क्या भगवान रागी और द्वेषी हैं?
नवभारत टाइम्स | Dec 7, 2008, 11.59PM IST
अनेकांत कुमार
जैन
अक्सर भगवान के भक्तों को यह कहते हुए सुना जाता है कि ऐसा मत करो, नहीं तो भगवान नाराज हो जाएंगे, या फिर ऐसा करो, इससे भगवान खुश होंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि हम में से ज्यादातर लोग भगवान को भी अपने ही जैसा समझते हैं। वैसा ही साधारण मनुष्य, जो खुशामद करने पर खुश हो जाता है और अपनी आज्ञा न मानने वालों पर नाराज हो जाता है। प्रश्न है कि क्या भगवान भी तमाम साधारण इंसानों की तरह रागी और द्वेषी है? दर्शन जगत में ईश्वर को लेकर भले ही अलग-अलग अवधारणाएं हों, किंतु संपूर्ण समाज में आम स्तर पर ईश्वर के विषय में चिंतन कुछ इसी तरह का है। ऐसी अनेक कहानियां सुनाई जाती हैं, जिसका संदेश होता है कि पूजा करने वाले व्यक्ति पर भगवान ने कृपा कर दी ऐसा न करने वाले को भगवान ने दंड दिया और बर्बाद कर दिया। व्यावहारिक जीवन पर थोड़ी दृष्टि डालें तो ऐसा ही सिद्धांत राजाओं, मंत्रियों, सांसदों, अफसरों, कुलपतियों, पुलिस और उच्च पदों पर बैठे सभी लोगों द्वारा अपने-अपने स्तर पर अपनाया जाता है। वे उन अधीनस्थों से खुश रहकर उन्हें कम परिश्रम पर भी अधिक लाभ व सुविधाएं पहुंचाते हैं, जो उनकी खुशामद में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं। इसके विपरीत वे उनसे नाराज होकर उन्हें अधिक परिश्रमी व ईमानदार होने पर भी परेशान करते हैं, जो उनकी खुशामद नहीं करते। कुछ और तुलना करें तो हम पाएंगे कि अपने गुण-दोषों को तो सीमित बताते हैं, जबकि ईश्वर में उन्हीं गुण-दोषों को असीमित बतलाकर उसे सर्वशक्तिमान साबित करने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के रूप में कुछ गुणों को देखें, जैसे हम कुछ ही लोगों का भला कर सकते हैं, किंतु ईश्वर सभी का भला कर सकता है। हम मकान, दुकान, पुल इत्यादि ही बना सकते हैं, जबकि ईश्वर पूरी सृष्टि को बनाता है। हम कुछ जगह ही जा सकते हैं, जबकि ईश्वर सर्व-व्यापक है। हम सिर्फ वर्तमान जानते हैं, वह भविष्य भी जानता है। हम परिवार इत्यादि का ही भरण पोषण कर सकते हैं, वह सभी जीवों का भरण पोषण करता है। इसके विपरीत हम कुछ दोषों को देखें, जैसे हम कुछ लोगों को ही मार सकते हैं, वह सभी को मार सकता है। हम कुछ भवन इत्यादि तोड़ सकते हैं, वह प्रलय लाकर सब कुछ तहस-नहस कर सकता है। हम कुछ भोग आसक्त होकर भोगते हैं, वह सभी भोग अनासक्त होकर भोगता है। हमें क्रोध आ जाए तो एक तिनका नहीं जल पाता, उसे क्रोध आ जाए तो सारी पृथ्वी भस्म कर दे, आदि आदि। कमोबेश पूरे समाज में भगवान को लेकर यही दर्शन देखने को मिलता है। क्या ऐसा नहीं लगता हम भगवान को उसके वास्तविक स्वरूप से भिन्न बतलाकर उसे अपने ही समान रागी-द्वेषी, मायावी, क्रोधी, मानी आदि सिद्ध करने में लगे हैं। मंदिरों में ग्यारह रुपये चढ़ाने वाला व्यक्ति भी यही सोचता है कि ऐसा करने से मुझे ग्यारह हजार रुपये का लाभ होगा। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या फिर चर्च में जाकर हम अपनी भक्ति के फल में इंद्रिय भोगों की पूर्ति की मांग करते हैं। इस तरह भगवान के दरबार में भक्तों के रूप में भोग के भिखारियों की भीड़ ही ज्यादा दिखाई देती है। सच तो यह है कि हम सभी ने अपनी ही तरह भगवान के स्वरूप को भी विकृत कर दिया है। यदि हम सच्चे हृदय से भगवान के स्वरूप का विचार करें, तो पाएंगे कि भगवान स्वयं नाराज या खुश नहीं होते। हम साधारण मनुष्यों में और उनमें सबसे बड़ा अंतर यही है कि हम राग-द्वेष में डूबे रहते हैं, किंतु वे राग द्वेष से परे परम वीतरागी हैं। हम इंद्रियों के क्षणिक सुख और भोग भोगते हैं और वे अतींद्रिय आत्मा के शाश्वत आनंद में चिरमग्न हैं। वे स्वयं किसी का भला बुरा नहीं करते, बल्कि हमें यह रहस्य बतलाते हैं कि जीवन अपने भले बुरे कर्म के कर्ता और भोक्ता हम स्वयं हैं। हम दूसरों की भक्ति में डूबते हैं, वे आत्मभक्ति में निमग्न हैं। हम संसार भ्रमण में लगे हैं, वे संसार के जन्म मरण के चक्र से पूर्णत: मुक्त हैं। |
ये सोने की लंका नहीं सोने की अयोध्या है प्राचीन अयोध्या नगरी का अज्ञात इतिहास (This article is for public domain. Any news paper ,Magazine, journal website can publish this article as it is means without any change. pls mention the correct name of the author - Prof Anekant Kumar Jain,New Delhi ) प्राचीन जैन साहित्य में धर्म नगरी अयोध्या का उल्लेख कई बार हुआ है ।जैन महाकवि विमलसूरी(दूसरी शती )प्राकृत भाषा में पउमचरियं लिखकर रामायण के अनसुलझे रहस्य का उद्घाटन करके भगवान् राम के वीतरागी उदात्त और आदर्श चरित का और अयोध्या का वर्णन करते हैं तो प्रथम शती के आचार्य यतिवृषभ अपने तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में अयोध्या को कई नामों से संबोधित करते हैं । जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई अन्य ग्रंथ लिखे गये , जैसे रविषेण कृत ' पद्मपुराण ' ( संस्कृत) , महाकवि स्वयंभू कृत ' पउमचरिउ ' ( अपभ्रंश) तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् राम का मूल नाम ' पद्म ' भी था। हम सभी को प्राकृत में रचित पउमचरिय...
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