धार्मिक समारोहों में फूहड़ कवि सम्मेलनों से तौबा करें आयोजक
डॉ अनेकान्त कुमार जैन
वर्तमान में हास्य कवि सम्मेलनों का स्तर भले ही निरंतर
गिरता जा रहा हो ,स्वस्थ्य हास्य व्यंग की जगह द्विअर्थी अश्लील संवाद और चुटकुले
बाजी भले ही उपस्थित जन समुदाय की तालियाँ और वाहवाही बटोर रहे हों पर लाखों के
बजट वाले इन स्तरहीन कवि सम्मेलनों का आयोजन धार्मिक समारोहों के मंच पर कतई उचित
नहीं है | आयोजकों को इस बारे में एक बार पुनः विचार कर लेना चाहिए |प्रातः काल
जिस मंच और पंडाल में वीतरागता के प्रवचन
,शुद्ध मन्त्रों से पूजन होती हो ,मंच पर परदे के पीछे भगवान विराजमान हों और
चारों तरफ़ वीतरागी साधुओं के चित्र लगे हों उस वातावरण में ,उसी स्थान पर रात्रि
में व्यसनी कवियों द्वारा मनोरंजन के नाम पर अश्लील व्यंग्यों की प्रस्तुति अत्यंत
निंदनीय है |
मंचपर आसपास तथा सामने अनेक साधक ,त्यागीवृन्द और समाज के
लोग अपने परिवार सहित इस आशा से उपस्थित रहते है कि गरिमामय काव्य सुनने को मिलेगा
किन्तु जब कवि हास्य के नाम पर उल-जलूल प्रस्तुतियाँ देते हैं तब इनके सामने
झेंपने और उठकर जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता |व्यंग्य की फूहड़ प्रस्तुति देख
कर लगता है की जब शब्द चेतना और कला की बारीकियां समाप्त हो जाती हैं तो दिमाग में
बेहूदगी का कीड़ा इसी तरह उपजता है |
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कविसम्मेलन नहीं होना चाहिए |
धार्मिक मंच शिक्षा के मंच हैं मनोरंजन के मंच नहीं और अपार भीड़ किसी भी धार्मिक
समारोह की सफलता का मापदंड नहीं होती है |नहीं तो राजनैतिक मंचों और इनमें भेद
करना मुश्किल हो जायेगा |धार्मिक मंच जनता के स्वाद के अनुसार नहीं चलते बल्कि ऐसे
प्रयोग करते हैं कि जनता का स्वाद विषय भोगों की तरफ़ से हट कर अध्यात्म की तरफ़ लगे
,तभी उनका होना सार्थक भी है |कविसम्मेलन उन्हीं प्रयोगों में से एक प्रयोग होता
है |कविता ह्रदय के तार झंकृत कर देती है ,मनुष्य का हृदय परिवर्तित कर देती है बस
उसमें जान होनी चाहिए |ऐसे कविसम्मेलन करवाना बहुत कठिन नहीं हैं |मगर इच्छा
शक्ति,सही ध्येय और ऊँची सोच होना चाहिए |महज सिर्फ पैसा होने से कुछ नहीं होता |आशा
है समाज इस विषय पर अवश्य ध्यान देगा |
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