा में प्रत्यक्ष और आगम ये दो ही प्रमाण होते ।


दिगम्बरों ने क्यों नहीं माने श्वेताम्बर आगम ?-


श्वेतांबर परम्परा में आचारांग आदि मूल अंग आगम वैसे ही हैं जैसा दिगम्बर ग्रंथों में नाम मिलता है । फिर भी दिगम्बर उनके एक भी आगम को स्वीकृति प्रदान नहीं करते , क्यों ? कुन्दकुन्द , समन्तभद्र आदि की वाणी को भगवान की वाणी के समान मानते हैं लेकिन महावीर के साक्षात् वचनों(आचारांग आदि)को आगम नहीं मानते क्यों ?••••••••••••-बस इसलिए क्योंकि दिगम्बरों को उनके आगमों में प्रामाणिकता नहीं दिखाई देती।


श्रद्धा के साथ जरूरी है तर्क-


आज आवश्यक है कि श्रद्धा के साथ तर्क और युक्ति का प्रयोग अवश्य किया जाय |श्रद्धा के साथ तर्क और युक्ति का प्रयोग ही आगम की रक्षा करेगा और भगवान् ,आप्त और आगम के नाम पर हो रहे मिथ्या प्रतिपादनों पर अंकुश लगाएगा | वर्तमान में दुराग्रहवशात् कई लोग भट्टारक युग में लिखे गये आचार्य एवं भट्टारक प्रणीत ग्रन्थों के उद्धरण दे देकर और उसे "आगम में लिखा है " कह कह कर शोर मचा रहे हैं और अनुचित धार्मिक क्रियाओं,  परम्पराओं  को आगम सम्मत कह कर समाज को भ्रमित कर रहे हैं ।


भोली समाज को अन्य धर्मों के मिथ्यात्व से बचाने के लिए तथा जैनत्व में जोड़े रखने और जिनशासन की रक्षा के लिए मजबूरी में कुछ आचार्यों ने (विशेषकर उन आचार्यों ने जो मूलतः ब्राह्मण परंपरा के थे ) कई परंपरायें ऐसी भी शुरू कीं जो समाजिक दृष्टि से आवश्यक थीं लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से न तब आवश्यक थीं न आज हैं ।



क्या सभी धार्मिक साहित्य आगम है  ?


सामान्य रूप  से तो सभी ग्रंथों को आगम कहा ही जाता है लेकिन हम जरा गहराई से विचार करें तो क्या हर धार्मिक साहित्य को आगम कहा जा सकता है ? जैन परम्परा का जो भी , जितना भी कथा साहित्य है वह साहित्य है या आगम ? कई लोग आचार्य प्रणीत कथा साहित्य को आगमवत् समझ कर या समझाकर उनमें आये प्रसंगों को सिद्धान्त बतलाकर अनुचित परम्परा का समर्थन करते हुये दिखलाई दे जाते हैं ।और कहते हैं आगम प्रमाण है ।
 मुझे यह बात उस समय ज्यादा खटकी थी जब एक व्यक्ति ने एक पुराण का एक उद्धरण दिखा कर यह सिद्ध किया कि स्त्रियों को मुनिराज के पैर छूने चाहिए । वहां एक श्लोक था जिसमें राम वन में सीता से एक मुनि के चरण छूकर आशीर्वाद लेने को कहते हैं । अब यह बात हम उन महाशय को कैसे समझायें कि यह साहित्य है , यहां तो कई स्थलों पर नारी के अधरों,उरोजों आदि के वर्णन और रतिक्रियाओं के उल्लेख भी मिल जाते हैं तो क्या उन्हें भी आगम प्रमाण बतलाकर कुछ भी स्वीकृत करवायेंगे ?


विचार करें-


अनेकांत दर्शन में 'ही' के स्थान पर आगम 'भी' प्रमाण है , ऐसा ही कहेंगे |तर्क, अनुमान आदि मूल आगम की रक्षा के लिए ही प्रमाण माने गये हैं। मान लीजिए यदि किसी आगम में यह लिखा मिल जाये कि मांस में कोई दोष नहीं है तो जैन परंपरा उस आगम को उठा कर फेंक देगी और कहेगी यह आगम नहीं है क्यों कि मूलधारा , मूल अवधारणा का तर्क हमारी रक्षा करता है,मूल आगम और धर्म की रक्षा करता है ।अन्यथा जिन परम्पराओं ने मात्र किताबों को ही  प्रमाण माना उनके यहाँ की स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गयी है।


समन्तभद्राचार्य का समाधान -


वक्तर्यनाप्ते यद्धेतो: साध्यं तद्धेतुसाधितम् ।
आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम्।।


- आप्तमीमांसा/७८
अर्थात्

यदि वक्ता आप्त नहीं है तब हेतु से जो साध्य है वह हेतु साधित कहलाता है और यदि वक्ता आप्त है तो तब उनके वचनों से जो तत्व सिद्ध होते हैं वे आगम साधित कहलाते हैं ।
हम सभी को मिलजुल कर इस विषय पर गम्भीरता से अवश्य विचार करना चाहिए ।अन्यथा भय यह भी है कि वर्तमान में तथाकथित जो चुटकुले बाजी और शेरो शायरी युक्त विशाल प्रवचन साहित्य छप कर बँट रहा है ,चार- पांच सौ साल बाद वह भी आर्ष प्रणीत आगम न मान लिया जाए ।


"तेरा वैभव अमर रहे माँ,हम दिन चार रहें न रहें"

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